धीरेंद्र पुंडीर
हर घटना एक दम LIVE। आंखों के सामने। सच का सच। दूध का दूध, पानी का पानी। शीशे की तरह साफ। ये सब अलग अलग मीडिया की टैगलाइन है। कोई भी किसी की हो सकती है। मंझे हुए लेखकों ने बहुत माथापच्ची कर लिखी है। आखिर हर लाइन का मकसद अपने अर्थ के लिए कोई समर्थन हो या न हो लेकिन जनता की आंखों में चढ़ जाना होता है। और जनता ने इस पर यकीन कर लिया।
मीडिया इस वक़्त देश के सिर चढ़ कर बोल रहा है। आदमी के हर विचार पर मीडिया के किसी न किसी हिस्से का प्रभाव है। कोई न कोई रिपोर्टर, किसी न किसी समुदाय के लिए एक मसीहा में तब्दील हो रहा है। खुद मीडिया किस चीज में तब्दील हो रहा है इस पर मीडिया के अंदर बहस बंद है। फिल्मस्टार की हैसियत हासिल करने के लिए आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के रणबांकुरे तो ज्यादा चटपटे अंदाज में खबर लिखने की महारथ को बेताब हैं। और इस बीच, खबर कहां चली गई… कोई खबर नहीं।
मीडिया का आईना-एक
यूं तो खबरों को लेकर बहुत ज्यादा सजग होने के दिन काफी दिन पहले ही लद गए। लेकिन सिर्फ भड़काऊ घटनाओं को खबर बनते देखकर काफी कोफ्त होती है। हैरानी की बात है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया का पत्रकार जनता के लिए बुद्धिजीवी की श्रेणी से बाहर होता जा रहा है। जनता बड़ी आसानी से ये निशान लगा देती है कि कौन पत्रकार किस पार्टी के लिए रिपोर्ट कर रहा है।
रिपोर्ट को किस अंदाज में लिखा जा रहा है ये पता करने के लिए किसी भी आदमी को उस जमीन पर जाना चाहिए। मैं यहां सिर्फ मीडिया के लोगों से बात कर रहा हूं। खास तौर से उन लोगों से जो अपनी लेखनी में आग भर देते हैं, घटनास्थल पर जाए बिना। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग घटनास्थल से हजारों किलोमीटर दूर बैठे ये देख लेते है कि एक आदमी को पूरे गांव ने मिलकर मार डाला। गांव का ढ़ांचा क्या था? गांव में रहने वाले लोगों की अंदरूनी राजनीति क्या थी? गांव में आर्थिक और सामाजिक यर्थाथ क्या है ? इसका कोई ब्यौरा नहीं। उनको संजय दृष्टि मिली हुई है और उसका इस्तेमाल वो बहुत सधे हुए अंदाज में कर लेते हैं। अपनी जाति घृणा को वो देश की घृणा में बदल डालते हैं। बिना जाने या जानबूझकर कह नहीं सकता। दो उदाहरण इसके लिए बहुत मौजूं हैं।
शुरूआत करते है सुनपेड़ गांव से। फरीदाबाद से लगा हुआ ये गांव लगभग 1800 वोटों का गांव है। खेत अब शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और अपार्टमेंट में बदलने के लिए करोड़ों में खरीदे-बेचे जा रहे हैं। गांव में लगभग 800 घर दबंग ( जाति परंपरा और इतिहास से सिद्ध) राजपूत जाति के हैं। 300 घर दलितों के हैं। बाकि घर अन्य जातियों के हैं, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी शामिल हैं। एक सुबह खबर मिलती है कि दंबगों ने दलितों के घर आग लगाकर जिंदा जला कर मार डाला। फौरन मौके पर रवाना। तब तक देश के तमाम बड़े टीवी चैनल्स और अखबारों की वेबसाइट्स पर आकाशवाणी हो चुकी थी-दबंग राजपूतों ने दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया और बच्चों के मां-बाप गंभीर रूप से घायल हैं। दिल्ली के अस्पताल में भर्ती हैं। गांव में तनाव की गंभीर जानकारी और फोनो टीवी चैनल्स पर चलने लगे।
गांव के बाहर पुलिस की भारी मौजूदगी आपको अनहोनी की सूचना दे देती है। आला अधिकारियों की गाड़ियों के बजते हुए वायरलैस सेट्स भी ये बताने लगते हैं कि इस घटना में अधिकारियों की बदली हो सकती है। लिहाजा, वो अपनी खाल या नौकरी, जो भी कह सकते हैं- बचाने के लिए मंदिर से होकर घटनास्थल तक जा सकते हैं। गांव की एक गली से घुसते ही चार-पांच घर और एक खाली प्लॉट के बाद जितेन्द्र का मकान है। गली भी पक्की है और मकान भी पक्के हैं। घर के अंदर घुसते ही एक बड़ा सा लोहे का गेट है और फिर घर के आंगन में दर्द से भरी आवाजें। गैलरी से खुली खिड़की से पेट्रोल छिड़का गया था और अंदर बेड पर जले हुए गद्दे हैं। फिर थोड़ी देर बाद, जितेन्द्र भी अपने दोनों हाथों पर पट्टी बंधवाए आ जाता है। सब कुछ गवां बैठे आदमी के रोनी मूरत और टूटी हुई उम्मीद, दोनों भाव आपको उसके चेहरे पर नज़र आ जाते हैं।
बात हुई, उसने कहा – राजपूतों ने मारा है।
सवाल- क्या सारे गांव के राजपूतों ने?
जितेंद्र- नहीं साहब, मैं ये नहीं जानता कि सारे गांव के राजपूतों ने। बस मैं तो ये जानता हूं कि बलमत के परिवार से दुश्मनी है।
सवाल-पुलिस का क्या रोल है?
