ब्रह्मानंद ठाकुर
बिहार में विधानसभा चुनाव की सरगर्मी परवान चढी हुई है। इसी चुनावी सरगर्मी के माहौल में राजकमल प्रकाशन से एक किताब आई है , नाम है ‘ रुकतापुर ‘। इस पुस्तक के लेखक है, युवा पत्रकार पुष्यमित्र। प्रिंट मीडिया के कई बडे संस्थानो में कार्यरत रहें है लेकिन जनपक्षीय पत्रकारिता करने के लिए उन्होंने अपने संस्थान को अलविदा कह दिया और निकल पड़े कंटकाकीर्ण राहो पर चलते हुए घुमंतू पत्रकार के रूप मे जनता के दु:ख – दर्द को मुखर स्वर प्रदान करने के लिए। ऐसे ही राहों पर चलते हुए उन्होंने अबतक तीन किताबें लिखी हैं- रेडियो कोसी, जब नील का दाग मिटा: चम्पारण और रुकतापुर। पहले वाली दो किताबें मैने अबतक नहीं पढी हैं लेकिन सोशलमीडिया में जब रुकतापुर की चर्चा हुई तो मैंनें तुरंत फ्लिपकार्ट को पुस्तक लाने का आदेश दे दिया। आदेश देने के चौथे दिन डिलिवरी ब्वॉय से ‘रुकतापुर’ का पेपरबैक संस्करण मुझे प्राप्त हो गया।
आवरण पृष्ठ पर लिखी लेखक की यह पंक्ति ‘बिहार जहां थम जाता है पहिया बदलाव की हर गाडी का’ पढते ही मैं चौंक गया। चौंकने का कारण यह था कि मैं भी यह बात महसूस कर रहा हूं कि आजादी के बाद से आजतक हाशिए पर रहने वाले लोगों को विकास के नाम पर केवल लालीपॉप ही थमाया जा रहा है। कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में जैसे कर्ण के रथ के पहिए को पृथ्वी जकड़ रखी थी, ठीक वैसे ही हमारे बिहार और देश के विकास के पहिए को किसी अदृश्य शक्ति ने जकड़ रखा है। मुझे लगा कि शायद इस किताब में सिर्फ मेरी ही अनुभूति नहीं सार्थक, बदलाव की चाहत रखने वाले देश के हर व्यक्ति की पीड़ा को स्वर मिला होगा।
मैंने किताब का पन्ना पलटना शुरू किया। 230 पृष्ठों और आंकड़ों से भरे 12 पेज यानी कुल 232 पृष्ठ की यह किताब, मुझे लगा कि यह पुस्तक सचमुच बिहार के दावे की असलियत बयां करती है जो लेखक की कानो सुनी नहीं, आंखिन देखी है। रुकतापुर किताब की शुरुआत ‘जा झार के, मगर कैसे’ से प्रारम्भ होती है। इस पुस्तक में घोघो रानी, कितना पानी, दूध न बताशा, बौवा चले अकासा, जयजय भैरवी, केकरा से करों अरजिया हो सगरे बटमार, हमरे गरीबन के झोंपड़ी जुलुमवा, एमए में लेके एडमिशन, कम्पिटीशन देता, सवाल तो बनता है, जैसे उप शीर्षक के माध्यम से बिहार के विकास के सरकारी दावे का पोस्टमार्टम करता है।
अपने आलेख की इस पहली कड़ी की शुरुआत मैं ‘रुकतापुर पुस्तक की’ हमरे गरीबन के झोपडी जुलुमवा’ जो भूमिहीनता की समस्या और ऑपरेशन दखलदहानी का सच उजागर करती है, की चर्चा कर रहा हूं।घुमक्कडी प्रवृति वाले लेखक, पत्रकार पुष्यमित्र जी ने इस उपशीर्षक के माध्यम से जिस समस्या को उठाया है, वह खास नहीं आम है और कमोवेश बिहार और देश के अन्य राज्यों में भी व्याप्त है। लेकिन चर्चा पश्चिम चम्पारण की है जहां 1917 में पंडित राजकुमार शुक्ल के आग्रह पर महात्मा गांधी नीलहों के आतंक से किसानो को मुक्ति दिलाने आए थे। पुष्यमित्र 2019 की लोकसभा चुनाव के दौरान रिपोर्टिंग के सिलसिले पूरे बिहार मे घूमते हुए पश्चिम चम्पारण के इलाके में भी घूम रहे थे। उसी दरम्यान इनकी मुलाकात भितिहरबा पंचायत के बैरटवा गांव के फुलेना मांझी के उत्तराधिकारी से हूई, जो एक एकड जमीन का पर्चा लिए दर दर भटक रहा था। 1981 में फुलेना मांझी को उक्त जमीन का पर्चा मिला था लेकिन जमीन नहीं मिली। फुलेना मांझी 2 साल पहले (2017 में) मर गये और उनका उत्तराधिकारी पर्चे वाली जमीन आज भी तलाश रहा है। यह पढ़ते हुए मुझे श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी याद आ गया जो जमीन सम्बंधी एक दस्ताबेज की नकल के लिए एंडियां घिसते हुए मर गया लेकिन तहसील के नकल नवीस से उसे दस्तावेज की नकल नहीं मिली। बताते चलें कि राग दरबारी का प्रकाशन 1967 में हुआ था और इसकी रचना 1954 से 1967 के बीच हुई। यानि आजादी के 7वें साल से 20वें साल के बीच और पुष्यमित्र जी 2019 मे यानि आजादी के 72वें साल में पश्चिम चम्पारण के भूमिसमस्या को आन द स्पाट देख और महसूस कर रहे हैं। वे लिखते है “भितिहरबा और इसके पड़ोस की दो पंचायतों के 108 भूमिहीन परिवार इसी तरह 38 साल से हाथ में पर्चा लिए घूम रहे हैं। इसी भितिहरबा में ढाई ढाई सौ एकड वाले भू-धारी भी हैं और इसी चंपारण में चीनी मिलों के पास 5200 एकड के फार्म आज भी मौजूद हैं। यहां एक कहावत है —-‘ निलहे गये तो मिलहे आए ‘ । मतलब नील प्लांटरों की जगह चीनी मिल वालों ने लेली और हजारों एकड़ जमीन हथिया लिया। राज्य में भूमिसुधार कानून भी है जिसके तहत सरकार ने यह नियम भी बनाया हुआ है कि कोई भी चीनी मिल अपने पास 175 एकड़ से अधिक जमीन नहीं रख सकती। यदि इस कानून को मुस्तैदी और सख्ती से लागू कर दिया जाए तो भूमाहीनों को खेती योग्य पर्याप्त जमीन उपलब्ध हो जाएगी और उनके जीवन स्तर में बेहतर बदलाव आ सकेगा।
अगली कड़ी में कुपोषण, अकालमृत्यु और बदहाल चिकित्सा व्यवस्था (दूध न बताशा, बौवा अकासा ) की चर्चा।