मां,
सबसे पहले तो माफ़ी देना कि अबकी बरस मैं छठ में नहीं आ रही हूं। मैं जानती हूं इतना कह देने भर से मेरी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती, पर तुम मां हो मेरी हर मजबूरी भांप जाओगी और शायद माफ़ करके सब संभाल लेने का अभिनय भी कर लोगी. .कई रास्ते ढूढ़ने की कोशिश करती हूँ पर वो पगडंडी मिलता ही नहीं जो अपने शहर अपने गांव और आपके गोद तक पहुंचा सके । जानती हो मां बचपने से पुरे कार्तिक में सूर्योदय से पहले स्नान,गंगा स्नान, छठ पूजा ये सब आपको करते देखने की आदत ऐसी बनी थी कि सब सामान्य लगता था, पर कई महानगरों, अलग -अलग प्रदेशों में जब रहने का अनुभव हुआ तब पता चला कि आप जो करती हैं वो सिर्फ़ हमारी परंपरा हमारी रवायत हमारा संस्कार ही नहीं बल्कि ये पर्व पूरे बिहार की पहचान है।ये वो त्योहार है जो हमे अपनी माटी,अपने गांव, घर -द्वार, नाते-रिश्तेदार से जोड़े रखता है। आज जब बड़े शहरों के एकाकीपन ख़ालीपन से जूझती हूं, जब लोगों के मतलबी व्यवहार से आहत होती हूं तो समझ यही आता है इनके प्रदेश में छठ नहीं होता तभी ये आपसी सहयोग और मेलजोल को नहीं जानते ।
कितना कुछ सीखा इस पर्व से हमने अम्मा ..मिट्टी का चूल्हा बनाने के लिए बिना किसी संकोच के दूर तालाब, नदी या गंगा जाना शर्म नहीं ये शान होता है कि हमारे घर छठी मइया आयेंगी। उनके लिए कोरा चूल्हा बनेगा पुरे नेम (नियम)से , पिछले बरस मैं भी तो लेके आयी थी पाक (मिट्टी).. उस दौरान गांव की एक बुढ़िया दादी ने कैसे टोका था..अरे ये तो फलाने के घर की बिटिया है ..”देखो छठ में कितनी श्रद्धा है” मैं भांप गई थी की गांवों में भी लोग अब अपनी परंपरा से भाग रहे है तभी उन्हें मेरा मिट्टी लाने जाना इतना आश्चर्यजनक लगा ..क्योंकि तबके पहले आपने भी मुझे कभी मिट्टी लाने नहीं जाने दिया था। फिर तो मैं ज़िद पे अड़ गई थी अब तो बिल्कुल पुराने ज़माने के तरह छठ होगा ..फ़िर आपने बताया प्रसाद बनाने वाले गेहूँ को पहले ओखल में कूटना होता है ताकी ठेकुआ (पूजा का प्रसाद) नरम बने ..और वही हुआ मैंने ज़िद में आकर गेहूँ ओखल में कुटा आपकी नाराज़गी के बावजूद भी क्योंकि हाथ में छाले पड़ गए थे ..फ़िर धोने सुखाने की निगरानी भी कितने नियम से होता है। मेरे लिए सबसे सुखद तो वो रहा कैसे गेहूँ पीसने वाले ने अपने मशीन और पूरे दुकान की साफ सफ़ाई की ताकि व्रती का कोई नियम न टूटे।
आत्मसंयम और आपसी मेलजोल का इससे अनुठा उदाहरण और कहाँ मिलेगा मां… डोम घर से सुपली, माली के घर का फूल , कोसी भरने के लिए कुम्हार के चाक का दिया, अरग (अर्घ्य) लिए ग्वाले के घर का गाय का दूध ..और सबसे अनोखा दृश्य तो अम्मा पिछले बरस का वो रहा जब धोबन (मुस्लिम) के घर के धुले कपड़े से आपको बाती बनाते देखा ..फिर आपने बताया सबसे पवित्र वही कपड़ा होता है जो धोबन धो के लाये। मैंने मन ही मन सोचा हम शहरों में ख़ास कर पत्रकार वर्ग तो इसी में उलझे हैं ..जनरल ,एससी, एसटी, दलित, महादलित ..कितना ज़हर भरा है हमसब के मन में और आपको जानकर हैरानी होगी की इनमें से ज़्यादातर बिहार के ही रहने वाले है जो काम से नहीं सरनेम से प्रभावित होते हैं ।
अम्मा अब समझ आया ये जो बचपने से दीनानाथ को मनाती थी तुम गानों के जरिए वो दरअसल सूर्य देव हैं..जानती हो मां ये भी एक मिसाल है.. पूरे भारतवर्ष में कि डूबते सूर्य को सिर्फ बिहार में पूजा जाता है और ये हमसब के आचरण का हिस्सा भी बन चुका है ..न कोई आडंबर न कोई दिखावापन हर वर्ग एक साथ एक ही छठ घाट पर बिना किसी दुर्भावना..ऐसा दृश्य ऐसा महापर्व जिसकी खुबसूरती बताना सूर्य को दिया दिखाने के सामान है। हैरान न हो माँ छठ के बारे में मुझसे ये सब सुन के.. नीली-पीली साड़ी पहन के टीवी पर यही सब तो करती हूं छठ पुजा में।
मैं जब भी छठ पूजा में नहीं आ पाती हूँ ..आपको मनाती हूं छठ बिठा दीजिए ..लेकिन आज अहसास हुआ मैं सही नहीं हूं ..ये ज़िम्मेदारी जबतक आपकी बहुरानी न उठा ले आप परंपरा को यूं ही निभाओ.. ग़लती मेरी है ऐन छठ से पहले हाथ पैर ज़ख्मी (एक्सिडेंट) कर के बैठ गई ..और उसपर दफ़्तर में समझा भी नहीं पायी कि मेरे घर नहीं जाने का असर ये होगा कि छठ आप छपरा (मेरा घर) में नहीं सिवान (ननिहाल) में करेंगी जो मुझे गवारा नहीं पर आपकी सहूलियत के आगे मेरी एक न चली । बस छठी मईया से कहना मेरी हथेलियों में जान आ जाए ताकि अगले बरस मैं ठेकुआ का आटा गुद सकु, पैर भी पहले की तरह हो जाए ताकि उबड़ खाबड़ तलाब में अरग दिला सकु.. बाक़ी अगले बरस हम सब निभाएंगे… घर सुना नहीं रहेगा दरवाज़े से लौट कर न कुम्हार का दिया जायेगा न मालन का फूल न ही धोबन का कपड़ा । दिवाली का दिया भी जलेगा, भाई दूज का गोधन भी, छठ का कोसी भी और उसके बाद कार्तिक में खिरलीच दर्शन भी… बस इस बरस तो मुझे कबूतर दर्शन से खुश होना होगा ..मां!!!! दिल्ली में कबूतर बहुत है….!
रीमा प्रसाद, टीवी पत्रकार । बिहार के छपरा निवासी हैं । कई न्यूज़ चैनलों में काम करने का अनुभव।