बाजारवाद की माया से दूर छठ पर्व की छटा

बाजारवाद की माया से दूर छठ पर्व की छटा

पुष्य मित्र

वैसे तो छठ मुख्यतः बिहार-झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों द्वारा मनाया जाने वाला पर्व है, फिर भी यह कोई छोटी आबादी नहीं है, तकरीबन 15 करोड़ की आबादी तो इन इलाकों में बसती ही होगी जो क्षेत्रफल के हिसाब से दुनिया के सबसे बड़े मुल्क रूस की आबादी से अधिक ही है। आज की तारीख में यह इस इलाके का सबसे बड़ा पर्व है, मगर इसके बावजूद आज तक इस पर्व को न तो कोई बिग बाजार हाई जैक कर सका है न फ्लिपकार्ट-अमेजन। आज भी इस पर्व में इस्तेमाल होने वाली 90 फीसदी से अधिक चीजें फुटपाथों पर ही बिकती हैं। पकवान घर में बनाये जाते हैं। सूप गांवों में तैयार होता है और प्रसाद घरेलू खाद्य पदार्थों से मिलकर बनता है। कुल मिलाकर एक साड़ी ही है, जिसे लोग किसी बड़ी दुकान से जाकर खरीदते हैं, जिसे व्रती महिला पहनकर जल में खड़ी होती है।

अभी अभी दशहरा और दीवाली गुजरी है। उन दिनों अखबारों का हाल ये था कि खबर लगाने की जगह नहीं मिलती थी, हर पन्ने पर कंठ तक विज्ञापन भरे रहते थे। खबरों का पहला पन्ना विज्ञापनों के सात पन्ने के बाद शुरू होता था। मगर छठ के वक़्त किसी इलेक्ट्रॉनिक दुकान, कार बाइक वाले, प्रॉपर्टी वाले, कपड़े वाले, गहने वाले दुकानदार ने अखबारों को विज्ञापन देकर छठ की शुभकामना नहीं दी। जबकि जिउतिया जैसे पर्व तक को ज्वेलर्स भुनाने लगे हैं, अक्षय तृतीया तो ज्वेलर्स का पर्व हो ही चुका है। ईद हो, बकरीद हो, क्रिसमस हो या न्यू ईयर सबके सब बाजार की गिरफ्त में जा चुके हैं। आपको न चाहते हुए भी बाजार जाना पड़ेगा और कम से कम हजार दो हजार तो खर्च करना ही पड़ेगा।

छठ आप पांच सौ रुपये में भी मना सकते हैं, जेब में पैसा न हो तो भीख मांग कर भी पूजा कर सकते हैं। पुराने जमाने में तो कोई खर्च ही नहीं होता होगा। गन्ना, टाब नींबू, अल्हुआ, सुथनी, शकरकंद, नारियल जैसे मौसमी फल तो घर के पिछवाड़े में या पड़ोस के वन प्रांतर में मिल जाते होंगे। घर में जो आटा और गुड़ रहता होगा उसी से ठेकुआ बनता होगा। हल्दी और मूली के पौधे। बस यही तो आवश्यक है। बाकी आपके शौक हैं। सेब, नारंगी, मिठाई रखें न रखें। जो उपलब्ध हुआ उसे ही नेम निष्ठा के साथ हाथ में लेकर सूर्यदेव को अर्पित कर दें। डूबते सूर्य को भी और उगते सूर्य को भी। और यह काम गरीब से गरीब कर सकता है और अरबपति भी इससे अधिक क्या खर्च करेगा। हां, इन दिनों घाट पर रोशनी और सजावट करने और कहीं कहीं नाच गाना करवाने का फैशन शुरू हुआ है। इनमें कुछ पैसे खर्च होते हैं। फिर भी एक भी ऐसी चीज नहीं है जिसे मास प्रोडक्शन करने वाली भीमकाय कारपोरेट कब्जा सके। मैंने पहले ही लिखा है 90 फीसदी चीजें फुटपाथ पर ही मिल जाती है।

मैं न तो छठ के इतिहास को जानता हूँ, न किसी कथा को और न ही इसके पीछे छिपी किसी वैज्ञानिकता की बात भरोसे से कह सकता हूँ। हां, इतना जरूर कह सकता हूँ कि दीवाली की मिठाईयों से पेट बिगड़ने के खतरा रहता है मगर छठ का प्रसाद आप निश्चिंत होकर खा सकते हैं, लाभ ही करेगा। इनमें ज्यादातर चीजें सीधे प्रकृति से ली गयी होती हैं। खासकर गन्ना, टाब नींबू और नारियल खाने का मौका इसी पर्व में मिलता है। और सुथनी, शकरकन्द जैसे कंद खाना आज कल लाभ की ही बात है।

मेरे लिये छठ सिर्फ एक प्रकृति पर्व ही नहीं है, जो बाजार के कब्जे से अब तक दूर है। इसका सबसे बड़ा महत्व घरों की ओर, अपने मूल की ओर लौटना है। पिछली सदी के आखिर में और इस नई सदी में पलायन की मार सबसे अधिक किसी राज्य ने झेली है तो वे बिहार वाले हैं। और अपनी जड़ों से कटने की वजह से जख्मी हृदय वाले बिहारियों के लिये यह अपनी जड़ों की ओर लौटने का त्योहार है। वह दिल्ली में हो, चेन्नई में हो या पटना में, उसका मन घर लौटने के लिये छटपटाता रहता है। और छठ वह मौका है जब सारे बांध टूट जाते हैं। वह रोके नहीं रुक पाता। बसों, रेलगाड़ियों, हवाई जहाजों, टेम्पुओं, और दूसरी हर तरह की सवारियों पर सवार हो जाता है, लटक जाता है, छत पर चढ़ जाता है। क्योंकि घर जाना है। दिल्ली वाले बस रिजर्व कर लेते हैं। लोग तीन चार महीने पहले टिकट बनवाकर रखते हैं। टिकट कन्फर्म करवाने के लिये सांसदों और मंत्रियों से पैरवी करवाते हैं। छुट्टी न मिले तो नौकरी छोड़ देते हैं। क्योंकि छठ में तो घर जाना ही है।

पिछले कुछ सालों में छठ बिहारियों की अस्मिता की पहचान बन गया है। दिल्ली और मुंबई में तो राजनीतिक दल बिहारियों को रिझाने लुभाने के लिये छठ पूजा आयोजित करवाने लगे हैं। और यह सफल भी हो रहा है। कई लोग कहते हैं कि छठ ब्रांड बिहार को स्थापित करने का जरिया हो सकता है। उसी तरह जैसे गणपति महाराष्ट्र का ब्रांड बना और डांडिया गुजरात का। मगर मुझे लगता नहीं है कि छठ कभी उस तरह पूरे देश मे फैल सकेगा। इसकी वजह भी वही है कि यह मार्किट फ्रेंडली पर्व नहीं है डांडिया और गणपति की तरह। जो अपने दुख में उदास होकर दीनानाथ को गुहार लगाएगा वही छठ को अपना पायेगा।


PUSHYA PROFILE-1पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं