विकास मिश्रा
मुझे मेरी मां से बहुत कुछ मिला, लेकिन एक ऐसी चीज भी मिल गई, जिसे मैं कभी नहीं चाहता था। वो था मोटापा। पैदा होने के वक्त ही वजन 14 पौंड था। उस वक्त टीवी चैनल होते तो शायद दो-तीन दिन तक मेरी ही तस्वीरें छाई रहतीं। मोटापे की बड़ी मजबूरियां थीं, मोटा बच्चा देख कोई प्यार के मारे गाल नोचने लगता, तो कोई गाल ही काट लेता। जब हाईस्कूल में पहुंचा तो वजन 85 किलो हो चुका था। गांव, कस्बे में हालांकि कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन जब गोरखपुर जाता तो लगता था कि सारा गोरखपुर मुझे ही घूर रहा है। कोई हंसता दिखता तो लगता कि मुझ पर ही हंस रहा है। सिनेमा देखने जाता तो ऐसा लगता जैसे सिनेमा से ज्यादा मजेदार लोगों को मुझे देखना लग रह था।
तब मैं थोड़ी बहुत कसरत भी करता था, घुड़सवारी करता था, लेकिन कमबख्त चर्बी चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती जाती थी। पैंट पहन नहीं पाता था, क्योंकि वो पैरों के बीच से फट जाती थी, तब एक ही ड्रेस बचती थी कुर्ता और पजामा। एक बार मोटापे पर जग्गे मौसा की बात लग गई, बुरी तरह उन्होंने डांटा था मुझे। बस जिद आ गई कि दुबला होना है। तीन महीने तक मैंने एक भी दाना चावल नहीं खाया, रोटी नहीं खाई, मिठाई की बात ही क्या करें, एक चम्मच चीनी नहीं फांकी। न चाय, न दूध, न आलू, न चोखा। आहार सिर्फ था-दाल का पानी। नींबू पानी। प्यास लगे तो पानी, भूख लगे तो पानी।
मेरी दिद्दा अनशन पर बैठ गईं, बिना मुझे खिलाए खाती नहीं थीं। मैंने कह दिया था कि वो मेरा सबसे बड़ा दुश्मन होगा, जो खाने के लिए बोले। इंटर में एडमिशन लेने जब बनारस पहुंचा तो दिन में दो पतली रोटी खाना शुरू किया, बाकी रूटीन वही। तीन महीने में वजन 85 किलो से घटकर साढ़े 57 किलो तक पहुंच गया। फूले हुए गाल पिचक चुके थे। क्रिकेट खेलता था, पैंट-शर्ट पहनने लगा था। इसके बाद खाने पर लगी पाबंदी हटाई भी। बीच में थोड़ा वजन बढ़ता तो हफ्ते भर का अनशन सात-आठ किलो वजन कम कर जाता था। वजन घटा, लंबाई बढ़ी, छात्र जीवन में वजन अधिकतम 80 किलो तक जाता था। जब नौकरी में आया था तो 90 किलो का था। पिछले बीस बरसों से वजन 95-109 के बीच चल रहा है।
मोटे लोग यूं तो खुशमिजाज होते हैं, लेकिन जरा उनका दर्द करीब से जानिए। खाने का शौक होता है, लेकिन खा नहीं सकते। कई दुबले लोग हैं, हमारे एंकर हैं सईद अंसारी। कई बार मन करता है कि गोली मार दूं। भाई चांपकर खाता है, लेकिन मजाल है जो वजन छटांक भर भी बढ़ जाए। हमारे चैनल (आजतक) की एक बड़ी एंकर तो खाने की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती हैं। कमबख्त मोटापा उनके घरों का पता भूल चुका है, हम लोगों के घर डेरा डाले है। दुबले लोग घी का कनस्तर पी जाएं, कोई फर्क नहीं। हम लोग पानी सूंघ लें, वजन बढ़ जाए।
दुबले मित्रों के बीच अक्सर कहता हूं- भाई तुम्हारे जितना वजन होता तो दाल में घी नहीं खाता। घी की कटोरी में दो चम्मच दाल डालता। दुबला होता तो क्या खाता, फेहरिस्त आंखों के सामने नाचने लगती है। लेकिन वो सपना है। हकीकत है-दलिया, मिक्स आटे की रोटी, बिना तेल या कम तेल की सब्जी, उबला चावल। यही जीवन का सत्य है, बाकी मोटापे का घर है। लगातार मनपसंद डिश खाने लगूं तो पेट की पैंट के बेल्ट से जंग शुरू हो जाती है। पार्टी वगैरह की बात अलग है, उसमें कोई परहेज नहीं।
