कफन बढ़ा, तो किस लिए, नजर तू डबडबा गई
कल शाम बाती का 50 साल पुराना शिकवा दूर हो गया। वो मचल कर कहती थी, दिया तो झूमे है, रोए है बाती। आज दिया भी शांत हो गया। नीरज चले गए। चिर निद्रा में, हिंदी गीतों का चार पीढ़ियों से सजा मंडप उजड़ गया। अब पलट कर देखते रहो कि वे क्या थे। किस मिट्टी के बने थे और कैसे शोखियों में फूलों का शबाब घोलकर, उसमें थोड़ी सी शराब मिलाकर, प्यार का नशा तैयार करते थे। एक ऐसा नशा जो एस डी बर्मन, देवानंद, राज कपूर और न जाने कितने बड़े बड़े फनकारों के सिर बोलता था। अब वे बहुत भव्य, बहुत बड़े और बहुत दूर दिखाई देते हैं। लेकिन जिन्हें गोपालदास के मुंह से उनकी जिंदगी के किस्से सुनने को मिले हैं, वे जानते हैं कि प्रेम का यह कवि दर्द की तड़प से पैदा हुआ था।
दर्द तो जैसे नीरज के जन्म के साथ ही पैदा हो गया था। छह साल के थे कि पिता का साया सिर से उठ गया। इतना ही क्या कम था कि घर से दूर एटा में पढ़ने के लिए भेज दिए गए। 10 साल घर से दूर रहे। मां से, अपने भाइयों से, अपने पूरे परिवार से। जब नीरज इस अलगाव को बयां करते थे तो उनकी बूढ़ी आंखों से सात साल के बच्चे का दर्द छलका करता था। बचपन के उस दौर में वात्सल्य से पूरी तरह बिछड़ गए इस बच्चे के बारे में वह कहते थे कि वह अकेलापन उन्हें आत्मा से साक्षात्कार करने का मौका देता था।
तन्हाई उन्हें कवि बना रही थी और जिम्मेदारियां पढ़ाई में होशियार। अंग्रेजीराज के दौर में उन्होंने पहले दर्जे में हाईस्कूल पास कर लिया। बचपन में गए थे, किशोर होकर घर लौटे। लेकिन अब जिम्मेदारियां सामने थीं। कभी पान-बीड़ी की दुकान खोल ली। तो कभी तांगा चलाया। फिर टाइपिस्ट की नौकरी पकड़ ली। जहां जैसे बना जिंदगी के सफर पर आगे बढ़ते रहे। और कहते चले-कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे और हम खड़े खड़े बहार देखते रहे।
ऐसा नहीं है कि वे ही बहार को देख रहे थे, बहार भी उन्हें देख रही थी। 1958 में बंबई में उनका एकल काव्य पाठ हुआ। वहां उनकी कविता से फिल्म निर्माता आर चंद्रा उनसे खासे प्रभावित हुए। चंद्रा एटा के पास अलीगढ़ से ही थे। चंद्रा ने नौजवान नीरज से कहा कि फिल्मों में काम करोगे। गरीब नीरज ने कहा मैं नौकरी का बंधा आदमी हूं, यहां नहीं आ सकता। आप चाहो तो मेरी कविताएं ले लो। आर चंद्रा ने पूरी की पूरी “नई उम्र की नई फसल” फिल्म ही नीरज के गीतों के इर्द गिर्द रच डाली। इधर, लखनऊ रेडियो से “कारंवा गुजर गया गुबार देखते रहे” भी रातों रात मशहूर हो गया। दुनिया की बुलंदी नीरज का इंतजार कर रही थी। इसी बीच गीतकार शैलेंद्र का निधन हो गया। नीरज शैलेंद्र का बड़ा मान करते थे। ऐसे में उन्हें देवानंद से हुई एक मुलाकात याद आई। किसी कवि सम्मेलन में देवानंद चीफ गेस्ट बनकर आए थे। वहां उन्होंने नीरज की कविता सुनी थी। कवि सम्मेलन के बाद उन्होंने नीरज से कहा था कि तुम्हारी कविता बहुत अच्छी लगी, कभी मेरे साथ काम करना।
बड़े लोगों की बड़ी बातें। कौन जाने देवानंद को वह मुलाकात याद होगी भी कि नहीं। हो सकता है, नौजवान कवि का दिल रखने के लिए सुपरस्टार ने वे बातें कह दी हों, लेकिन दिल नहीं माना। नीरज ने देवानंद को खत लिखा। अपना परिचय दिया और देव साहब को वादा याद दिलाया। जल्द ही देवानंद की हेंडराइटिंग में लिखा खत नीरज को मिला। बंबई से दावतनामा आया था। नीरज पहली गाड़ी पकड़कर बंबई रवाना हो गए।
देव साहब मिले, सीधे पूछा कितने दिन के लिए आए हो। नीरज ने कहा छह दिन की छुट्टी लेकर आया हूं। देव साहब प्रेम पुजारी बना रहे थे। संगीतकार थे, एस डी बर्मन, लेकिन गीतकार शैलेंद्र की जगह खाली थी। देवानंद ने बर्मन दादा से कहा नीरज से गीत लिखाएं। दादा ने पूछा, कौन नीरज। बहरहाल, बर्मन दादा आए। उन्होंने नीरज को पूरी सिचुएशन समझाई। कैसे एक भारतीय लड़की अपने प्रेमी को खोजते हुए विदेश पहुंचती है। वहां जाकर क्या देखती है कि जिस प्रेमी के लिए वह इतनी दूर आई, वह किसी और की बाहों में झूल रहा है। लडकी बौराई हुई सी हाथ में शराब का प्याला लिए नाच रही है और साथ ही महान संगीतकार ने दो शर्तें लगाईं- गीत के बोल रंगीला शब्द से शुरू होंगे। दूसरी बात यह कि इसमें हल्के शब्द गुलगुल-बुलबुल, शमां-परवाना, शराब-जाम का इस्तेमाल नहीं होगा। बर्मन दादा चले गए, नीरज को गीत का बीज देकर। देवानंद भी सो गए।
