धीरेंद्र पुंढीर
आज़ादी की जंग इतनी आसान नहीं थी जितनी वो फेस बुक पर दिखाई देती है। तिंरगा लगाने या फिर एक नारा दे देने से हासिल नहीं हुई है आज़ादी। ये सदियों का सफ़र था, जिसको तय करने के दरम्यां हज़ारों लाल फांसी के फंदे पर झूले या फिर सीने में गोलियां खाईं। बर्छे, भाले से बिंध गए जिस्मों की अनगिनत कहानियां है। मुझे अच्छा लगता है जब फेस बुक टि्वटर एकाउंट पर कोई ऐसे वीरों की कहानी शेयर करता है, जिनके खून से इस देश की जमींन को सींचा गया है। ऐसे वक़्त में मैं अपनी ओर से कुछ ऐसे लोकगीत शेयर करना चाहता हूं, जो आज़ादी की जंग के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में गाए जाते थे और आज भुला दिए गए। इतिहास से दुश्मनी जाने क्यों हमारे समुदायों की एक नैसर्गिक आदत बन चुकी है। ख़ैर इस पर, बात फिर कभी।
क्रांति के लोकगीत-एक
बंगाली लोकगीत
खुदीराम बोस की फांसी के बाद बंगाल का एक लोकगीत देश की आवाज़ बन गया था। कहते हैं कि खुदीराम ने इसको फांसी के वक्त गाया था।
एक बार विदाई दे मां घूरे आसि।
हांसि-हांसि पड़बो फांसी।
मां गो देखबे भारतबासी।।
ओ मां कलेर बोमा तैयारी करे,
दांड़िये छिलाम लाइऩेर धारे,
मां गो, बड़ो लाट के मारते गिए
मारलाय भारतवासी।
शनिवार बेला दु रो ते ,
लेक धरेना हाई कोर्टे ते,
ओ मां, आमिरामेर द्वीप चालान मां।
खदीरामेर फांसी,
दस मास दस दिन परे।
तोर खदीराम आसबे फिरे।
चीनते जदि ना पारिस मां,
देखबी गलाय फांसी।।
( मां, विदा दो, हंस-हंसकर फांसी चढ़ूंगा। मां, भारतवासी देखेंगे। ओ मां, बम बनाकर खड़ा था। मां, बड़े लाट को मारने की कोशिश में। भारतवासी को मार डाला। शनिवार को दोपहर दो बजे हाईकोर्ट में इतनी भीड़ थी कि तिल धरने को जगह न थी। ओ मां, अभिराम को अंडमान द्वीप की सजा दी जाएगी और खुदीराम को फांसी। दस महीने दस दिन बाद तेरा खुदीराम फिर आएगा। यदि उस पहचान न पाओ तो -देखना, गले में फांसी का निशान होगा।)
उड़िया लोकगीत
छुअंना छुअंना बिदेशी बसन
भाई मुंडा नाहिं सेहि पापकु
अमृत हांजिरे बिष मिशा नाहिं
दुध पिआ नाहिं नाम सापकु।
देशरे आसिछि नब जागरण
आउ हाटानाहिं देश पछकु
स्वाधीनता बट पल्लबि उठिछि
बंधु, ङाण नाहिं तेहि गछकु।
आपणा भाइंकि भगारी करि तु
केमें पोष नाहिं दूर ठकंकु
जाति महासभा छाति रक्त पिई
आजि काट नाहिं निज बेककु।
(भाईयों, आप विदेशी वस्त्र मत छुएँ। आप पाप न करें। अमृत के कलश में विष न मिलाएं। हमारे देश में नव-जागरण हो रहा है। आप देश को पीछे न धकेलें। स्वतंत्रता रूपी वृक्ष पर कुल्हाड़ी न चलाएं। अपने भाई को दुश्मन बनाकर समुद्र पार से आए अंग्रेजों की मदद न करें। अपनी जाति महासभा के ह्दय का रक्त पीकर अपनी गर्दन न काटें।)
पंजाबी लोकगीत
बारीं बरसीं खट्टण गिया सी खट्ट के लियांदी माया,
बारे जाइये भगतसिंह दे, जिन संबली च बंब चलाया।
(प्रियतम तुम बारह वर्ष से धन कमाने गए थे और धन कमाकर लाए हो। लेकिन हम तो भगतसिंह पर न्यौछावर हैं, जिन्होंने एसेंबली भवन में बम चलाकर मुक्ति संघर्ष के क्रांतिकारी जयघोष इंकलाब जिंदाबाद की गर्जना की।)
होर ना कोई जम्मिआ
जिहड़ी रात भगतसिंह जम्मिआ
हो न कोई जम्मिआ
