राष्ट्रीय चेतना के प्रखर और ओजस्वी कवि रामधारी सिंह दिनकर सामाजिक दायित्व और वैश्विक बोध के भी बड़े प्रभावशाली कवि थे । एक तरफ उनकी कविताएँ शौर्य और पराक्रम की अग्निधारा प्रवाहित करती हैं तो दूसरी तरफ प्रेम और स्पर्श की कुसुमित फुलवारी में मदन-विहार के रसमय दृश्य भी दिखलाती हैं ।मायालोक के भटकाव से लेकर स्वर्गलोक के आकर्षण तक दिनकर की कविताओं में आकार लेते हैं मगर पृथ्वीलोक का कर्मकर्तव्य कहीं छूटता नहीं है ।जीवन-संघर्ष से जूझने में कवि अपने पुरुषार्थ को सार्थक मानता है ।वह पलायन में नहीं सामना करने में समस्याओं का समाधान ढूंढता और निकालता है ।वह धरती के यथार्थ को स्वीकारता गीता के कर्मवाद में विश्वास करता है ।मनुष्य की कर्मठता भागने में नहीं डटकर मुकाबला करने में सिद्ध होती है ।दिनकर कहते हैं —
धर्मराज! कर्मठ मनुष्य का पथ संन्यास नहीं है
नर जिसपर चलता वह धरती है,आकाश नहीं है ।
दिनकर की सृजन-संस्कृति, ज्ञान और संवेदना के तटों के बीच निरंतर प्रवाहित होती रही ।गद्य और पद्य में समान अधिकार के साथ वे लिखते रहे ।विविधताओं में लिखा हुआ उनका साहित्य जीवन ऊर्जा देता है ।’संस्कृति के चार अध्याय’ महज इतिहास लेखन नहीं बल्कि संस्कृति की गहन गंभीर मीमांसा है । एक श्रेष्ठ पुस्तक के रूप में विभिन्न ज्ञानधाराओं के अध्येताओं के लिए आज भी यह मानक ग्रंथ है ।अर्द्धनारीश्वर, शुद्ध कविता की खोज जैसी गद्य कृतियों में दिनकर का मजबूत विश्लेषक,विचारक गद्यकार दिखता है तो हुंकार, रेणुका, सामधेनी, नील कुसुम, रसवंती में प्राणवान कवि का अंतरंग साक्षात्कार होता है । प्रबंधात्मक कृतियों में रश्मीरथी, कुरुक्षेत्र और उर्वशी अपनी विषय वस्तु और रूप सज्जा में अनुपम अतुलनीय है । कथ्य संदर्भ और शिल्प सौष्ठव इन कृतियों को आज भी जीवंत बनाए हुए है ।
धर्मराज! कर्मठ मनुष्य का पथ संन्यास नहीं है
नर जिसपर चलता वह धरती है,आकाश नहीं है ।
दिनकर की सृजन-संस्कृति, ज्ञान और संवेदना के तटों के बीच निरंतर प्रवाहित होती रही ।गद्य और पद्य में समान अधिकार के साथ वे लिखते रहे ।विविधताओं में लिखा हुआ उनका साहित्य जीवन ऊर्जा देता है ।’संस्कृति के चार अध्याय’ महज इतिहास लेखन नहीं बल्कि संस्कृति की गहन गंभीर मीमांसा है । एक श्रेष्ठ पुस्तक के रूप में विभिन्न ज्ञानधाराओं के अध्येताओं के लिए आज भी यह मानक ग्रंथ है ।अर्द्धनारीश्वर, शुद्ध कविता की खोज जैसी गद्य कृतियों में दिनकर का मजबूत विश्लेषक,विचारक गद्यकार दिखता है तो हुंकार, रेणुका, सामधेनी, नील कुसुम, रसवंती में प्राणवान कवि का अंतरंग साक्षात्कार होता है । प्रबंधात्मक कृतियों में रश्मीरथी, कुरुक्षेत्र और उर्वशी अपनी विषय वस्तु और रूप सज्जा में अनुपम अतुलनीय है । कथ्य संदर्भ और शिल्प सौष्ठव इन कृतियों को आज भी जीवंत बनाए हुए है ।
रामधारी सिंह दिनकर की जयंती पर विशेष
हिन्दी के महत्वपूर्ण महाकाव्यों में उर्वशी की श्रेष्ठता उसके प्रतिपाद्य विषय की शाश्वत मौलिकता के कारण तो है ही साथ ही दर्शन, चिंतन, पुराण, मनोविज्ञान और मिथक का जो काव्योत्कर्ष है वह अकथनीय स्वाद देता है । स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक आकर्षण और प्राकृतिक संबंध को जैसा उदात्त संवेदन ‘उर्वशी ‘महाकाव्य में दिनकर ने प्रदान किया है वह केवल कामाध्यात्म के चश्मे से देखने भर के योग्य नहीं है बल्कि अपनी स्वाभाविक तल्लीनता को भी रसमयता में निमज्जित कर देने की प्रेरणा-संजीवनी के रूप में भी स्वादनीय है । उन्मादी संसार की युद्ध लिप्सा मानवता के अनेक जघन्य विनाशों के बाद भी शांत नहीं हुई है ।’ कुरुक्षेत्र ‘युद्ध और शांति के सनातन प्रश्न का विवेक पूर्ण समाधान तलाशती मानवीय कृति है ।
दिनकर के चिंतन में लोकमंगल तुलसीदास , रूढ़िभंजक कबीरदास, शौर्यशूर भूषण के काव्यमर्म समाहित हैं तो स्वामी विवेकानंद के पराक्रम, अरविंद घोष के राष्ट्राध्यात्म, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की कर्मनिष्ठा, गाँधी की कर्म कुशलता, नजरूल इस्लाम की धार, रवीन्द्रनाथ की व्यापकता एक साथ ही देख सकते हैं । दिनकर ने अपने तेवर में अनेक महान व्यक्तित्वों को सहेज लिया थी, तभी तो उनकी कई कृतियां कालजयी हैं ।
