पशुपति शर्मा
शनिवार, सुबह… एक मित्र से सुना था उसका नाम-कौशलेंद्र। बहुत कुछ नहीं जानता, उसके बारे में। मित्र ने बताया- शिक्षा के क्षेत्र का ‘एक्टिविस्ट’ था। किसी दिन कौशलेंद्र ने एक लेख लिखा। ‘बड़ी दुनिया’ में कोई असर हुआ कि न हुआ… लेकिन उसकी अपनी ‘छोटी सी दुनिया’ में भूचाल आ गया। इस पूरे प्रकरण में कुछ कॉरपोरेट कंपनियों का भी जिक्र है, हमारी आपकी सरकारों का संदर्भ है, कुछ मीडिया घरानों की ‘लुका-छिपी’ है… बस अब नहीं है तो वो शख्स… जिसका इससे सीधा साबका और सरोकार था।
शनिवार, 14 सितंबर 2019 की दोपहर ही साथी पीयूष बबेले की एक पोस्ट पर नज़र पड़ी तो पता चला, कौशलेंद्र का निधन हो चुका है। पीयूष ने लिखा- “अभी अभी जानकारी मिली कि हमारे पुराने मित्र कौशलेंद्र प्रपन्ना का निधन हो गया है। कौशलेंद्र एक प्रतिष्ठित कंपनी में शिक्षा के कामकाज से जुड़े थे। पिछले दिनों उन्होंने दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था पर एक लेख लिखा था जो एक प्रतिष्ठित अखबार में छपा था। इस लेख के बाद उनकी कंपनी ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया। सिर्फ निकाला ही नहीं बेइज्जत करके निकाला। इस घटना से उनके जैसे संवेदनशील आदमी को हार्ट अटैक आ गया। वह पिछले कई दिन से एक अस्पताल में भर्ती थे। जब उन्हें लेख लिखने के कारण नौकरी से निकाले जाने की खबर एक प्रतिष्ठित वेब पोर्टल पर चलाई गई तो प्रतिष्ठित कंपनी ने अपनी ताकत लगाकर वह खबर हटवा दी और आज कौशलेंद्र दुनिया छोड़कर चले गये। …मेरी नज़र में कौशलेंद्र अभिव्यक्ति की आजादी के लिए शहीद हो गए हैं। हम एक भयानक वक्त में जी रहे हैं और जो इस वक्त को भयानक कहने की हिम्मत कर रहे हैं वे मर रहे हैं.”
पीयूष की चिंता वाजिब लगी और इसके साथ ही कौशलेंद्र को लेकर मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। लगा कि अपने हिस्से की बात तो कर ही लेनी चाहिए। भले ही भयानक वक्त को भयानक कहने की ताकत हममें नहीं है, लेकिन ये तो कह ही सकते हैं कि कौशलेंद्र प्रपन्ना के साथ जो कुछ हुआ, वो किसी और साथी के साथ दोहराया न जाए। और अगर ऐसी घटना हो तो संवेदना के स्तर पर ही सही, अपनी मन की डायरी के एक दुखद संस्मरण के तौर पर इसे दर्ज कर लिया जाए।
‘प्रतिष्ठित वेबपोर्टल’ जिसका जिक्र पीयूष बबेले ने किया है, मैंने उसकी तलाश भी की। मुझे नहीं मालूम पीयूष किस पोर्टल की बात कर रहे थे, लेकिन मुझे इस दौरान नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित एक रिपोर्ट की इमेज हासिल हो गई। 13 सितंबर 2019 को शाम करीब 4 बजकर 10 मिनट पर प्रकाशित इस रिपोर्ट को ‘पत्रकारिता के उच्च मानदंडों’ का हवाला देकर बाद में हटा लिया गया। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि 45 साल के कौशलेंद्र प्रपन्ना की जिंदगी में हालिया भूचाल 25 अगस्त को जनसत्ता में प्रकाशित एक लेख के बाद आया। इसके बाद कहते हैं प्रताड़ना का वो दौर शुरू हो गया, जिसने प्रपन्ना की सांसों की डोर थाम दी।
अगर आप गूगल पर सर्च करें तो जनसत्ता का वो लेख भी आप पढ़ सकते हैं, जिसके जरिए कौशलेंद्र प्रपन्ना ने दिल्ली में शिक्षा के नए प्रयोगों और शिक्षकों की छटपटाहट का जिक्र किया है। मुझे इस लेख में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं लगी, जिससे किसी सरकार या कॉरपोरेट कंपनी को घबराना चाहिए। बल्कि ये तो पूरी सुधार प्रक्रिया पर एक जरूरी हस्तक्षेप भर ही है। इसके बाद कंपनी ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी, उससे वहां काम कर रहे लोगों की संवेदनशीलता से ज्यादा तरस, उनकी समझ पर आ रहा है।
जब इस संदर्भ में मैंने कुछ और पोस्ट खंगाली तो कवि और पत्रकार प्रियदर्शन की टिप्पणी भी फेसबुक पर नज़र आई। मैं माफी के साथ उस कॉरपोरेट कंपनी का नाम हटा रहा हूं, जिसका जिक्र प्रियदर्शन ने किया है। उन्होंने लिखा-“कौशलेंद्र नहीं रहे। ….. निष्कंटक हुआ। अब वह शान से सरकारों और नगर निगमों के साथ समझौता कर निष्प्रयोजन शिक्षा की अपनी दुकान चला सकता है। अब वहां कोई ऐसा आदमी नहीं बचा, जिसकी राय या टिप्पणियां व्यवस्था को असुविधाजनक और इसलिए कंपनी को नियम विरुद्ध लगती हों। … व्यवस्था हमें असुरक्षित करती चलती है और एक दिन किसी कमज़ोर लम्हे में हम उसके शिकार हो जाते हैं। कौशलेंद्र को एक कंपनी के व्यवहार से ज़्यादा शायद अकेले पड़ जाने या असुरक्षित हो जाने के एहसास ने मारा। मैं नहीं जानता, अब हम आगे क्या करेंगे। उस न्याय की शक्ल क्या होगी जो हमें कौशलेंद्र और उन जैसे तमाम संवेदनशील लोगों के लिए- अपने लिए भी- चाहिए। लेकिन कौशलेंद्र की नियति हमारी प्रतीक्षा भी कर रही है- उस नाटकीय तेज़ी से नहीं, तो भी एक धीमी मौत आश्वस्त भाव से हमारी राह देख रही है।”
कौशलेंद्र खामोश है और खामोशी पसरी है हर ओर। सच है प्रियदर्शनजी, एक धीमी मौत आश्वस्त भाव से हमारी राह देख रही है।
पशुपति शर्मा, मीडियाकर्मी एवं संस्कृतिकर्मी।