अरविंद पांडेय
बाहर लालटेन जल रही है…जो छज्जे पर लगे हुक के सहारे टांग दी गई है। रोशनी इतनी ही है कि चेहरे के अलावा कुछ देखने के लिए आंखों पर जोर डाल कर टटोलना होगा या फिर दिन की याद्दाश्त से काम चलाना होगा। दालान (शहरी भाषा में लॉबी) में एक दो कुर्सियां पड़ी हैं, उसी से कुछ दूरी पर दो तखत पड़े हैं। इसमें से एक तखत पर दो तीन लोग बैठे हैं और कुर्सियों में से एक पर घर के मुखिया बैठे हैं। जबकि घर के भीतर जाने वाले दरवाजे पर घर की मालकिन बैठी हैं। वहीं उसी दरवाजे के बगल में खुलने वाले एक कमरे में घर की बिटिया और उसके पति बैठे हैं। बातचीत के क्रम में अभी तक कुछ ऐसा नहीं है जिसे सुन कर ये कहा जाए कि ये चिंतन सामाजिक है, आर्थिक या फिर पारिवारिक। क्योंकि निशाने पर एक गांव का शख्स कौशल है, यही नाम था उस शख्स का। सवालों के क्रम में वो जवाब देता जा रहा था लेकिन बड़े सीमित शब्दों में। मुखिया की नातिन भी वहीं खेल रही थी जो बीच-बीच में अपने नाना के सवालों के जवाब में सवाल कर रही थी। इस बीच एक शख्स की एंट्री होती है। शहरी कल्चर के देहाती वर्जन की शक्ल में। लोवर, टीशर्ट और कंधे पर गमछा, शहरी होने की आतुरता के साथ ही देहातीपन छोड़ने की लाज का ‘कॉकटेल’।
रिपोर्ताज
खैर, एंट्री होते ही अंधेरे में एक आवाज गूंजी…प्रधान जी नमस्कार….प्रति उत्तर में नमस्कार….का अभिवादन दागते हुए प्रधान जी एक कुर्सी पर धप्प से बैठ गए।प्रचार, प्रसार और भविष्य के खाके से उलट उन्होंने नातिन का हाल-चाल लेना शुरू किया। कुछ सवाल अपनी जरूरत के, कुछ उसकी जरूरत के दागे। जिनके जवाबों की संतुष्टि ने मानो उन्हें विजयी बना दिया। बिना वक्त गंवाएं वहां से वो निकल गए। घर के एक दो लोग इधर-उधर होते हैं कुछ मिनटों के लिए। फिर वापस अपनी-अपनी जगह पर।
तभी सामने से तीन चार लोग दालान की सीढ़ियां चढ़ते हुए ‘पैलगी’ (अभिवादन) करते आते हैं। उम्र भी कोई 55 साल के आसपास। नमस्कार बाबा….सबसे आगे चल रहा शख्स कुर्ता पैजामा पहने हुए उस पर सफेद हाफ नेहरू जैकेट जो अंधेरे में सबसे ज्यादा चमक रही थी। पीछे एक दो लोग जो सफेद शर्ट पहने हुए। वो भी समवेत स्वर में नमस्कार बाबा बोलते हैं। इतने में चौकी पर बैठने के बाद घर के मुखिया से बातचीत का क्रम बेहद औपचारिक होता है। इसी बीच मुखिया की लड़की जो संभवत शहर से आई है कुछ दिन के लिए, उन्हें देखते ही पूछती है कि ”आप भी चुनाव लड़ रहे हैं क्या श्याम चाच”…चाचा प्रत्युत्तर में सिर झुका कर हंसते हैं…हां बेटी।
अगला सवाल आता है कि आप तो एकदम बुढ़ा गए हैं…जवाब में फिर वही हंसी। सामने के कमरे से मुखिया का दामाद निकल कर भीतर दाखिल होता है। तभी तेजी से आगे बढ़ते हुए घर के मुखिया उसके कान में जाकर बोलते हैं कि ये हमारे गांव का पुराना प्रधान है। हरिजन है। इसके बाद घर के भीतर से कुछ मिठाइयां पानी के डिस्पोज़ल ग्लास लेकर बाहर आते हैं और सभी को पानी पिलाते हैं। (ये बदलाव सहज आया है या फिर चुनावी है…समझ पाना थोड़ा मुश्किल है)…थोड़ी देर बैठक में शांति हो जाती है…(क्योंकि इस बीच में कोई बातचीत नहीं होती) न कोई वोट मांगता है, न कोई देने का वादा करता है। मानो बस उपस्थिति मात्र से ही सारी शंकाओं का उन्मूलन हो गया हो। ज़ाहिर है ये गांव की अपनी शैली है, जहां शोर शराबे की जगह शांति तब तक रहती है जब तक विरोध की आग भभक न उठे। सुलगने का खतरा स्वाभाविक माना जाता है, स्वस्थ भी।
थोड़ी देर बाद एक इजाज़त के साथ दल उठने लगता है...”चलीं बाबा फिर”…जवाब में मुखिया भी कहते हैं- ”चला”…
इसके बाद विसर्जित हुई सभा खाने और पानी की तैयारी में लग जाती है। भोजन पानी होते ही एक और शख्स की एंट्री होती है जो हाथ में टार्च लिए घर में दाखिल होता है। खास ये है कि अब तक जितने लोग आए उन्होंने किसी अनौपचारिकता की आड़ नहीं ली थी, लेकिन ये शख्स घर के भीतर दाखिल हुआ तो इसने मुखिया के बगल वाली कुर्सी पर कब्जा किया। बातचीत का सिलसिला बेहद धीमी आवाज में। संभवत गांव के किसी शख्स के बारे में बात हो रही थी। सूचनाओं के आदान प्रदान के क्रम में बीच-बीच में चुनावी स्थिति का भी विश्लेषण किया जा रहा था। चारित्रिक पतन और सामाजिक पतन के बीच पतवार चुनाव की चलाई जा रही थी। कभी स्वर मंद हो जाता….तो कभी हां….हां…के क्रम में तेज। ये सिलसिला तकरीबन आधे घंटे से ज्यादा चला। घर के सारे लोग सुनते रहे। सोने की प्रबल इच्छा के बीच कुछ ही ऐसी तस्वीर दूसरे गांवों की है।
प्रधान चुनाव में उलझे प्रदेश में सियासत की दिशा तो नहीं तय होगी। लेकिन दशा जरूर तय होगी। क्योंकि ये बातें जितनी देर में हुई और जितनी देर तक हुई उसमें एक बड़ी बात ये रही कि लाइट का अता पता नहीं था। जो आई भी तो मानो उपस्थिति दर्ज कराने के लिए किसी प्रत्याशी की तरह। जिससे मुखातिब होने का वक़्त किसी के पास नहीं था। नियति ने गांवों में खंभे खड़े कर दिए। उन पर तार झुला दिए लेकिन वो करंट नहीं दिया जिससे रोशनी हो सके। घरों में, ज़िंदगी में सियासत ने सब कुछ देने का डंका तो पीटा है लेकिन उसमें वो कराह दब गई है जो योजनाओं की शक्ल में गांवों से चिपकी है लेकिन लोगों की तकदीर बदलने में नाकाम है।
अरविंद पाण्डेय, दस साल से पत्रकारिता में सक्रिय। पंडित दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक।