अरविंद दास
‘सफ़ेद रात’ शीर्षक से लिखी आलोक धन्वा की इस कविता में विस्थापन का सवाल है। शहर की चिंता है, शहर बचा न पाने की बेबसी है। हिंसा का सवाल है। पर यह सारे सवाल एक कवि के हैं। कवि और राजनेता की भाषा में फर्क होता है, उनकी चिंता में भी। अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर में कह सकते थे- तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश/ हम आएँ सुबह-ए- बनारस की रौशनी लेकर/ और इसके बाद यह पूछें कि कौन दुश्मन है। वह राजनेता थे, कवि थे। पर यह दौर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का है। कहने को प्रधानमंत्री मोदी भी गुजराती के कवि हैं, पर वह नाम के कवि हैं। मुश्किल सवालों पर चुप्पी उन्हें ज्यादा पसंद है।
आजकल उत्तर प्रदेश के शामली जिले में स्थित कैराना चुनावी राजनीति के कारण चर्चा में है। बीजेपी का आरोप है कि कैराना के मुस्लिम बहुल इलाके से हिंदुओं ने भय से अपना घर-बार छोड़ दिया है। पिछले दिनों इलाहाबाद में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने कैराना का हवाला दिया और कहा- “कैराना के अंदर जो पलायन हुआ है उसको उत्तर प्रदेश की जनता को हलके से नहीं लेना चाहिए।” जिस तरह से कभी भगवान राम उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में थे, संभव है कि कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले भगवान राम की फिर से वापसी हो! सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और विकास का पाठ बीजेपी एक साथ साधना चाहती है।
फिलहाल हम चर्चा कैराना की कर रहे हैं, जिसका अपना एक सांस्कृतिक इतिहास है। कैराना का संबंध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के चर्चित किराना घराना से है। इस घराने के सबसे प्रसिद्ध गायक उस्ताद अब्दुल करीम खान की गायकी, उनकी ठुमरी, खयाल की चर्चा पुराने-नए शास्त्रीय संगीत के शौकीन आज भी करते हैं। करुण और श्रृंगार रस से भरी उनकी मौसकी में जो लोच है, वह सहृदय को दशकों से अपनी ओर खींचती रही है। कहते हैं ‘राम का गुणगान करिए/ राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिए’ गाने वाले पंडित भीमसेन जोशी करीम खान के गाए ‘पिया बिन नहीं आवत चैन’ और ‘पिया मिलन की आस’ सुन कर इस कदर प्रभावित हुए कि वह संगीत सीखने घर से भाग निकले। सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के मुताबिक भीमसेन जोशी का कहना था, ‘अगर गाना गाना है तो ऐसे ही गाएं’। मतलब उस्ताद करीम खान साहब की तरह। उस्ताद करीम खान के अलावे उनके भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खान और उनकी दो बेटियाँ हीराबाई बड़ोदकर और रौशनआरा बेगम किराना घराने के चर्चित गायक रहे हैं।
कैराना गाँव में 1873 में जन्मे करीम खान का भी कैराना से विस्थापन हुआ था। उन्हें मैसूर के महाराज ने रियासत में दरबार के गायक के रूप में नियुक्त किया। कर्नाटक संगीत की दुनिया में इस तरह से करीम खान साहब ने हिंदुस्तानी संगीत को प्रतिष्ठित किया। वे खुद कर्नाटक संगीत में भी पारंगत थे। यूँ उनके शिष्य पूरे भारत में रहे पर महाराष्ट्र और बंगाल में उन्होंने अपना काफी समय गुजारा था। पंडित सवाई गंधर्व (उस्ताद करीम खान के शिष्य और भीमसेन जोशी के एक गुरु), भीमसेन जोशी, गंगू बाई हंगल, फिरोज दस्तूर, फैयाज अहमद खान, प्रभा आत्रे आदि ने किराना घराने की गायकी को ही अपनाया। इसी घराने के फैयाज अहमद खान की गायकी ‘बाजू बंद खुल खुल जाए’ सुन कर प्रसिद्ध गायक केएल सहगल उनके शिष्य बन गए और बाद में उसे एक फिल्म में गाया भी था। उन्होंने राग झिंझोटी में उस्ताद करीम खान के गाए ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ भी गाया था। किराने घराने के गायकों की मौसकी ही उनके लिए इबादत थी, जहाँ हिंदू-मुस्लिम का राजनीतिक विभाजन मिट गया।
चर्चित कवि मंगलेश डबराल लिखते हैं: असली कैराना, संगीत का कैराना हैं, भाजपा के बेशर्म सांप्रदायिक झूठों और अफवाहों का नहीं।” कैराना ने महजबी राजनीति से दूर संगीत के सुरों को पूरी दुनिया में पहुँचाया, पर इस तरह के झूठ और अफवाहों से कैराना कैसे बचा रह सकता है? क्या मुजफ्फरनगर बचा रहा, क्या अयोध्या बचा रहा? आलोक धन्वा अपनी कविता में पूछते हैं:-
क्या लाहौर फिर बस पाया?
अरविंद दास। पत्रकार एवं शोधार्थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में स्नातक। भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता में डिप्लोमा। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी। ‘हिंदी में समाचार’ नामक पुस्तक लिखी। आप उनसे [email protected] पर संवाद कर सकते हैं।
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