हिंदी गजल के कोहिनूर दुष्यंत कुमार

हिंदी गजल के कोहिनूर दुष्यंत कुमार

डा. सुधांशु कुमार

‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं/वो गजल आपको सुनाता हूं ।’ ओढ़ने बिछाने की शैली एवं सरल सपाट शब्दों द्वारा आम जनता से सीधा-सीधा संवाद करने वाले बीसवीं सदी के सबसे बड़े गजलकार दुष्यंत कुमार ने हिंदी गजल की दुनिया में उस वक्त कदम रखा, जब वह कठिन शब्दों की बाजीगरी के जाल में उलझी हुई अपने अंतिम दिन गिन रही थी । गजलकार महबूबा के पेंचोखम से बाहर निकलने को तैयार न थे । इधर हिन्दी काव्य में अज्ञेय और मुक्तिबोध की लक्षणा-व्यंजना सबके पल्ले नहीं पड़ रही थी । छंदमुक्त काव्य शैली सर्वस्वीकार्य नहीं बन पा रही थी । दूसरी ओर भारतीय जनमानस गुलामी , भूख , गरीबी और अंग्रेजों के अत्याचार से संत्रस्त था । इस गहन अंधकार में कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था । इसी गहन अंधकार के बीच उम्मीद की एक किरण के रूप में उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिला के राजपुर नवादा गांव में 01 सितंबर 1933 ई. को पिता चौधरी भगवत सहाय एवं माता श्रीमती रामकिशोरी देवी के आंगन में दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म हुआ । वह चौतरफा संक्रमण का काल था । आजादी की इबारत लिखी जा रही थी । भारतीय जनमानस के सपनों में रंगीन पर लग चुके थे । अंततः सत्ता का हस्तांतरण हुआ ! देश को मिली भी तो त्रासदीपूर्ण खंडित आजादी ! अपने संपूर्ण शासनकाल में फूट के सहारे इस देश को लूटने वाले अंग्रेज जाते-जाते सांप्रदायिकता का विष बो गए । भारत माता का कलेजा दो टूक हो चुका था । होश संभालते ही इन सारी विद्रूपताओं को दुष्यंत कुमार ने खुली आंखों से देखा । आजादी के दिन जैसे-जैसे बीतते गए , जनाकांक्षाएं किसी टूटे हुए कांच की तरह बिखरती चली गयी । पंडित नेहरू की मनमानी और अदूरदर्शी नीतियों ने देश को एक दूसरी तरह की समस्याओं के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया । चीनी आक्रमण , कश्मीर समस्या , विशेष समुदाय की तुष्टिकरण की कुनीति एवं भूख , बेकारी , अशिक्षा आदि में अपेक्षाकृत सुधार न होने के कारण लोकतंत्र के प्रति जनता का मोहभंग होने लगा । बाद के दिनों में श्रीमती इंदिरा गांधी के द्वारा उठाया गया आपातकाल आदि त्रासदीपूर्ण कदम ने देश व महाकवि दुष्यन्त कुमार के मानस को झकझोर कर रख दिया । स्वभावतः दर्द के इस हिमालय से , जनमानस से सीधा-सीधा संवाद करती हुई गजल की गंगोत्री निकल पड़ी -‘हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए/
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए/आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी / शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए / सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं/ सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’

