रवीन्द्र त्रिपाठी
किसी बड़े रचनाकार की जन्मशती के मौके पर ये सवाल उठ सकता है कि उसे किस रूप में याद रखा जाए? खास कर अगर वो कई विधाओं में सक्रिय रहा हो तो। नेमिचंद्र जैन (जन्म 1919) की जन्म शती के मौके पर भी ये प्रश्न उठेगा। उनकी आरंभिक रचना-यात्रा बतौर कवि शुरू हुई थी और हिंदी काव्य संसार में नई कविता की जमीन निर्मित करनेवाले काव्य- संग्रह 'तारसप्तक’ (संपादक- अज्ञेय) के सात कवियों में एक वे भी थे। पर परवर्ती काल में उनकी रचनात्मकता का केंद्र बदल गया और वे आलोचना में ज्यादा सक्रिय हो गए। वहां उनके दो क्षेत्र रहे- उपन्यास-आलोचना और रंग-आलोचना। धीरे धीरे वे हिंदी जगत में रंग-आलोचना के पर्याय से हो गए। इसलिए ये सवाल अपनी जगह कायम है कि नेमिजी को हिंदी संसार किस रूप में याद रखे? इसका कोई सटीक जवाब नहीं है और हो भी नहीं सकता। पर इस सिलसिले में उनकी एक कविता का स्मरण करना उचित होगा। कविता छोटी है। उसका नाम है
व्याख्या’।
औऱ वो इस तरह है- एक दिन कहा गया था/दुनिया की व्याख्या बहुत हो चुकी/जरूरत उसे बदलने की है/तब से लगातार बदला जा रहा है/ दुनिया को/ बदली है अपने- आप भी/ पर क्या अब यह नहीं लगता/ कि बदलने से पहले/ कुछ/ व्याख्या की जरूरत है।
साफ है कि ये कविता कार्ल मार्क्स की उस प्रसिद्ध उक्ति के प्रसंग में लिखी गई है जिसका आशय ये था कि दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या की है और अब जरूरत उसे बदलने की है। प्रथमत: तो ये कविता नेमिजी की आलोचनात्मक प्रतिबद्धता को व्यक्त करती है और दूसरे व्याख्या की जरूरत को रेखांकित करती है। यानी संसार बदलता रहेगा और साथ-साथ इस बदलाव की व्याख्या की आवश्यकता भी रहेगी। इस विषय पर बात लंबी हो सकती है पर फिलहाल उधर जाने का अवकाश नहीं है।
बहरहाल ये कहना भर पर्याप्त होगा कि बतौर आलोचक, और विशेषकर नाटक और रंगमंच की आलोचना में, नेमिजी का जो योगदान है उसे ऐतिहासिक ही कहा जा सकता है। इसका महत्त्व इस बात से भी बढ़ जाता है कि हिंदी साहित्य को आधुनिक रंगमंच की समझ और संवेदना से जोड़ने का जो काम नेमिचंद्र जैन ने किया, उसकी बड़ी आवश्यकता थी। हिंदी भाषी इलाके में नाटक तो पहले भी होते थे। मुख्य रूप से नौटंकी और पारसी थिएटर। पर भारत की आजादी के बाद जो भारतीय रंगमंच में नई तब्दीलियां आ रही थीं उसे कैसे समझा जाए – हिंदी में इसकी पृष्ठभूमि नेमिजी ने ही तैयार की। अच्छी आलोचना दृष्टि के साथ साथ नई आलोचनात्मक पदावली की मांग करती है। नेमि जी में वो दोनों चीजें थीं। आधुनिक हिंदी रंगकर्म को समझने और उसकी व्याख्या का परिप्रेक्ष्य जो उन्होंने निर्मित किया उसकी वैधता आज भी कायम है।
नटरंग प्रतिष्ठान’ की तरफ से नेमिजी की जन्म शती के मौके पर कई कार्यक्रम हो रहे हैं। दो तो हो चुके हैं। पहले में इतिहासकार रोमिला थापर ने
अन्यता की उपस्थिति : आदिकालीन उत्तर भारत मे समाज और धर्म’ विषय पर एक गंभीर व्याख्यान दिया। आशा की जानी चाहिए कि नटरंग प्रतिष्ठान’ इसके हिंदी अनुवाद को जल्द ही प्रकाशित करेगा। दूसरा कार्यक्रम एक नाटक
साक्षात्कार अधूरा है’ के रूप में एक नाट्य प्रस्तुति रही जिसे वरिष्ठ रंगकर्मी बंसी कौल के मार्गदर्शन में फरीद बज्मी ने निर्देशित किया। इसका नाट्यालेख मीडियाकर्मी और नाट्यप्रेमी पशुपति ने लिखा। इसमें नेमि जी कविताओं के अलावा उनके जीवन प्रसंग भी हैं। लगभग पचपन मिनट की ये प्रस्तुति एक लेखक की रचनाशीलता और उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के प्रसंगों को जोड़नेवाली थी।
नटरंग प्रतिष्ठान इस कड़ी में और भी कई आयोजन करनेवाला है। नेमिजी ने नाटक और रंगकर्म पर केंद्रित एक पत्रिका
‘नटरंग’ भी निकाली थी। उसका भी एक नेमि शती विशेषांक प्रकाशित हुआ है जिसे अशोक वाजपेयी और रश्मि वाजपेयी ने संपादित किया है। इसमें नेमिजी की रचनाओं के साथ-साथ मृणाल पांडे, मृदुला गर्ग. बंसी कौल, देवेंद्र राज अंकुर. एमके रैना, अनुराधा कपूर सहित कई रंगकर्मियों और लेखकों की रचनाएं शामिल हैं। (साभार- राष्ट्रीय सहारा)
रवींद्र त्रिपाठी/ वरिष्ठ पत्रकार, क्रिकेट और साहित्य में गहरी रुचि। मूल रूप से झारखंड के निवासी। इन दिनों दिल्ली से सटे गाजियाबाद में रहना हो रहा है। रंग-समीक्षकों की टोली में आपका नाम अग्रणी है। हाल ही में आपने ‘पहला सत्याग्रही’ नाम से गांधी पर एक नाटक भी लिखा है।