मृदुला शुक्ला
वो जाने कौन सा साल बरस था तेज चटकती दुपहरी थी बस इतना याद है। कहाँ से लौटी थी, क्या करने गयी थी, यह भी नहीं है स्मृति में। याद है तो इतना कि जिस गली में वह रिक्शे से उतरी उसके पास से गुजरती एक लड़की के पीछे दो लड़के, जो उसका पीछा करते हुए किसी एकांत की तलाश में थे। लड़की दुबली-पतली उसी उम्र की जिसमें वह दसवीं बारहवीं में रही होगी। उसने रिक्शा छोड़ा और उनके पीछे चल पड़ी। वह लड़की गलियों में घबराती पीछे पलट कर मुड़ मुड़ कर देखती जाती। लड़के पीछे पलट कर उसे देखते और लड़की के पीछे चल पड़ते। ढेर सारी गलियों में मुड़ने के बाद लड़की ने गली का एक दरवाजा खटखटाया और भीतर चली गयी।
लड़के भी लौट गए अपना सा मुंह लेकर उसे होश आया मैं कहाँ हूँ किस गली में कौन सा मुहल्ला है। यहां मैं तो कभी आई ही नहीं थी यहाँ। शुक्र है अपना पता याद था, लोगों से मुख्य सड़क का रास्ता पूछते हुए रिक्शा कर अपने घर लौटी। कई दिनों तक अनमनी सी बेहद थकी सी थी, जाने कितने जन्मों की पैदल यात्रा की थी, फिर कुछ दिनों में सब सामान्य हो गया।
मगर अब भी पूरे होशो हवाश में चिलकती दोपहर में धुंधलाती शाम में अँधेरे रास्तों पर जाने कितनी लड़कियों का पीछा कर छोड़ आती है उन्हें सुरक्षित उनके घरों तक। सोचती हूँ औरतों, हम अल्पसंख्यक नहीं है आधी आबादी हैं ।आधी दुनिया पर काबिज़, फिर भी हमारी दुनिया की औरतों- बच्चियों की सुरक्षा हम क्यों नही कर पा रहे हैं। क्यों किसी बालिका गृह में, घर मेंस पार्क में,बस में, ट्रेन में, जंगल में, शहर में, मायके-ससुराल में हो जाता है बलात्कार किसी बच्ची जवान या बूढ़ी के साथ। आखिर कहां मर जाती हैं उस वक्त सारी दुनिया की औरतें। जिन पुरूषों की आंखें, इरादे, हाव- भाव हम बचपन से ही देखती-समझती हैं, वही हमारे आस-पास, हमारे घर-आँचल में पल रहे होते हैं। क्या हम सचमुच समझ नहीं पाती उन्हें ?
आधी आबादी को खड़ा होना होगा अपनी बच्चियों के साथ, औरतों के साथ, खुद के साथ, मज़बूत दीवार की तरह, थोड़ी और सतर्कता के साथ, ज्यादा सी सम्वेदना लेकर।
मृदुला शुक्ला। उत्तरप्रदेश, प्रतापगढ़ की मूल निवासी। इन दिनों गाजियाबाद में प्रवास। कवयित्री। आपका कविता संग्रह ‘उम्मीदों के पांव भारी हैं’ प्रकाशित। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपीं और सराही गईं।