तिरंगे के रंग
आँखें तभी साफ़ साफ़ देख पाती हैं
जब पेट में रोटी होती है,
हाथ तिरंगे को
तभी मज़बूती से थाम पाते हैं
जब उन्हें श्रम का अभ्यास मिलता है,
तिरंगे का मतलब नहीं है
हिंसा, गैर-बराबरी
और लूट के रंगों का जोड़,
तिरंगा बोतल में बंद
पानी नहीं होता है
आँखों में बसा सपना होता है,
तिरंगा मौन नहीं रहता है
फड़फड़ाता है, दंगों की आशंकाओं से
और सचेतक होता है
लुटेरों और हत्यारों की साज़िशों का,
तिरंगे का चक्र
तभी चल पाता
जब राजा को यह अहसास होता है
राष्ट्रधर्म सबसे बड़ा धर्म होता है,
तिरंगा तभी बहार ला पाता
जब औरतों की आँखों को भी
रंग देखने की आज़ादी होती है,
तिरंगा एक वस्तु नहीं है
तिरंगा एक हथियार भी नहीं है
तिरंगा कुटिल चाल भी नहीं है
तिरंगा चिंगारी भी नहीं है
तिरंगा ऐसे राष्ट्रवाद से कहीं ऊपर है
तिरंगा तो प्रतीक है
उपनिवेशवाद से मुक्ति का,
क्या तुम कभी देख पाए हो
ऐसे तिरंगे को
जो भारत को
भारत बनाता है।
सचिन कुमार जैन। विकास संवाद नाम की स्वयंसेवी संस्था से जुड़े हैं। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र। सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर स्वतंत्र चिंतन और अभिव्यक्त करने का जोखिम उठाने का माद्दा रखते हैं।
इस घाव को अब पक ही जाने दें… सचिन कुमार जैन की रिपोर्ट- पढ़ने के लिए क्लिक करें
ऐसे तो स्मपूर्ण कविता बेहतरीन है पर मुझे अंतिम ८ पंक्तियॉ छू गयी ।