नीरज रातभर जागते रहे। सुबह देवानंद को गीत सुनाया: “रंगीला रे, तेरे रंग में जो रंगा है, मेरा मन, छलिया रे, किसी जल से, न बुझेगी, ये जलन.” देवानंद भावाविभोर, बोले- ओह नीरज क्या कहने। तुरंत बर्मन दादा को फोन लगाया। कहा, गीत तैयार है। सचिन देव वर्मन अवाक, रात भर में गीत बन गया। उन्होंने भी गीत सुना, उन्होंने भी ओके कर दिया। देवानंद ने नीरज से कहा, चलो चलें। बर्मन दादा ने पूछा- कहां, अब ये कहीं नहीं जाएंगे मेरे साथ रहेंगे। और फिर नीरज सुनाते थे कि कैसे वह महान संगीतकार उन्हें अपने यहां अक्सर खाने पर बुलाता था। यह एक ऐसा सम्मान था, जिसके लिए बड़े-बड़े सितारे तरसते थे। बर्मन दादा के लिए नीरज ने ऐसे मधुर और मैलोडियस गीत लिखे, जिन्हें आज की पीढ़ी एक क्लिक पर यू ट्यूब पर सुन सकती है।
इसी समय राज कपूर “मेरा नाम जोकर” फिल्म बनाने निकले, तो उन्हें एक ऐसा गीतकार चाहिए था, जो फिल्म की कहानी को जिये और फिर उस अहसास को गीत में ढाले। राज कपूर के लिए गीतकार का मतलब शैलेंद्र होता था, लेकिन वे तो कब के जा चुके थे, ऐसे में उनके जेहन में अब एक ही नाम था- नीरज। राज कपूर ने अपनी फिल्म के बारे में नीरज को बताया और नीरज ने दिल के किसी कोने में जमा मुखड़ा उछाल दिया- “कहता है जोकर सारा जमाना, आधी हकीकत आधा फसाना.” राज कपूर को मनचाही मुराद मिल गई. मेरा नाम जोकर के गाने नीरज ने लिखे।
लेकिन यह तो आधा ही फसाना है, इन मधुर गीतों का सिलसिला बर्मन दादा के साथ परवान चढ़ा था, वह उनकी मौत के साथ ही रुख्सत हो गया।नीरज बताया करते थे कि बर्मन की मौत के बाद उन्हें बंबई नीरस लगने लगी और वे वापस लौट आए। उनकी असली छाप तो फिल्मी दुनिया से कहीं बाहर है। बच्चन की निशा निमंत्रण कविता को पढ़कर जिस कवि ने अपनी कविता को गढ़ा था और जिसे बहुत पहले इस बात का अंदाजा हो गया था कि उसका काव्य पाठ बलवीर सिंह रंग से कहीं अच्छा है। उसके लिए तो भारत के कोने-कोने में कवि सम्मेलनों के मंच पलक पांवड़े बिछाए हुए थे। वह गीतकार तरन्नुम में गीत पढ़ने की एक ऐसी विधा विकसित कर रहा था, जो आगे चलकर मंच का व्याकरण बनने वाली थी।
लेकिन इस शोहरत और प्रयोगधर्मिता के बीच उन्हें बखूबी याद था कि कविता वही है जो सबको समझ आए।वे अक्सर कहा करते थे कि उर्दू के बहुत कठिन शब्द डालकर या बहुत पहुंची हुई भाषा का इस्तेमाल करके यदि गीत लिखा तो वह आम आदमी से दूर हो जाएगा। आम आदमी तक तो वही कविता पहुंचेगी जो आमफहम जुबान में होगी। वे उसी जुबान में ताउम्र कविता करते रहे।
वे कहा करते थे कि उनकी कविता में दर्द भी मिलेगा, प्रेम भी मिलेगा, विद्रोह भी मिलेगा और देशभक्ति भी मिलेगी। पर असल में उनके कवि में विरोधाभास मिलेगा। हाथ में अंगूठियां और कलाई में कलावा धारण करने वाले नीरज कहते थे, आदमी विरोधाभास और द्वंद्व से बना है, उसे खांचे में नहीं बांटा जा सकता।
अपने जीवन के अंतिम समय में उन्हें इस बात पर अफसोस होने लगा था कि मंच की कविता अपने श्रोताओं के गिरते स्तर के साथ गिरती जा रही है। लेकिन इसे भी वे साक्षी भाव से ही लेते थे. इस दौरान बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों और सरकारों से मिले सम्मान भी वे चुपचाप कमरे में खिसका दिया करते थे।
उन्होंने अपने जीवन के आधे सफर में ही इतनी गुर्बत और इतनी बुलंदी देख ली थी कि जिंदगी का बाकी आधा सफर अपने भीतर की मिठास के साथ ही गुजारा. आज वे जब स्थायी रूप से चले गए हैं तो आंसू बहाने में भी डर लगता है। जैसे वे गुनगुना रहे हों-
कफन बढ़ा, तो किस लिए, नजर तू डबडबा गई
सिंगार क्यूं सहम गया, बहार क्यूं लजा गई
न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ,
बस इतनी ही तो बात है,
किसी की आंख खुल गई,
किसी को नींद आ गई।
पीयूष बवेले। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। इंडिया टुडे में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी रह चुके हैं। संप्रति दैनिक भाष्कर में राजनीतिक संपादक की भूमिका निभा रहे हैं ।