ओ शहर, गांव से बड़े भय के साथ लौटता हूं

अमित शर्मा

mandhnअब यहां की धूल में पहले-सी वो महक नहीं। अब यहां के ‘राम-राम’ वाले संबोधन में पहले-सा अपनापन नहीं। अब यहां की बर्फी में पहले-सा वो स्वाद नहीं। धोती की जगह जींस ने ले ली है। बंडी, कुर्ता, बनियान की जगह टी-शर्ट ने ले ली है। लोकगीत बिसरते जा रहे हैं, लाउड स्पीकर की फटी बांस आवाज में फिल्मी पैरोडी हावी है। ये मेरा गांव है। उदय प्रकाश की कहानी ‘तिरिछ’ के शहर जितना स्वार्थी तो नहीं, पर मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ के गांव जितना सहज भी नहीं।
अलवर जिले की बहरोड़ तहसील में हरियाणा बॉर्डर पर है मेरा गांव, मांढण। हैरिटेज होटल नीमराना फोर्ट इस गांव से बस कुछ किलोमीटर की दूरी पर है। बदकिस्मती या खुशकिस्मती, पता नहीं पर हमारा जन्म शहर में हुआ। कहानी-किताबों मे जितना पढ़ा, उतना ही अपने गांव को जाना। कोई चार-पांच साल में एकबारगी गांव की तरफ कदम बढ़ते, वो भी परिजनों के दबाव में। ये दबाव इस बार भी बना तो चल दिए गांव। जयपुर से तकरीबन 122 किलोमीटर दूर दिल्ली हाईवे पर मिडवे बहरोड़ तक पहुंचने में इतना कष्ट नहीं होता, जितना बहरोड़ से मांढण के 22 किलोमीटर में होता है। भ्रष्टाचार के डामर से जुड़ी सड़कें जब शहर में नहीं टिक पातीं तो गांव में क्या उम्मीद की जाए। हिचकोले खाते गांव तक पहुंचे।
गांव में मेला भरा था। हर साल जलझूलनी ग्यारस पर यहां मेला भरता है। दूर के गांवों से ट्रैक्टर भर-भरकर आते लोग। सजी-धजी बहुएं-बेटियां। गोद में बच्चे। घरों में घी से तरा चूरमा और उसके साथ बाटी नहीं, बल्कि पूड़ी का कॉम्बिनेशन। मेले वाले मंदिर में पहुंचिए। पुलिस के सिपाही कुर्सियों से हिलने को तैयार नहीं, लोगों को भी उनकी परवाह नहीं, लेकिन साइकिल सवार कुल्फी वाले की लॉटरी निकली है। नई बहुओं वाली पलटन भी सास के साथ कुल्फी की चुस्की लेने में पीछे नहीं है, पर घूंघट के अंदर ही चटखारे लगाना होगा।

www.retinacharmer.com
स्रोत-www.retinacharmer.com
जलेबियों के खोमचे भी हैं। आगे देखता हूं तो चौंक जाता हूं। बर्गर…यहां…गांव में…! कौन कहता है हिंदुस्तान ने तरक्की नहीं की! झूले के नीचे भीड़ जमा है। अब हाथ वाले झूले नहीं हैं, डीजल के जनरेटर से चलने वाले हैं। ‘मैरीगोराउंड’। गांव के तालाब पर कुश्ती का आयोजन हो रहा है। इनामी राशि भी लुभावनी ही है। कुछ अंधेरा ढलता है तो पता चलता है पूरा गांव रोशन है। मन खुश हो जाता है। वाह..! कुछ देर बाद जब यह मालूम चलता है कि 90 फीसदी घरों में चोरी की बिजली आ रही है तो अबकी बार कुछ ज्यादा संवेग से निकला, वाह..!
बहरहाल, अब गांवों को पुरातन चश्मा हटाकर देखना होगा। आज गांव की परचूनी की दुकान पर हर ब्रांड का साबुन, शैंपू मिल जाएगा। कम से कम मेरे गांव के लोगों का तो कहना है कि यहां फैशन जयपुर से पहले पहुंचता है, क्योंकि दिल्ली यहां से ज्यादा दूर नहीं। गांव के खेत अब सिर्फ खेत नहीं रहे हैं। यहां फार्म हाउस डवलप हो गए हैं। इसे घरों में काबिज हो चुके प्राइवेट चैनल का कमाल कहें या फिल्मों का, लोग छोटी-छोटी हवेलियां छोड़ अपने लंबे-चौड़े बीघाओं में फैले खेतों में ही बसने लगे हैं। हां, ये जरूर है कि इन अत्याधुनिक पक्के मकानों के कमरों में अब भी ‘वेलकम’ लिखे करीना कपूर और कटरीना कैफ के पोस्टर मिल जाएंगे। अब गांव में ट्रैक्टर कम, लग्जरी गाड़ियां ज्यादा देखने को मिल रही हैं। बाहर से धूल-धूसरित जरूर हैं पर अंदर लकदक है।
गांव के तेवर बदले, तहजीब बदली, तासीर बदली, तहरीर बदली है। बदलाव प्रकृति का नियम है। पर एक भय भी है कि कहीं यह बदलाव का नियम गांव की प्रकृति में बदलाव न ला दे। इस भय के साथ अब देर रात को वापस लौट रहा हूं, एक और भय की तरफ। बल्कि यूं कहें कि बड़े भय की तरफ। हां, शहर की तरफ…।
amit sharma profile

अमित शर्मा। जयपुर के निवासी अमित शर्मा ने इन दिनों भोपाल में डेरा डाल रखा है। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया का अनुभव बटोरने के बाद आप फिलहाल भास्कर के साथ जुड़कर वेब टीवी पर नए प्रयोग कर रहे हैं।

One thought on “ओ शहर, गांव से बड़े भय के साथ लौटता हूं

  1. अमित जी
    आपके लेख बहुत ही अच्छे हैँ ।मुझे भी इस लेख ने अपने गाँव की याद दिला दी ।भूमंडलीकरण के इस दौर में कमोबेश ग्रामीण भारत का चेहरा भी बदलने लगा है।शहर की बात ही क्या करे … संस्कार और संस्कृति अब किताबो में पढ़ने और कला फिल्मो में देखने की बात होने लगेगी ।

Comments are closed.