मोहन जोशी
मशहूर लेखक व दार्शनिक ‘ज्यां पॉल सात्रे’ ने कहा था ‘ यदि आप जीत का वृतांत सुन लें , तो आपके लिए हार और जीत का फर्क ख़त्म हो जाएगा’। युद्ध, जीत और हार को एकपक्षीय बना देती है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत कला युद्ध के विरुद्ध सबसे मारक हथियार बनकर उभरी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद ‘इर्विन शॉ’ की रचना ‘बरी द डेड’ इस प्रतिरोध का महत्वपूर्ण नाटक है। 21 वें भारत रंग महोत्सव में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ के निर्देशन में इस नाटक का मंचन किया गया। नीपा रंगमंडली लखनऊ की इस प्रस्तुति को दर्शकों ने खूब सराहा।
नाटक में एक अज्ञात युद्ध में दो दिन पूर्व मरे 6 सैनिकों को दफ़नाया जा रहा है। पर सैनिक अचानक उठ खड़े होते हैं और दफ़न होने से इनकार कर देते हैं। सैनिकों का ये इनकार फौज के आला अफ़सरों के लिए मुश्किलों का सबब बन जाता है। युद्ध में हारने कीआशंका और सैनिकों में विद्रोह के डर की वजह से फौज़ के ये बड़े अफसर इन सैनिकों से दफन हो जाने का अनुरोध करते हैं. मृत सैनिक अड़ जाते हैं क्योंकि वो अपने जीवन से बेपनाह प्यार करते हैं। जीवन के हर अधूरे अनुभव जैसे प्रेम, विवाह, दोस्ती, खेती-किसानी, प्रकृति को निहारना और उसकी संगत में रहने का भरपूर आस्वादन लेना चाहते हैं। इसके बाद सैनिकों को मनाने के लिए उनके घर की औरतों को बुलाया जाता है। पर क्या ये सैनिक परिवार के भावनात्मक आग्रह के आगे झुक जाएंगे? यही है ’बरी द डेड’ नाटक का कथ्य।
भारत रंग महोत्सव विशेष कवरेज
‘बरी द डेड’ नाटक 1936 में लिखा गया, पर सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ ने इस नाटक का रूपान्तरण करते समय इस बाद का ख्याल रखा है कि इसमें समसामयिकता का छौंक लगता रहे। नाटक छदम राष्ट्रवाद और धर्म की आड़ में हिंसा का उन्माद फ़ैलाने वालों पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करता है। नाटक देखते वक़्त दर्शक भावनाओं के कई रंग से गुजरते हैं , जो कभी उन्हें हँसाता है , कभी बेचैन करता है तो कभी भावुक कर देता है। कथ्य और अर्थ के बीच पुल बनाने में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ सफल रहे हैं और नाटक अपनी सार्थकता पा लेता है।
अभिनेताओं के लिए संवाद के बीच बजती तालियों का अपना पैगाम था। सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ हालांकि अभिनय के प्रचलित विचार के विपरीत अपनी राय रखते हैं। उनका मानना है कि अभिनेता भले ही अपने भीतर की भावनाओं को खुद महसूस ना करे लेकिन अगर वो दर्शकों तक पहुँचने में सफल हो जाता है तो अभिनेता अपना उद्देश्य पूरा कर लेता है।
भोपाल के नामचीन रंगकर्मी अनूप जोशी ‘बंटी’ की प्रकाश परिकल्पना बेहद दिलचस्प रही . ‘फॉलो लाइट’ का बखूबी इस्तेमाल किया गया। इस वजह से मंच पर मनमाफिक स्थान पर ‘स्पॉट’ बनाने की स्वतंत्रता मिल रही थी। प्रकाश परिकल्पना नाटक के डिजाईन पर कहीं हावी नहीं दिखी।
नाटक में मेकअप पर विशेष ध्यान जाता है। प्रवीण नामदेव व शाहीर अहमद ने युद्ध में घायल , ज़ख्मी, क्षत-विक्षत चेहरे को विशेष मेकअप दिया जो बनावटी या बेतरतीब नहीं दिखा। कुल मिलाकर ये नाटक युद्ध के ऊपर जीवन, देश के ऊपर मानवता , हिंसा की बजाए अहिंसा के पक्ष खड़े होने के विचार को प्रतिपादित करता है।
मोहन जोशी। स्वतंत्र मीडियाकर्मी। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। डॉक्यूमेंट्री मेकर। रंंगकर्मी और नाटककार।