पुष्यमित्र
छठ जीवित देवताओं का पर्व है। यह सिर्फ सूर्योपासना का ही पर्व नहीं है, जल धाराओं की उपासना का भी पर्व है। तभी तो पिछ्ले तीन चार दिनों से नदियों, तालाबों और उसके घाटों की सफाई का अभियान चल रहा है। सिर्फ उपवास ही नहीं, यह साफ सफाई भी इस पर्व का हिस्सा है। तीन दिनों के लिए बिहार की नदियों और तालाबों के किनारे इतने साफ सुथरे होंगे कि वहां गिरने वाले प्रसाद के कण को भी निसंकोच उठा कर खाया जा सकेगा। मगर 3 नवम्बर के बाद फिर हम इन घाटों को भूल जायेंगे। अगले साल तक के लिए।
पटना में रहने वाले दूसरे राज्यों के लोग चकित होकर कहते हैं कि बारह महीने आकन्ठ गन्दगी में डूबा रहने वाला यह प्रांत महज छठ के चार दिनों के लिए इतना साफ सुथरा कैसे हो जाता है और फिर कैसे अगले ही दिन से वह फिर वैसा का वैसा होकर रह जाता है। उनकी बातें सुनकर सोचता हूं कि अगर यह पर्व हर महीने हुआ करता तो कितना अच्छा होता। हम स्वच्छता और पर्यावरण के प्रति सचेत होने को अपनी आदत में शामिल कर लेते।
हैरत तो इस बात पर भी होती है कि छठ के लिए अब घाटों की कमी होने लगी है। लोग दरवाजे और छतों पर हौदा बनाकर छठ मनाने लगे हैं मगर यही लोग छठ के बाद पोखरों, तालाबों और छोटी नदियों की जमीन कब्जाने में नहीं हिचकते। बिहार में जैसे जैसे छठ का प्रचलन बढ़ रहा है, पोखरों और छोटी नदियों की संख्या घट रही है। कभी बिहार में दो लाख से अधिक तालाब हुआ करते थे, अब सिर्फ 98 हजार बचे हैं। यह संख्या भी 5 साल पुरानी है।
बिहार में छोटी नदियों की संख्या 200 से अधिक थी, 80 नदियों का नाम हवलदार त्रिपाठी जी ने अपनी किताब में दर्ज किया है। महज 50 साल पहले। अब कितनी नदियां बची हैं? इनमें से आधी से अधिक धाराएं खेतों और बस्तियों में बदल दी गई हैं। इसी साल मार्च महीने में एशिया की सबसे बड़ी गोखुर झील कांबर पूरी तरह सूख गयी थी। मगर यह बात ज्यादातर स्थानीय लोगों के लिए खुशी की वजह थी। क्योंकि उनके लिए खेती की जमीन बढ़ गयी थी। बाद में पता चला कि खुद बिहार सरकार काबर, कुशेश्वर आदि झीलों का रकबा घटाना चाहती है। बिहार सरकार ने जल जीवन हरियाली अभियान शुरू किया है, मगर हाल के 7-8 सालों में उसने खुद पटना शहर के कई तालाबों को भरवा दिया।
दरभंगा शहर में आजकल गर्मियों में टैंकर से पानी की सप्लाई हो रही है, जबकि पिछ्ले 25 सालों में आधे से अधिक तालाब भर दिये गये। वहां तालाब के किनारे की जमीन सोने के भाव बिक रही है। मोतिहारी की प्रसिद्ध मोती झील का वही हाल है। गया के ऐतिहासिक तालाब भी उसी तर्ज पर भरे जा रहे हैं। गांव से लेकर शहर तक एक ही कहानी है।
अब आप कैसे भरोसा करेंगे कि यह सब उसी राज्य में हो रहा है जहां छठ सबसे बड़ा त्योहार है। हम प्रकृति के पर्व के रूप में इसकी ब्रांडिंग करते हैं। लोगों को लगता है कि सिर्फ नेम निष्ठा से खरना करने और सुबह शाम सूर्य को जल चढ़ा देने से ही छठी मैया खुश हो जाएंगी और उनकी मन्नत पूरी हो जाएगी? वे यह नहीं सोचते कि छठी मैया और सूर्य की आराधना के नाम पर यह पर्व हमें जो सिखाना चाहता है, वह प्रकृति का स्वरूप बचाए रखना है। क्योंकि अन्ततः प्रकृति ही सभी जीवों की रक्षा करती है। काश हम कभी यह भी सीख पाते।