नदीम एस अख़्तर
कहते हैं जो पेड़ से फल से जितना लदा होता है, वो उतना ही झुका होता है. एक दफा फिर जिंदगी में इसे अपने सामने घटते देखा. अचानक से फोन की घंटी बजी, एक अनजान नम्बर था, मुझे लगा फिर कोई मार्केटिंग वाला होगा. इससे पहले दो-तीन फोन आ चुके थे ऐसे. सो इस दफा मैंने थोड़े सख्त लहजे में फोन उठाया और हैलो बोला. लेकिन उधर से आवाज आई- मैं विनोद दुआ बोल रहा हूं.
मैं अचानक रुक गया. एक ही सेकेंड में दिमाग में सैंकड़ों कयास और रिकॉल का प्रोसेस चल गया. कौन विनोद दुआ ? इस नाम का तो मैं जानता हूं, और कौन हो सकते हैं ? एक ही तो हैं- अपने विनोद दुआ साब! उनका फोन ? उनसे ना तो कभी मिलने का इत्तफाक हुआ और ना ही कभी फोन पर बात हुई थी. मन ही मन सोचा- वही हैं. विनोद दुआ साब !! बहुत खुशी हुई. और ये सब बातें एक-दो सेकंड में ही मेरे दिमाग में प्रोसेस हो गई थीं.
मैंने तुरंत इधर से सलाम ठोका. नमस्कार सर ! कैसे हैं ? उधर से उनकी कर्णप्रिय आवाज आई. वो मेरी एक फेसबुक पोस्ट को लेकर बात करना चाह रहे थे. उन्होंने बताया कि आज आपने पेशवा पर जो फेसबुक पोस्ट लिखी है, उसे मैं अपने कार्यक्रम “जन-गण-मन की बात” में शामिल करना चाहता हूं. ये मेरे ऊपर दूसरा बम (खुशी वाला) गिरा था. मैंने झट बोला- ये तो मेरे लिए सम्मान की बात है. बहुत ज्यादा सम्मान की बात है. तो विनोद दुआ साब बोले- लेकिन आपकी सहमति जरूरी थी. मैंने कहा- सर, हमने आप लोगों को देख-देखकर पत्रकारिता सीखी है. और आज हमने आप से एक और बात सीखी. बहुत कुछ सीखा…
और क्या बातें हुईं ये नहीं बताऊंगा लेकिन फोन रखने के बाद मैं सोचता रहा. विनोद दुआ साब के बारे में, भारत में पत्रकारिता के परिदृश्य के बारे में और पत्रकारों के बारे में. ये कह लीजिए कि पूरी न्यूज इंडस्ट्री के बारे में. ये मुझ जैसे अनजान-अनाम व्यक्ति के प्रति देश के एक जाने-पहचाने पत्रकार का प्रेम नहीं तो क्या था, जो उन्होंने मेरी एक फेसबुक पोस्ट को अपने प्रतिष्ठित कार्यक्रम में पढ़ने की इच्छा जताई. और सादगी, सरलता व बड़प्पन तो देखिए कि खुद फोन करके मुझसे इसकी इजाजत मांग रहे हैं !! ये कोई साधारण बात नहीं है. बहुत बड़ी बात है. इतनी बड़ी के शब्दों में इसे नहीं बताया-समझाया जा सकता.
ऐसे कितने लोग आपने अपने आसपास या पेशे में देखे हैं ? मेरे ख्याल से ना के बराबर. ये एक अलग पीढ़ी है, जो अाज के समाज में खत्म हो रही है. ये वो पीढ़ी है, जिसे जीवन जीने का मतलब पता है. ये वो पीढ़ी है, जिनके ऊपरे दिमाग से पहले नीचे सीने में धड़कने वाले दिल की ज्यादा अहमियत है. हमारी नई पीढ़ी को इन सब बातों का ना तो भान है और ना ज्ञान. वह पूरी तरह commercial product है. कामयाबी और पैसा ही उनका खुदा है. खैर, मुद्दे से भटक रहा हूं, सो वापस मुद्दे पे आता हूं.
मुझे नहीं मालूम था कि विनोद दुआ साब पेशवा वाली मेरी फेसबुक पोस्ट का उपयोग अपने सबसे ज्यादा देखे जाने वाले प्रतिष्ठित कार्यक्रम में किस तरह करेंगे. लेकिन जब 3 जनवरी 2018 की रात मैंने उनका प्रोग्राम देखा, तो जैसे डर लगने लगा. उनका दिल कितना बड़ा है कि उन्होंने मेरी पूरी की पूरी पोस्ट ज्यों की त्यों पढ़ दी. अपनी मखमली आवाज में. और उनके पढ़ने का, समझाने का जादू ये था कि कई दफा मुझे लगा जैसे इसे मैंने लिखा ही नहीं है. ऐसा मैं कैसे लिख सकता हूं ? उनकी अदायगी, उनकी आवाज की वो कशिश रही कि पूछिए मत. और ये मत समझिएगा कि उन्होंने मेरी पोस्ट पढ़ी, इसलिए तारीफ कर रहा हूं (क्योंकि हमारे जैसे लोग उनकी तारीफ या आलोचना के काबिल नहीं). ये बात मैं दिल से कह रहा हूं. मुझे वाकई में ऐसा लगा. अगर आपने भी मेरी पेशवा वाली फेसबुक पोस्ट पढ़ी हो तो विनोद दुआ साब की आवाज में उसे सुनिएगा और फिर खुद फैसला कीजिएगा कि मैं क्या कह रहा हूं.
