23 मार्च भगत सिंह का शहादत दिवस है। 1931 में इसी दिन भारतीय आजादी आंदोलन की गैरसमझौतावादी धारा के इस जांबाज क्रांतिकारी को फांसी के फंदे पर झुला दिया गया था। 13 अप्रैल, 1919 में जब जालियांवाला बाग नरसंहार कांड हुआ था तब भगत सिंह की उम्र मात्र 11 साल की थी । वे जालियांवाला बाग कांड से इतने मर्माहत हुए कि वहां की खून से सनी कुछ मिट्टी अपने घर उठाकर ले आए थे। जालियांवाला बाग हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक दंगे का प्रचार बड़ी तेजी से शुरू किया जिसके परिणाम स्वरूप 1924 में कोहाट में भयानक हिंदू- मुस्लिम दंगे भड़के। इस तरह हम देखते हैं कि राष्ट्रीय आजादी के दौरान देश में साम्प्रदायिक दंगे की जो शुरुआत हुई , वह सिलसिला आज भी जारी है। साम्प्रदायिक दंगों की समस्या के संदर्भ में जून 1927 में भगत सिंह का एक लेख ‘ किरती ‘ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। भगत सिंह नेअपने इस लेख में साम्प्रदायिक दंगे के मूल में व्याप्त जिस मुद्दों का उल्लेख किया था , आजादी के 73 वर्षों बाद भी वे मुद्दे हमारे राजनीतिक और सामाजिक जीवन में आज भी मौजूद हैं।
बदलाव के पाठकों के लिए प्रस्तुत है भगत सिंह का ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक लेख
भारतवर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के जानी दुश्मन बने हुए हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिंदुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। ये मार-काट इसलिए नहीं है कि फलां आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलां आदमी हिंदू है , सिख या मुसलमान है। किसी व्यक्ति का सिख या हिंदू होना , मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिंदुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
भगत सिंह शहादत दिवस पर विशेष
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अंधकारमय नजर आता है। इन धर्मों ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे ? इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है और हमने देखा है कि इस ( अंधविश्वास ) के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिंदु ,सिख या मुसलमान होता है ,जो अपना दिमाग ठंढा रखता है , बांकी सबके सब धर्म के ये नामलेवा धर्म के रोब कोकायम रखने के लिए डंडे ,लाठियां , तलवार ,छूरे हाथ में पकड लेते हैं और आपस में सर फोड कर मर जाते हैं। बांकी बचे हुए तो फांसी चढ जाते हैं और कुछ जेलों में कैद कर दिए जाते हैंः इतना रक्तपात होने पर ‘ धर्मजनों ‘ पर अंग्रेजी सरकार का डंडा बरसता है और फिर उनके दिमाग का कीडा ठिकाने पर आ जाता है।
जहां तक देखा गया है , इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है। इस समय हिंदुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होने भारत को स्वतंत्र कराने का बीडा अपने सिरों पर उठाया हुआ था , और जो समान राष्ट्रीयता और स्वराज- स्वराज के दमगजे मारते थकते नहीं थे , वही या तो अपने सिर छिपाए चुपचाप बैठे हुए हैं या इसी धर्मांधता के बहाव में बह चले हैं। सिर छिपा कर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है ? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आंदोलनों में जा मिले हैं ,वैसे तो जमीन खोदने से सैंकडो निकल आते हैं ; जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं , ऐसे बहुत ही कम हैं। और ,साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भडकाने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं , वे अखबार वाले हैं।
पत्रकारिता का व्यवसाय ,जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था ,आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक दूसरे के विरुद्ध बडे मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भडकाते हैं और परस्पर सिर फुटोव्वल कराते हैंः एक – दो जगह ही नहीं , कितनी ही जगहोंं पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बडे उत्तेजनापूरँण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक जिनका दिल और दिमाग ऐसे मौके पर शांत रहा
हो , बहुत कम हैं।
अखबारों का असली कर्तव्यय शिक्षा देना , लोगों से संकीर्णता निकालना ,साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना ,परस्पर मेल- मिलाप बढाना और भारत की साक्षी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञानता फैलाना ,संकीर्णता का प्रचार करना , साम्प्रदायिक बनाना लडाई – झगडे करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार करने पर आंखों से रक्त के आऔसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘ भारत का क्या बनेगा ?’
जो लोग असहयोग के दिनो के जोश और उभार को जानते हैं , उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहां वे दिन थे कि स्वतंत्रता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहां आज यह दिन कि स्वराज एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है , जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। वही नौकरशाही जासके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था कि आज गयी ,कल गयी ,आज अपनी जडें इतनी मजबूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जडें खोजें तो हमे इसका कारण आर्थिक ही जान पडता है। असहयोग के दिनो में नेता और पत्रकारों ने ढेरो कुर्बानियां दी। उनकी आर्थिक दशा बिगड गई थी। असहयोग आंदोलन के धीमा पडने पर नेताओं पर अविश्वास- सा हो गया , जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक सिद्धांतों के धंधे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है।
बस , सभी दंगो का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा मे सुधार ला कर ही हो सकता है। भारत की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति किसी को चवन्नी देकर भी अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से इकुल होकर मनुष्य सभी सिद्धाऔत ताक पर रख देता है। सच है , मरता क्या न करता !
लोगों को परस्पर लडने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। गरीब , मेहनतकशों ,व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूंजीपति हैं , इसलिए तुम्हें इन हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढकर कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के , चाहे वे किसी भी रंग ,जाति ,धर्म या राष्ट्र के हों , अधिकार एक ही है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म , रंग ,नस्ल ,राष्ट्रीयता व देश का भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथ में लेने का प्रयत्न करो। इन प्रयत्नों से तुम्हारा नुकसान नहीं होगा। इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जाएंगी और तुम्हे आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।
(चमन लाल द्वारा सम्पादित ‘भगत सिंह के सम्पूर्ण दस्तावेज ‘ से साभा