कालियानाग के मस्तक पर नृत्य करते नटवर कृष्ण का प्रतिरोधक रूप दिनकर प्रस्तुत करते हैं —
कालियानाग के मस्तक पर नृत्य करते नटवर कृष्ण का प्रतिरोधक रूप दिनकर प्रस्तुत करते हैं —
झूमे जहर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ
तान तान फन व्याल कि तुझपर बाँसुरी बजाऊँ
विषधारी मत डोल कि मेरा आसन बहुत कड़ा है
कृष्ण आज लघुता में भी साँपों से बहुत बड़ा है ।
स्वछंदतावादी धारा के बड़े कवि दिनकर ‘द्वन्द्व गीत ‘के भी कवि हैं। उनका काव्यकर्म बहुविध मानवीय मर्म को उकेरता है ।चीनी आक्रमण के समय हिमालय को जाग्रत और सचेत करने वाला कवि माया के मोह में निढ़ाल हुआ होगा, हठात् विश्वास नहीं हो सकता है मगर ये पंक्तियाँ मनुष्य की प्रीति को उजागर करती हैं तो मानना पड़ता है राग के प्रभुत्व को ।दिनकर गाते हैं —
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी
भय है सुनकर हँस दोगे मेरी नादानी परदेसी ।
इतिहास के गंभीर अध्येता दिनकर कविता की संवेदना से लबालब भरे हुए थे ।इतिहास उनके लिए सभ्यता-समीक्षा तो साहित्य जीवन -व्याख्या था । आत्मसम्मान साहित्य में तो आत्मगौरव इतिहास में जीवनपर्यंत अनुभूत करने वाले दिनकर भाग्यवाद को धता बताते रहे ।पुरुषार्थ के सामने भाग्य और भगवान को भी घुटने टेकने पड़ते हैं, ऐसा मानने वाले दिनकर निर्मम परिस्थितियों की मार तथा अपनों की अवमानना -उदासीनता से बुरी तरह टूट गए । कभी वे दहाड़ते हुए कहते थे —
‘मैं पौरुष से भाग्य का अंक पलट सकता हूँ ‘मगर समय ने उन्हें संताप दिया और विवश कर दिया -‘हारे को हरिनाम’ लिखने के लिए दिनकर में आक्रोश भी भरपूर मिलता है । सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने वाले दिनकर मानवीय शोषण पर आक्रामक होते हैं और तब उनका प्रगतिशील कवि उभर कर आता है —
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेसी
भय है सुनकर हँस दोगे मेरी नादानी परदेसी ।
इतिहास के गंभीर अध्येता दिनकर कविता की संवेदना से लबालब भरे हुए थे ।इतिहास उनके लिए सभ्यता-समीक्षा तो साहित्य जीवन -व्याख्या था । आत्मसम्मान साहित्य में तो आत्मगौरव इतिहास में जीवनपर्यंत अनुभूत करने वाले दिनकर भाग्यवाद को धता बताते रहे ।पुरुषार्थ के सामने भाग्य और भगवान को भी घुटने टेकने पड़ते हैं, ऐसा मानने वाले दिनकर निर्मम परिस्थितियों की मार तथा अपनों की अवमानना -उदासीनता से बुरी तरह टूट गए । कभी वे दहाड़ते हुए कहते थे —
‘मैं पौरुष से भाग्य का अंक पलट सकता हूँ ‘मगर समय ने उन्हें संताप दिया और विवश कर दिया -‘हारे को हरिनाम’ लिखने के लिए दिनकर में आक्रोश भी भरपूर मिलता है । सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करने वाले दिनकर मानवीय शोषण पर आक्रामक होते हैं और तब उनका प्रगतिशील कवि उभर कर आता है —
श्वानों को मिलता दूध भात भूखे बच्चे अकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं ।
विसंगतियों का दृश्य भर प्रस्तुत कर दिनकर शांत और संतुष्ट नहीं होते हैं । वे बढ़कर पहल करते हैं और शोषक को रोष के साथ सावधान करते हैं कि वे अधिकार मांगेगे नहीं छीनेंगे —
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध दूध ओ वत्स तुम्हारा,दूध खोजने हम जाते हैं ।
दिनकर का कवि कर्म एक बड़े और सच्चे कवि का कर्म है । वे आग के साथ ही राग के भी गायक है । राष्ट्र, मनुष्य, संस्कृति, प्रेम, प्रकृति, संघर्ष के कवि दिनकर सत्यनिष्ठ कालजयी महाकवि हैं जो कबीर की तरह ‘जो घर जारै आपना,चलै हमारे साथ ‘गाते हुए अपनी दाहकता से सचेत करते हैं और आग को अपनी पूँजी बताते हुए जलने के साहस को चुनौती देते हैं –मेरी पूँजी है आग,जिसे जलना हो बढ़े,आए “। विद्रोही कवि रामधारी सिंह दिनकर
संजय पंकज। बदलाव के अप्रैल 2018 के अतिथि संपादक। जाने – माने साहित्यकार , कवि और लेखक। स्नातकोत्तर हिन्दी, पीएचडी। मंजर-मंजर आग लगी है , मां है शब्दातीत , यवनिका उठने तक, यहां तो सब बंजारे, सोच सकते हो प्रकाशित पुस्तकें। निराला निकेतन की पत्रिका बेला के सम्पादक हैं। आपसे मोबाइल नंबर 09973977511 पर सम्पर्क कर सकते हैं।