पेशवा पर नदीम जी की फेसबुक पोस्ट
मैं फिर कहता हूं कि हमारा समाज पगला गया है. पहले पद्मावती के नाम पर लड़ रहा था, अब पेशवा के नाम पर लड़ रहा है. कल फिर किसी के नाम पर लड़ेगा.
लेकिन इसका फायदा कौन उठा रहा है ??!! इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़कर क्या साबित करना चाहते हैं हम? इतिहास से सबक लेने की बजाय उसे अपने हिसाब से क्यों बता-समझा रहे हैं ?
अबे ! पेशवा-पद्मावती सब चले गए. ये बताओ कि तुम्हारी नौकरी पक्की है कि नहीं. बीमार हो जाओगे तो अस्पताल का खर्चा है या कोई बीमा ले रखा है या फिर सरकारी अस्पताल में तड़पकर मरने का इरादा है ? बेटा-बेटी सरकारी स्कूल जाकर जिंदगी बर्बाद कर रहे हैं या उसे डीपीएस टाइप किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा पा रहे हो ? प्याज 50-60 रुपया खरीद रहे हो या फिर 20 रुपया किलो ? रसोई गैस और रेलवे का बढ़ा किराया पड़ोसी भरता है या आप अपनी जेब से लगाते हो ? सरकारी नौकरी में हो तो पेशन मिलेगी या नहीं या आप ठेके वाले सिस्टम में आ गए हो ? रहने को घर बना लिया है या आधी सैलरी मकान की ईएमआई में निकाल देते हो ? कल को अगर तुम्हें कुछ हो जाए तो परिवार की जिम्मेदारी बाऊजी उठा लेंगे या सरकार या समाज ?
मूर्खों !! ये सब सोचोगे कि पेशवा-मंदिर-मस्जिद और पद्मावती पर जंग करोगे ??!! जो अादमी अपना और अपने परिवार तक का भला नहीं सोच सकता वो देश का भला क्या सोचेगा ??!! आपका जीवन व्यर्थ है. ना अपने काम आ सके और ना किसी दूसरे के.
वो देखो. पद्मावती और पेशवा के सिपाही जा रहे हैं. उनके साथ लग लो. वो तुम्हें टाइम मशीन के सहारे 1290 ईस्वी में ले जाएंगे. वहां जाकर युद्ध करना और वहीं मर-खप जाना. 2018 में मानव सभ्यता को तुम्हारी जरूरत नहीं.
एक बात बोलता हूं. सोचिएगा. विनोद दुआ साब जैसे धाकड़ पत्रकार को किसी दूसरे के कंटेंट की जरूरत है क्या ? उन्होंने कितने बड़े पत्रकार खुद बना दिए और ना जाने कितनों को ट्रेंड किया. फिर उन्हें मेरे फेसबुक पोस्ट की क्या जरूरत थी. वो तो मुझे सिखा सकते हैं (और आगे उनसे इंशाअल्लाह मैं सीखूंगा भी) लेकिन फिर भी उन्होंने मुझ अनजान व्यक्ति की पोस्ट अपने कार्यक्रम में अगर तफ्सील से पढ़ी तो इसे समझने के लिए दिल की जरूरत होगी, दिमाग की नहीं. दिमाग से इसे आप समझ भी नहीं सकते.
सो फेसबुक जैसे मंच से विनोद दुआ साब को शुक्रिया बोलकर मैं लफ्जों में कृतज्ञता जाहिर नहीं कर सकता. इसके लिए शब्द नहीं हैं. निःशब्द हूं पर ये यकीन है कि आप लोग समझ जाएंगे मैं क्या कहना चाह रहा हूं. कुछ चीजें हवा में तैरकर भी दिमाग में पहुंच जाती हैं. यहां भी शायद ऐसा ही हो.
इससे पहले भी फेसबुक पर ऐसी ही एक और घटना मेरे साथ हो चुकी है, लेकिन तब उसे सार्वजनिक नहीं किया था. लेकिन इस बार सोचा कि मुझे ये बात आप सबके साथ शेयर करनी चाहिए ताकि नई पीढ़ी और न्यूज इंडस्ट्री में पांव जमाई पीढ़ी विनोद दुआ साब से कुछ सीख सके. शायद मेरे लिखने से उनके ये गुण कुछ और लोगों में ट्रांसफर हो जाएं. कम से कम मैंने तो उनके इस गुण को खुद में समाहित कर लिया और इसे अगली पीढ़ी में बांटूंगा भी.
बस आखिर में विनोद दुआ साब से यही कहना चाहूंगा कि सर, मुझे पंज्जाब्बी नईं आती लेकिन मैं पंजाबी में आपसे कहना चाहता हूं कि – तुस्सी ग्रेट हो !!!
नदीम एस अख्तर। संप्रति IIMC नई दिल्ली में बतौर अध्यापक कार्यरत। दैनिक जागरण, न्यूज 24 और जी न्यूज समेत कई संस्थानों में अहम संपादकीय पदों पर कार्य किया। धनबाद के मूल निवासी।