कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है…

रिषीकांत सिंह

प्रत्युषा बनर्जी की आखिरी विदाई।
प्रत्युषा बनर्जी की आखिरी विदाई।

चार दिन पहले की बात है। रात में सोने की तैयारी कर रहा था। अचानक ऊपर वाले फ्लैट में चीख-पुकार मची। दौड़ कर ऊपर गया तो देखा एक युवक ने अपनी गर्दन में चाकू मार लिया है। पुलिस बुलाई गई। अस्पताल ले जाया गया। पता चला कि पत्नी से विवाद चल रहा था। डिप्रेशन में उसने सुसाइड की कोशिश की। अस्पताल से घर लौटते वक़्त यही सोचता रहा कि आखिर लोग सुसाइड क्यों करते हैं?

गले में चाकू लगी वो तस्वीर अभी मैं भूल भी नहीं पाया था कि पता चला एक्ट्रेस प्रत्यूषा बनर्जी ने खुदकुशी कर ली है। मन में फिर वहीं सवाल। आखिर लोग सुसाइड क्यों करते हैं?

साभार- राजस्थान पत्रिका
साभार- राजस्थान पत्रिका

इच्छाएं अनंत होती हैं। मेरे जैसे लोगों की तो दो-चार से ज्यादा कभी पूरी ही नहीं होती। रोज सुबह-सुबह उठकर हड़बड़ी में ऑफिस जाने की तैयारी करते वक्त लगता है कि ज़िंदगी कितनी मुश्किल है। घर से दूर हूं। अपने लोग पास नहीं। पत्नी को शिकायत है कि ज्यादा वक्त नहीं दे पाता हूं। बच्चे को शिकायत है कि ज्यादा घूमा नहीं पाता हूं। मां को शिकायत रहती है कि ज्यादा घर नहीं आ पाता हूं। खुद से भी शिकायत रहती है। लेकिन क्या करें? जीना इसी का नाम है। भले ही थके हों, दौड़ना पड़ता है। भले ही हारे हों, लड़ना पड़ता है। रोज लड़ना है। रोज जूझना है। लेकिन खुदकुशी, कभी नहीं। कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं।

हम डिग्री हासिल करने के लिए पढ़ते हैं। हम नौकरी पाने के लिए पढ़ते हैं। हम वक्त बिताने के लिए भी पढ़ते हैं। कभी इसलिए भी पढ़ते हैं कि सफर कट जाए। हम जो पढ़ते हैं, उससे समझना जरूरी होता है। सीखना जरूरी होता है। कई बार पढ़ी हुई बातें खुद को समझाने में काम आती हैं। मैं अक्सर फेल होता हूं। जो सोचता हूं, जो चाहता हूं, वैसा कर नहीं पाता। वैसा हो नहीं पाता। जब-जब ऐसा होता है, तब-तब खुद को समझाने के लिए पहले की पढ़ी और सुनी हुई बातें याद कर लेता हूं।

स्कूल के दिनों में गोपालदास ‘नीरज’ की एक कविता पढ़ी थी.. उसकी पंक्तियां आज भी याद हैं –

”कितनी बार गगरियां फूटीं, शिकन न आई पर पनघट पर
कितनी बार कश्तियां डूबीं, चहल-पहल वैसी है तट पर
लाख करे पतझड़ कोशिश, पर उपवन नहीं मरा करता है
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है”

हरिवंश राय बच्चन ने भी लिखा है –

pratyusha-banerjee-3”जीवन में मधु का प्याला था, तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया, मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं, गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठतें हैं, पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है, जो बीत गई सो बात गई”

आरसी प्रसाद सिंह की कविता है –

“यह जीवन क्या है ? निर्झर है, मस्ती ही इसका पानी है
सुख-दुख के दोनों तीरों से चल रहा राह मनमानी है”

स्कूल के दिनों से लेकर आज तक जब भी मन दुखी होता है। जो चाहता हूं वो हथेली से फिसलता नज़र आता है, तो इंदीवर का लिखा फिल्म ”सरस्वतीचंद्र” का एक गाना याद आता है

pratyusha-banerjee-2”चांद मिलता नहीं सबको संसार में
है दिया ही बहुत रोशनी के लिए
छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए
ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए”

प्रत्यूषा अगर तुमने ‘नीरज’, बच्चन और आरसी प्रसाद सिंह जैसे लोगों को पढ़ा होता.. समझा होता.. ‘बालिका वधू’ को थोड़ा भी अपनी ज़िंदगी में उतारा होता.. इंदीवर जैसे गीतकारों के गीतों को समझा होता, तो शायद तुम सुसाइड नहीं करती।


 

rishikant profileरिषीकांत सिंह। महाराजगंज से हाई स्कूल तक की पढ़ाई। उच्च शिक्षा लखनऊ से हासिल की। डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। ईटीवी के बाद दूसरी लंबी पारी इंडिया टीवी में जारी है।


फंटे से लटकी बेटी… तेरी कहानी कैसे कहें? … पढ़ने के लिए क्लिक करें