छांव

छांव

मृदुला शुक्ला

छाँव कहाँ होती है 
अकेली खुद में कुछ 
ये तो पेड़ों पर पत्तियों का 
दीवारों पर छत का 
वजूद भर है

पतझड़ में पेड़ों से नहीं झरती 
महज पीली पत्तियां भर 
कतरा-कतरा करके 
गिरती है पेड़ों की छाँव भी

बदलते मौसम के साथ 
लौटती नहीं 
केवल पत्तियां 
लौट आते हैं परिंदों के घोसले 
ठिठकते हैं 
मुसाफिरों के कदम भी

ठूंठ हुए पेड़ों के नीचे से 
छाँव जा दुबकती है 
पेड़ों के खोखले कोटरों में 
इंतज़ार करती है रुकने का
बर्फीले तूफानों के 
सेती हुई साँपों के अंडे

छाँव और धूप के बीच 
हमेशा तैनात होती हैं 
नर्म गुलाबी कोपलें पूरी मुस्तैदी के साथ


mridula shuklaमृदुला शुक्ला। उत्तरप्रदेश, प्रतापगढ़ की मूल निवासी। इन दिनों गाजियाबाद में प्रवास। कवयित्री। आपका कविता संग्रह ‘उम्मीदों के पांव भारी हैं’ प्रकाशित। कई पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपीं और सराही गईं।