चाची के हाथ की मछली खाने की ललक

मनोरमा सिंह

mishra chachi-1ये मिश्रा चाची हैं। बरौनी आरटीएस, में मेरे पड़ोस की चाची। मैथिल और अंगिका बोलने वाली चाची, अपनी पीढ़ी में राजनीतिक रूप से जबरदस्त सचेत महिला हुआ करती थीं। माया और बाद में इंडिया टुडे की घनघोर पाठिका थीं। इनसे मेरी दोस्ती का एक आधार ये भी था। आएं गे मुन्नी इ बताहीं, आएं गे मुन्नी तू इ बात जाने छहीं… चाची से ऐसे बातचीत शुरू होती तो राजीव गांधी, वी पी सिंह लालू यादव होते हुए जाने कहां-कहां पहुंच जातीं।

संस्मरण

वैसे चाची हाल ही में पूरे देश में चर्चा में आए बेगुसराय के बीहट गांव की बहू हैं, लेकिन वामपंथी नहीं हैं। बेगुसराय में वामपंथ और उस पर एक जाति विशेष के वर्चस्व की कुछ जमीनी कहानियां, इसी घर से सुनी हैं मैंने। एक वक़्त ऐसा था, जब मैं सुबह बिस्तर से उठकर आंख मलते उनके घर चली जाया करती थी। चाची गरम-गरम सत्तू-पराठां बनातीं होतीं। मुझे खाना होता और ब्रश भी नहीं करके आयी होती। चाची पीछे लॉन से आम, अमरूद किसी भी पेड़ की एक टहनी तोड़ के देती- चल दतुवन कर ले खाएं के जो.. । और मैं नाश्ता करके घर जाती।

फिर जल्दी से रेडी होकर स्कूल बाद में ऐसा भी हुआ किसी बात पर मैंने चाची से बात करना बंद कर दिया और लगभग पूरे परिवार से भी। जबकि दोनों परिवारों में और कुछ भी नहीं बदला कभी भी। सिर्फ मैं अलग—थलग हो गई। बगैर कुछ कहे—सुने हम अपने अपने छोरों पर अपनी दुनियां में रहते रहें और मैं सालों अपनी नासमझी साथ लिए!

mishra chachi-21बंगलुरू आने पर सोशल नेटवर्क के मार्फत दोबारा संपर्क हुआ और पता चला चाची को कैंसर है। 17 साल बाद जब मैं उनसे मिली तो सारा अबोला दोनों के आंखों के पानी में घुल गया और लगा बीच के वो साल जैसे कभी आए ही नहीं थे। शायद ये इसलिए कि हमारी पीढ़ी, हमारी सोच, हमारी विचारधारा सारे मतभेदों के बावजूद एक बात थी- मतभेद भी सम्मान, गरिमा और प्यार से निभाना। और जो जैसा है, उसे वैसा ही स्वीकार कर प्यार देना, प्यार करना।

चाची बोर्न फाईटर हैं दो बार कैंसर को हरा चुकी हैं। पहली तस्वीर में दुसरी बार कैंसर से ठीक हो जाने पर अपने हाथ से मछली बनाकर खिलाया था उन्होंने। फिर तीसरी दफा उन्हें कैंसर हुआ है और इस बार जीभ में, डाक्टर्स ने सर्जरी से नयी टंग रीकंस्ट्क्ट किया है। धीरे—धीरे वो ठीक हो रही हैं। अपने अतीत की खूबसूरती की छाया रह गई। चाची का हौसला और हिम्मत मुझे हैरान करता है और प्रेरित भी। यकीनन वो जल्दी ही पूरी तरह से ठीक होकर फिर मछली खाने बुलाएंगी। और उनके ठीक हो जाने पर एक दिन मैं बेगुसराय उनका नया घर, फार्म, तालाब सब देखने भी जाउंगी!


manorma singhमनोरमा सिंह। बेगुसराय की निवासी मनोरमा इन दिनों बंगलुरू में रह रही हैं। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की पूर्व स्टुडेंट हैं। पत्रकारिता इनका पेशा है।


अख़बार के 8 पन्नों में मां की ममता का संसार