(और कोई पैदा नहीं हुआ, जिस रात भगतसिंह पैदा हुए उस रात कोई और पैदा नहीं हुआ)
तेरा राज ना फरंगिया रहिणा
भगतसिंह कोह सुटि्टया।
वन्न देणीआंदेशदीआं लींहा
लहू शहीदां दे।
(फिंरगी तेरा राज नहीं रहेगा। भगतसिंह ने कह दिया है, अब तो हम देश की लीकें शहीदों के खून से भर देंगे)
गुजराती लोक गीत
तारे क्यारे ठैठ दुला दिलनां शोणित पार्या
पुत्र विजोगी माताओनां नयन झरण ठलवायां
झंडा अजर अमर रे जो
वध वध आकाशे जाजे
तारे मस्तक नव मंड़ई गरूड़ तणी मगरूरी,
तारे भाल नची आलेख्यां समशिर अंजर छूरी
झंडा दीन कबूतर शे,
लेरे तुज रेंटीट रमतो।
( हे राष्ट्र के ध्वज तुम्हारा वंदन है। हे राष्ट्रध्वज तुम्हारे लिए प्यारे सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। कितनी माताओं के पुत्र शहीद हुए हैं। इसीलिए हे राष्ट्रध्वज तुम अजर, अमर रहना। तुम शांति का संदेश देते हो, पर तुम्हें प्राप्त करने के लिए देश के सैनिक मौत के मुंह में धकेले जाते हैं। अनेक माताओं की गोद सूनी हो जाती है और कितनी ही बहनों के वीर भाई शहीद हो जाते हैं। देश के सभी लोग तुम्हें नमन करते हैं। क्योंकि ये सब जानते है कि इस ध्वज को पाने के लिए पता नहीं कितनी आहुति दी गई है।)
राजस्थानी लोकगीत
तू हाल सभा में चाल म्हारा ढोला जी।
तू खाग्यो घर का माल म्हारा ढोला जी।।
कायर वर्षों तो स्यालू लो, थाकी पागां म्हाने दो।
लो हाथां में चुडडलो घाल म्हारा ढोला जी।।
तू हाल सभा में…
माथो बांदो राखड़ी, नाका पहरो नथड़ी।
नैणां में सुरमा सार, म्हारा ढोला जी।।
तू हाल सभा में..
हाथां में पैरां हथकड़ियां, पगा में पैरो बेड़ियां
दुश्मण ने दिखादां चाल, म्हारा ढोला जी
तू हाल सभा में…
आवे अन्यायी फटकारां, करा न वांकी बेगारां
चाहे म्हांकि करो हलाल, म्हारा ढोला जी।।
तू हाल सभा में…
तोप बंदूका म्हे झेलां, नीचों माथे नहीं मेलां।
लो बंदेमातरम ढास, म्हारा ढोला जी।।
तू हाल सभा में..
( मेरे प्रियतम, चल सभा में चल। तू मेरे घर का माल खा गया। कायर बनोगे तो साड़ी ओढ़ा दूंगी और अपनी पगड़ी मुझे दे देना। हाथों में चूड़ियां पहन लेना, सिर पर रखड़ी (बोर) और नाक में नथ पहन लेना। मेरे प्रीतम, आंखों में सूरमा लगाना, हाथों में मेंहदी रचा लेना, पैरों में नेवरा (एक गहना) बजाते हुए तुम चलना, मेरे प्रियतम। तुम्हारा नाम नाथी है और तुम्हारा ह्दय धड़कता है। तुम्हें मैं कोठे में छिपा दूंगी। हाथों में हथकड़ियां पहन लेना, पांवों में बेडियां पहन दुश्मन को अपनी चाल दिखा दो। अत्याचारी को मुंहतोड़ उत्तर देना। उनकी बेगार न करें, चाहे मुझे हलाल कर दें। मैं तोप व बंदूकों की मार खा लूंगी, पर सिर नीचा नहीं करूंगी। बंदे मातरम की ढाल लेकर मेरे ढोला जी सभा में चलो)
सीस कटायो मान बंधायो
मुख पै उडै रे गुलाल
सीवर मे डेरा डाल्या
धड़ से करयो जवाब।
(आपने युद्ध भूमि में अपना सिर कटवा लिया। आपके मुंह पर यश का, कीर्ति का गुलाल उड़ रहा है। सिर काटने पर आने ध़ड़ से ही युद्ध किया।)
धीरेंद्र पुंढीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।
उन शहीदों को याद करें, जिनकी मजार पर लगते हैं मेले… पढ़ने के लिए क्लिक करें