जितेंद्र- पुलिस भी उन्हीं का साथ देती है। सवर्णों का साथ देती है। पैसे वालों का साथ देती है।
सवाल- पहरे पर छह पुलिस वाले थे, उनका क्या हुआ?
घर से बाहर निकलते ही सामने एक गली जिसमें सारे मकान दबंग राजपूतों के। जितेन्द्र के घऱ के बराबर में एक और घर और फिर वो गली जिसमें दबंग बलमत का परिवार रहता है। उसी गली के नुक्कड़ पर बने घर में बैठे दबंगों से बातचीत। ( मीडिया के लिए हर राजपूत दबंग है और उतना ही हत्यारा है जितना बलमत और उसका परिवार?)
सवाल- दलितों पर अत्याचार करते हैं आप
जवाब- हम तो नहीं करते
सवाल- अरे आपने जलाकर मार दिया
जवाब- गांव का कोई आदमी थोड़े ही शामिल है। बलमत और उसके परिवार वालों की दुश्मनी चल रही है उनसे तो उऩके बीच का मामला है गांव का कोई दूसरा इस लड़ाई में शामिल नहीं है
सवाल-लेकिन आग लगाने में कोई और लोग तो होंगे
जवाब-अगर गांव को दलितों से दुश्मनी होती तो जब पिछले साल जगमाल हर ने इनके तीन जवान यहीं चाकू घोंप कर मार दिए थे तभी न उजाड़ देते इन्हें।
फिर इसके बाद वापस जितेन्द्र के घऱवालों से बातचीत कर पूछा तो उन्होंने बताया कि बलमत के परिवार के लड़के का मोबाइल नाली में गिर गया था, जिसे निकालने के लिए जितेन्द्र के भाई को कहा और उसके मना करने पर राजपूतों ने उन पर हमला बोल दिया। चाकू और बल्लम से राजपूतों के तीन लोगों की चाकूओं से गोदे जाने से मौत हो गई। इस मामले में जितेन्द्र के परिवार के 11 लोग जेल गए। रिपोर्ट और गांव वालों की कहानी के मुताबिक जितेन्द्र के चाचा और गांव के तत्कालीन सरपंच जगमाल ने दबंग राजपूत के हाथ से फोन छीनकर नाली में फेंका कर कहा था- ये रहा मोबाईल उठा ले। और झगड़ा शुरू हुआ और नामजद लोगों ने ( जितेन्द्र के परिवार वाले) बलमत के परिवार के लोगों पर हमला बोल दिया। दो लोगों की घटनास्थल पर और तीसरे की मौत अस्पताल ले जाने के दौरान हुई। इसके बाद से बलमत का परिवार और जितेन्द्र का परिवार एक दूसरे का जानी दुश्मन बन गया था।
अब मीडिया रिपोर्ट और मौके की रिपोर्ट में जमीन आसमान में अंतर आ गया। गांव में राजपूतों की दबंगई की कहानी सिर्फ मीडिया की खबरों और रिपोर्टरों के पीटीसी में थी। ये दो परिवारों की जानलेवा रंजिश की कहानी थी जिसमें बदला लेने के लिए दो मासूम बच्चों को जला दिया गया। पूरी कहानी देश भर में घूम गई दलितों को दबंगों के जलाने के नाम पर। जबकि असली कहानी थी पुलिस की लापरवाही की। पुलिस के मुताबिक जितेन्द्र के परिवारवालों को छह पुलिसकर्मी गांव में सुरक्षा के लिए दिए गए थे। ऐसे में वो पुलिसवाले कहां थे? गांव में जागरण था, पुलिस वाले भी क्या जागरण में चले गए थे?
ऐसा नहीं कि दबंगों का दलितों पर अत्याचार नहीं है। जाति के चलते रोज हजारों दलितों को देश भर में अपमान सहना पड़ता होगा। और बहुत से गांवों में दलितों की हालत सवर्णों की दबंगई से वाकई विचारणीय होगी। लेकिन क्या उन सारे आरोपों को किसी दूसरी घटना पर मढ़ा जा सकता है। ( मैं ये नहीं छिपाना चाहता कि मैं खुद इस घटना में शामिल तथाकथित दबंगों की जाति से ताल्लुक रखता हूं।) इस घटना के बाद राजनीति शुरू हो गई। और फिर उस परिवार ने भी इस मामले को दलित बनाम दबंग बना दिया। गलतबयानी के जरिेए तमाम मीडिया संस्थानों ने गांवों में तनाव बढ़ने से बेखबर कवरेज जारी रखा। किसी ने नहीं सोचा इसका असर मिर्चपुर की घटना जैसा भी हो सकता था, जिसने दलितों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। मैं सोशल मीडिया में इस घटना के बाद संजय दृष्टि वाले के पत्रकारों को केन्द्र सरकार पर हमला करते देख दंग रह गया। मुझे लगा कि हमारे दोस्त ही बिना जाने समझे ‘भेडिया आया भेडिया आया’ चिल्लाने लगे हैं।
(विमर्श की दूसरी किस्त का इंतज़ार कीजिए)
धीरेंद्र पुंडीर। दिल से कवि, पेशे से पत्रकार। टीवी की पत्रकारिता के बीच अख़बारी पत्रकारिता का संयम और धीरज ही धीरेंद्र पुंढीर की अपनी विशिष्ट पहचान है।
रवीश से एक साथी पत्रकार के थोड़े तल्ख सवाल… पढ़ने के लिए क्लिक करें
Very true every body should read this very carefully and ask a question to ourselves