अरुण यादव के फेसबुक वॉल से साभार
आज दादाजी की पुण्यतिथि है। वो एक संघर्षशील प्रगतिवादी, समाजसेवी और दूरदर्शी व्यक्ति थे। बचपन की कुछ यादों के साथ दादा जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
आज से 2 दशक पहले की बात है। मैं उन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहा था। 10 फरवरी 2002 को रविवार के दिन हर रोज की तरह दोस्तों के साथ अभी चाय पीकर लौटा ही था कि PCO वाले भाई साहब (तब मोबाइल कम लोगों के पास होता था) ने बताया कि आपके पापा का फोन आया था घर बात कर लीजिए। मैंने PCO से घर के WLL (वायरलेस लोकल लूप) पर फोन किया। एसपी भैया ने फोन उठाया। गला भरा हुआ था। उन्होंने बात नहीं की और पापा को बुलाया। पापा की आवाज साथ नहीं दे रही थी और मेरी धड़कन जैसे बढ़ने लगी थी। मैंने पूछा पापा क्या हुआ? दूसरी तरफ से आवाज आई बेटा तुरंत बस पकड़ो और बनारस आ जाओ। मेरा मन व्याकुल हो उठा और पापा से फिर पूछा क्या हुआ? दूसरी तरफ से आवाज आई पिताजी साथ छोड़ दिए। ये सुनते ही मेरे पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई।
अभी कुछ दिन पहले ही घर से लौटा था। तब तो दादा जी एकदम फिट थे आखिर अचानक क्या हुआ? दादाजी की मौत कैसे हुई? मन में उठते इन तमाम सवालों को लिए मैं बस में सवार हुआ और करीब 5 घंटे के सफर के बाद काशी के अस्सी घाट पहुंचा तो दादा जी को मुखाग्नि दी जा चुकी थी।
एक तरफ दादा जी की चिता जल रही थी तो दूसरी तरफ मेरे आंसू बह रहे थे। दादा जी को आखिरी बार ना देख पाने का मलाल आज भी है। खैर इस बीच पापा मेरे पास आए और बोले जो आया है उसे एक दिन जाना ही है। यही सत्य है। रोना नहीं है हिम्मत से काम लेना है। पिता जी के आदर्श हमेशा हम सभी के साथ रहेंगे। उस दिन के बाद से आज तक चाहे कितनी बड़ी मुसीबत आ जाए आंसू नहीं निकलते। ये अलग बात है की जब कभी भावनाएं आहत होती हैं तो बरबस आंसू निकल आते हैं।
शायद ये इमोशन भी दादा जी से ही मिला है। वो बाहर से जितने सख्त दिखते थे अंदर से उतने ही कोमल। पापा से ज्यादा मेरा बचपन दादा जी की छाया में बीता। जितनी बातें दादा जी से करता उतनी शायद पापा से नहीं हो पाती थी।
बातों बातों में दादा ने समाज की समझ कब हमारे मानस पटल पर उकेर दी पता ही नहीं चला। दादा जी के लिए सभी समान थे। ना जाति का कोई भेद और न ही धर्म का कोई रोड़ा। घर आने वाले हर शख्स का समान सम्मान। किसी भी जाति का व्यक्ति घर आ जाए तो क्या मजाल हम बच्चे बिना प्रणाम किए वहां से निकल जाएं। लेकिन (उस वक्त भी समाज में काफी भेदभाव था) एक बात बचपन में बहुत खटकती थी की समाज में बनाई जाती व्यवस्था के मुताबिक कुछ जातियों के लिए बर्तन अलग रखे जाते थे हालांकि इस बात का ख्याल रखा जाता था कि जिस बर्तन में घर वाले खाते पीते वैसा ही बर्तन का एक सेट अलग से खरीद कर रखा रहता। हम बच्चों को दादी की खास हिदायत रहती की बर्तन एक में मिलना नहीं चाहिए।
कभी कभी बचपन में जब दादा जी से इस बारे में सवाल पूछते तो वो ये कहकर टाल देते कि ये समाज की बनाई व्यवस्था है तुम बच्चे हो अभी नहीं समझोगे।
ऐसे में कभी कभी हम लोग चाय पिलाने के बाद सभी बर्तन मिला देते। इसके लिए दादी की डांट भी पड़ती। शायद उस वक्त ये हंसी खेल में हम भाई करते लेकिन थोड़े और बड़े हुए तो समाज के भेदभाव का रिवाज समझ आने लगा। लेकिन वक्त बीतने के साथ परिवार से दादा के समाजवाद में आड़े आने वाला ये रोड़ा भी हम भाइयों ने मिलकर खत्म कर दिया।
दादाजी ने जीवन भर संघर्ष किया और अपने परिवार के साथ गांव को भी प्रगति के रास्ते पर ले जाने की कोशिश करते रहे। 60 के दशक में गांव में सिंचाई के लिए रहट या मोट से बैल के जरिए पानी कुएं से निकाला जाता था।
दादाजी बताते थे की जब वो 1965 में सिंचाई के लिए डीजल पंपिंगसेट खेत में लगवा रहे थे तो आसपास के गांव के लोग कहते कि “अरे यादव जी पागल हो गए हैं, लोहा कहीं पानी निकालेगा।” लेकिन जब गांव में पंपिंग सेट चालू हुआ और खेत की सिंचाई आसान हुई तो कुछ बरस बाद आसपास कई गांवों में ये व्यवस्था शुरू हो गई।
इसी तरह 1975 में दादा जी ने गांव में बिजली का इंतजाम करने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने पहले अपने गांव के पास एक सरकारी ट्यूबवेल पास करवाया जिससे गांव तक लाइट का कनेक्शन आ गया और 3 साल बाद अपने घर तक लाइट ले आए और फिर इंजन से बिजली की मशीन का दौर शुरू हो गया।
70 के दशक के आखिरी साल में गांव में स्कूल का इंतजाम किया। कई साल तक स्कूल अपनी जगह बदलता रहा और आखिर में 80 के दशक में अपने मित्रों की मदद से जूनियर हाई स्कूल की स्थाई रूप से स्थापना की।
80 के दशक में ही दादा जी राजदूत और टीवी घर ले आए। वो बाइक और कार के शौकीन थे। बचपन से उन्हें मैंने राजदूत से एंबेसडर तक का सफर तय करते देखा।
उनके ये कदम उनकी दूरदर्शिता और प्रगति वादी सोच को दर्शाती हैं। वो हम बच्चों से हमेशा कहा करते “कभी संघर्ष करने में कमी मत करो सफलता खुद ब खुद चलकर आएगी।” मेरे दादा जी ही मेरे आदर्श हैं। मैं आज भी उनके दिए संस्कारों और सरोकारों के मुताबिक जीने की कोशिश करता हूं। दादाजी आप हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेंगे।
दादाजी को विनम्र श्रद्धांजलि