ज़ैग़म मुर्तज़ा
क़रीब दो दशक पहले गांव जाना हमारे लिए अंतर्राष्ट्रीय पिकनिक से कम न था। हफ्ता भर पहले तैयारियां शुरू हो जातीं थी। गांव कोई ऐसा ख़ास दूर नहीं है। गजरौला से सैयद नगली महज़ 28 किलोमीटर दूर है लेकिन उन दिनों में यह दूरी वक़्त के लिहाज़ से काफी ज़्यादा थी। इसको पूरा करने में आधा दिन गुज़र जाता था। स्टेट हाईवे संख्या 51 पर स्थित सैयद नगली की दूरी गजरौला से अब भी इतनी है, मगर फासला कम हो गया है। मुझे याद है पिताजी के दुनिया से सिधारने के बाद पहली बार पता लगा था कि गांव कितनी दूर है। उनके रहते जीप में बैठते या बाईक पर घंटे भर में गांव पहुंच जाते थे। फिर पता लगा कि इस बीच में दो बार बस बदलनी पड़ती है। बस भी ऐसी कि कोई घर की छत से हाथ हिला दे तो सवारी के इंतज़ार में वहीं खड़े खड़े घंटा गुज़ार दे। बस में सवारी, बकरी, कुत्ते और दूसरे जानवरों के बीच कोई भेदभाव न होता था। सब एक साथ मज़े में सफर करते थे।
लेकिन दो दशक पहले का सैयद नगली वक़्त के पन्नों में कहीं खो गया है। बस सरकार की नज़र में ग्राम सभा है और सियासत का मिजाज़ बताता है कि मेरा सैयद नगली अभी भी गांव है वरना गांव जैसे लक्षण एक एक कर वक़्त के पन्नों में खोते जा रहे हैं। कच्चे घर नहीं हैं, सड़के सिमेंटेड हैं, गलियों में स्ट्रीट लाईट और सोलर पॉवर लैंप भी हैं। गांव में बैंक, अस्पताल, एटीएम, बिजली, सड़क, स्कूल, पुलिस थाना, बस सर्विस, मोबाईल, टेलीफोन, बिजली, जनरेटर सब कुछ है। आस पास के कई गांवों की ज़रूरत यहीं से पूरी होती है। कई कुटीर उद्योग धंधे पनप गए हैं। हालांकि पढ़ने लिखने और रोज़गार की तलाश में अब भी लोग बाहर जाते हैं लेकिन आसपास के कई गांव के लोग भी यहां काम धंधों की तलाश में आकर बसे हैं। दिल्ली से नज़दीकी, सीधी बस सेवा और शिक्षा का फायदा गांव को मिला है।
दिल्ली में सीलिंग के बाद जींस सिलाई के कई कारख़ाने गांव में लगे। इसके अलावा कृषि उत्पादन और दूसरे छोटे मोटे स्थानीय उत्पादों को दिल्ली की मंडी तक पहुंचाना आसान हो गया। साथ ही सियासी समझबूझ और नेताओं से काम करा लेने की लोगों की क़ाबिलियत से भी फर्क़ पड़ा है। लेकिन बदलाव की सबसे बड़ी वजह शिक्षा ही है। दुनिया के हर बड़े विश्वविद्यालय में सैयद नगली के निवासियों ने दस्तक दी है। कारोबार से लेकर सरकार के हर विभाग में नगलीवासी अपनी नुमाइंदगी दर्ज करा रहे हैं। अपने सियासी और समाजी अधिकारों के लिए लोग जागरूक है। पिछले बीस साल में बदलाव बहुत आए हैं लेकिन सब कुछ ठीक भी नहीं है। सियासत ने समाज में कड़वाहट घोली हैं। हालांकि साम्प्रदायिक तौर पर गांव अभी तक शांत रहा है लेकिन लोग अब हिंदू मुस्लिम का फर्क़ समझने लगे हैं। इसमें जमात और हिंदूवादी संगठनों का ख़ासा योगदान है। फिर भी बदलाव तो आया ही है। गांव बदल रहा है, लोग बदल रहे हैं, मानसिकता बदली है, बस सियासत और बदल जाए तो मेरा गांव एक आदर्श गांव ही कहलाए।
ज़ैग़म मुर्तज़ा। उत्तरप्रदेश के अमरोहा जिले में गजरौला के निवासी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र फिलहाल दिल्ली में राज्यसभा टीवी में कार्यरत हैं।
शहर से गांव लौटने पर कैसा भय… पढ़ने के लिए क्लिक करें