मेरी नानी मोटी थी, मेरी मां मोटी थी, मैं मोटा हूं, मेरी दो बहनें मोटी हैं। नानी और मां का ये ‘प्रसाद’ मेरी एक भानजी में पूरे और दूसरी में आंशिक रूप से पहुंच गया है। भूखी रहती हैं, घंटों कसरत करती हैं। जायकेदार चीजों से दूर जिंदगी की चुनौतियों से नहीं, तन के मोटापे से जंग चल रही है। लड़कियों का दर्द तो और भी बड़ा है। पहले तो सेहतमंद लड़कियों का घरों में बड़ा स्वागत होता था, लेकिन अब हर किसी को बहू या पत्नी चाहिए तो स्लिम-ट्रिम। साइज जीरो। मेरी बड़ी दीदी थोड़ी मोटी है, जीजा जी उसके बिल्कुल विपरीत, 55-60 किलो वजन वाले, लेकिन जीजा को उनके दुबलेपन के लिए हमेशा ताना मिला, किसी ने दीदी को नजराया नहीं। अब थोड़ा वक्त बदल गया है, लोग बदल गए हैं।
मेरी भानजी रुचि को बहुत दिनों से एक विज्ञापन दिन रात सपने में आ रहा था-साईं आयुर्वेद। गारंटी के साथ 15 किलो वजन घटाने का दावा कर रहा था। मुझे पता था कि ये ठगी है, क्योंकि कोई ऐसी दवा नहीं है जो बिना डायटिंग और बिना कसरत के वजन घटा दे, लेकिन जानता था कि बिना इस्तेमाल के इसे भरोसा नहीं होगा। 6 हजार रुपये की दवा आई, छह ग्राम भी वजन पर असर नहीं पड़ा।
मोटे लोगों के दम पर कितनों के व्यापार फल फूल रहे हैं। थोड़ी देर पहले ही मोबाइल में किसी कंपनी का मैसेज आया है। लिखा है कि 35 किलो वजन घटाएं। नहीं घटा तो पैसे वापस। रोज अख़बार खोलता हूं, देर रात टीवी पर चल रहे लंबे विज्ञापन देखता हूं, बिना कसरत, बिना डायटिंग वजन घटाइए। कंपनियां रिझाती हैं, मोटापे के मारे इनकी तरफ भागते हैं, कंपनियां पैसे लेती हैं। गारंटी कंडीशन के साथ अप्लाई होती है। वीएलसीसी, री-डिस्कवर, सोना बेल्ट, जाने कितनी कंपनियां बिफोर और ऑफ्टर की लुभावनी तस्वीरें दिखाकर मोटे लोगों की भावनाओं से खेलती हैं। बड़े उत्साह के साथ लोग जाते हैं, लेकिन ज्यादातर निराश होकर लौट आते हैं।
मैंने अपनी पोस्ट में कभी मेरठ के होम्योपैथिक के डॉक्टर राजेंद्र सिंह का जिक्र किया था। मेरा और मेरे परिवार का भरोसा उनमें भगवान से कम नहीं है। वो भी थोड़े मोटे हैं। एक रोज मैंने कहा-डॉक्टर साहब, आपसे कभी मोटापे के इलाज के बारे में बात नहीं की, क्योंकि लगता रहा कि अगर कोई इलाज होता तो आप अपने लिए करते। डॉक्टर साहब बोले-भाई साहब आपको क्या दिक्कत है मोटापे से। आप ये क्यों सोचते हैं कि आप मोटे हैं, ये सोचिए कि दूसरे लोग दुबले हैं। आप सामान्य हैं, वो असामान्य हैं। उन्होंने सावधान भी किया-भाई साहब बॉडी केमेस्ट्री को कभी छेड़ना नहीं चाहिए।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक कामयाब लेकिन मोटे शख्स को अपनी ही डिपार्टमेंट की एक लड़की से इश्क हो गया। भाई उसका कितना ख्याल रखता, कितनी फरमाइशें पूरी करता, महंगे गिफ्ट देता, फोन रिचार्ज करवाता, क्या करने को तैयार नहीं था, लेकिन लड़की को तलाश थी स्मार्ट और हैंडसम की। एक बेहद संवेदनशील और हर तरह से लायक इंसान मोटापे की वजह से रिजेक्ट हो गया। अपनी फेहरिश्त देखिए, जरूर कुछ मोटे लोग होंगे, मोटे दोस्त होंगे। महिलाओं की मोटी सहेलियां होंगी। उनकी बिंदास बातें, खुशमिजाजी (ये मोटे लोगों में इनबिल्ट होती है) आपको कितनी पसंद आती होगी। लेकिन कितनी लड़कियों के ख्वाब में ‘वजनदार’ जीवनसाथी या प्रेमी आता है। किस ‘प्रेम प्रकाश’ के ख्वाबों में दम लगाकर हइशा की ‘संध्या’ आती है?
विकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं। व्यावसायिक भागमभाग के बीच अपने मन की बात फेसबुक पर साझा करने में जरा भी संकोच नहीं करते। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की भावना के बगैर ऐसी बेबाकी कहां मुमकिन है?
गांव से प्रेम के ढ़ाई आखर…. पढ़ने के लिए क्लिक करें