संघर्ष के तीन दशक, वही कसक… वही ठसक

medha patker
फोटो- नर्मदा बचाओ आंदोलन के फेसबुक वॉल से।

यह विकास, विस्थापन और पुनर्वास के संघर्ष की ऐसी दास्तान है जो महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमाओं को तोड़ देश की सरहद को लांघती है। दुनियाभर के विकास मॉडल पर यह आंदोलन सवाल खड़ा करता है। एक ऐसा आंदोलन जो तीन दशकों से वंचितों के अधिकार की लड़ाई का पर्याय बन गया है। बात नर्मदा बचाओ आंदोलन की, बात सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर की, खुद उनकी जुबानी। बदलाव के लिए उनसे बात की विवेक कुमार ने। 

बदलाव- नर्मदा बचाओ अभियान को तीन दशक के  संघर्ष से आख़िर हासिल क्या हुआ?

मेधा पाटकर- इस संघर्ष से विस्थापितों को पुनर्वास का हक दिलाने में बड़ी कामयाबी मिली है। हालांकि अब भी यह संघर्ष अधूरा है। बीते तीन दशक के दौरान सरदार सरोवर बांध की वजह से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में प्रभावितों में 11 हजार परिवारों को पुनर्वास के तहत ज़मीन मिली है। मेरा मानना है कि पुनर्वास की सफलता राजनीतिक इच्छा-शक्ति से मुमकिन है। सरकारें निजी कंपनियों के लिये जमीनें सुरक्षित कर रही हैं जबकि अपनी ही जमीनों से बेदखल और विस्थापन की मार झेलने वाले आदिवासी, और समाज के निर्बल लोगों को पुनर्वास के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ रही है।

sardar sarovar damबदलाव- नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध  के विरोध के पीछे आपके तर्क क्या हैं ?

मेधा पाटकर- किसी भी परियोजना को यह सोच कर लाना ही ग़लत है कि उसमें विस्थापन और पुनर्वास शामिल है। नर्मदा के आसपास जिन गांवों को सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से डूबने का डर है, वे सभी आदिवासी बहुल इलाके हैं। इन लोगों की आजीविका का साधन ही उन्हें विस्थापित कर छीन लिया जाता है और उनके हाथ सिर्फ दुख और दर्द आता है, जबकि सच्चाई ये है कि किसी भी प्रोजेक्ट के फायदे और मुनाफे में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं होती, जबकि सबकुछ उन्हीं की जमीन पर होता है । पुनर्वास के नाम पर सिर्फ चंद रुपये और आधा-अधूरा मुआवजा देकर सरकारें अपना दायित्व पूरा करने का दंभ भरती हैं लेकिन किसी परियोजना की वजह से विस्थापन के साथ जो बर्बादी होती है उस पर कोई विचार नहीं किया जाता ।

सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से नर्मदा से सटे कई इलाके डूब जाएंगे, मध्य प्रदेश के सैकड़ों गांव तबाह हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन की परवाह किए बिना ग़ैरक़ानूनी तरीके से बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है। बांध की ऊंचाई लगभग 138.68 मीटर तक की जा चुकी है। इसके बाद भी 17 मीटर और बढ़ाये जाने की बात है। यदि इतना बढ़ाया जाता है तो करीब 214 किलोमीटर तक सिर्फ बर्बादी ही बर्बादी होगी । 245 गांव और कई नगर पूरी तरह डूब जायेंगे, लेकिन उसकी फिक्र किसी को नहीं है । इसके ख़िलाफ़ मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले में 12 अगस्त से जल सत्याग्रह चल रहा है।

फोटो- नर्मदा बचाओ आंदोलन के फेसबुक वॉल से।
फोटो- नर्मदा बचाओ आंदोलन के फेसबुक वॉल से।

बदलाव- सरकार झुकने को तैयार नहीं, ऐसे में आखिरी उम्मीद न्यायपालिका से ही बचती है, आप क़ानूनी लड़ाई को कैसे आगे बढ़ा रही हैं। 

मेधा पाटकर-हमारी जो भूमिका है उसमें केवल न्यायपालिका की अवधारणा शामिल नहीं है। बल्कि हम आर्थिक और राजनीतिक मंचों पर भी पुनर्वास समेत तमाम दूसरे सवालों लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं। आंदोलन में गांवों से बड़ी तादाद में बहनों की सहभागिता है। आदिवासी समाज बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है। जन-अदालतें हो रही हैं। सामाजिक संगठन और बुद्धिजीवी एकजुट हो रहे हैं। हम पहले की तरह अब भी पूरी तरह संघर्ष के लिये तैयार हैं। फ़ैसला ग़रीबों के हक़ में होना चाहिए।

बदलाव- किसी परियोजना के बाद विस्थापन और पुनर्वास कुछेक लोगों के लिए बड़े फायदे का सौदा होता है, क्या कहेंगी आप?

मेधा पाटकर- पुनर्वास को लेकर जबरदस्त भ्रष्टाचार हो रहा है। हमने भ्रष्टाचार को उजागर किया है। बीते दस सालों में 1000 करोड़ रुपए का घोटाला सामने आया है। पुनर्वास के नाम पर 3000 झूठी रजिस्ट्री कराई गई है। हमारी दखल के बाद इन मामलों पर अदालत ने जांच बैठा दी है । हजारों विस्थापितों को पुनर्वास के लिए ज़मीन नहीं मिल पाई है, जो घोटाले में शामिल हैं उनके लिए तो परियोजना जरूर खुशियां लेकर आई है ।

narmada bachao andolan-1बदलाव- भूमि-अधिग्रहण क़ानून पर सरकार बैकफुट पर चली गई? आप का क्या कहना है?

मेधा पाटकर- भूमि अधिग्रहण पर सरकार के बैकफुट पर जाने का मतलब ये कतई नहीं कि सरकार अब आम लोगों की ही बात करेगी । 2013 के भूमि अधिग्रहण क़ानून में भी प्राइवेट प्रोजेक्ट को लेकर कुछ मर्यादाएं जरूर थीं लेकिन वह भी न्यायोचित नहीं थीं। भूमि अधिग्रहण राज्यों के लिए काफी बड़ी चुनौती है। हमारी सरकारों को आम जनता के हितों को ध्यान में रखकर कोई कानून बनाना चाहिए, जिसमें परियोजना से पहले पुनर्वास का इंतज़ाम हो, लेकिन मैं फिर कहूंगी कि कोशिश ये होनी चाहिए कि परियोजना के लिए ऐसी जगह चुनी जाए जहां कम से कम पुनर्वास कराना पड़े ।

बदलाव- विकास मॉडल में सभी की सहभागिता कैसे तय होगी ?

मेधा पाटकर-तमाम देशों के मुकाबले मानव विकास सूची में हम बहुत पीछे हैं। हमें अपने अधिकार को बचाने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है। कॉरपोरेट और विदेशी कंपनियों का हर सेक्टर में दबदबा बढ़ता जा रहा है। इन कंपनियों को अपने नियम और शर्तों से बंधे हुए सस्ते मजदूर चाहिए, लिहाजा हमारी सरकारें श्रम कानून को कमज़ोर करने में जुटी हैं। अब ऐसे विकास मॉडल में सहभागिता की बात कैसे मुमकिन है।


सरकारें… सवालों से घबराती हैं… पढ़िए अखलाक की रिपोर्ट।

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