यूं तो दुष्यंत कुमार को उनके पिता कलक्टर बनाना चाहते थे लेकिन उन्हें तो प्रकृति ने किसी और ही महान दायित्व के लिए बनाया था । इलाहाबाद से औपचारिक शिक्षा पूरी करने के उपरांत आजीविका और बच्चों के लालन-पालन का यक्ष-प्रश्न सामने खड़ा था , इसलिए भोपाल के आकाशवाणी में बतौर सहायक निदेशक की नौकरी कर ली । हालांकि सरकारी नौकरी करते हुए भी सरकार और उनकी जनविरोधी नीतियां इनकी गजलों के केन्द्र में रही । इसके कारण मध्यप्रदेश के तत्कालीन सरकार की ओर से उन्हें चेतावनी भी दी गयी लेकिन कबीरधर्मा व्यक्तित्व दुष्यंत कुमार ने कभी उन धमकियों को गंभीरता से नहीं लिया । बेबाकी के साथ वह प्रश्न खड़े करते रहे -‘कैसी मशाल ले के चले तीरगी में आप /जो भी थी रोशनी , वो सलामत नहीं रही /हमको नहीं पता था , हमें अब पता चला/ इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही । ‘ दुष्यंत कुमार की पैनी नजर देख रही थी कि आजादी के चंद वर्षों के भीतर ही किस प्रकार भारतीय नुमाइंदों ने लोकतंत्र को वोट-तंत्र में बदल दिया । अल्पसंख्यकों के नाम पर तुष्टीकरण का घिनौना खेल खेला जाने लगा । जिन नीतियों के केंद्र में भारत के मजदूर , श्रमिक और भूखी-नंगी जनता होनी चाहिए थी । वे नीतियां विदेशी ताकतों के इशारों की गुलाम बनती जा रही थीं । भ्रष्टाचार का विषवृक्ष वटवृक्ष का रूप धारण कर चूका था । घोटालों का सिलसिला चल पड़ा था ।

भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान चापलूसी , लूटखसोट और तानाशाही का केंद्र बन चुका था । जो भी योजनाएं संचालित होतीं , उसका शतांश भी धरातल पर न उतरता । इन स्थितियों में अपने समय का सच्चा प्रहरी भला चुप रहने वाला कहाँ था । उसने तो स्पष्ट उद्भेदन ही कर दिया -‘यहां तक आते-आते सूख जाती हैं सारी नदियां/मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा है । ‘ इस ठहरे हुए पानी की कहानी पर बाद के वर्षों में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी मुहर लगाते हुए स्वीकार किया था कि ऊपर से जो एक रूपया चलता है वह नीचे पहुंचते-पहुंचते पन्द्रह पैसे रह जाता है । यह यक्ष प्रश्न आज भी जस का तस हमारे सामने खड़ा है और इन कारणों से दुष्यन्त कुमार आज भी कम प्रासंगिक नहीं ।

समय के साथ-साथ सत्ता का आचरण ज्यों-ज्यों दूषित होता गया , दुष्यंत कुमार की धार त्यों-त्यों पैनी होती गयी -‘कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं/ लोग गाते-गाते चिल्लाने लगे हैं / अब तो इस तालाब का पानी बदल दो / ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं / वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको /क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं / अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम / आदमी को भूल कर खाने लगे हैं ।’ आजादी के सत्तर वर्षों के बाद आज भी अधिसंख्य जनता पेट के भूगोल में उलझी हुई भूखमरी और अशिक्षा से दो-दो हाथ कर रही है और सत्ता के मचान पर बैठे हुए नुमाइंदे इनकी मौलिक समस्याओं को किसी पुरानी पेटी में बंद कर अवर्ण-सवर्ण , अगड़ा-पिछड़ा , एससी-एसटी , हिंदू-मुसलमान और वोटबैंक का घृणित खेल खेल रहे हैं । उनकी चिता की आग में अपनी तंदूर वैसे ही सेंक रहे , जैसे सन सैंतालीस से पहले गोरे सेंका करते थे । दुष्यंत कुमार ने तब जो अपनी व्यथा प्रकट की थी वह आज भी हमारी संवेदना को झकझोर रही है । पूछ रही है कि क्या आज हमारा समाज और देश रहने योग्य रह गया है ? यदि नहीं , तो किसी और दुनिया की ओर क्यों न प्रस्थान किया जाय -‘कहाँ तो तय था चराग़ाँ हरेक घर के लिये / कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये / यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है / चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये /ख़ुदा नहीं , न सही , आदमी का ख़्वाब सही / कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये..।’

दुष्यंत कुमार ने गजल के अलावा भी अन्य विधाओं में लेखनी चलाई लेकिन गजल की दुनिया के वह कोहिनूर साबित हुए । ‘साये में धूप’ , ‘एक कंठ विषपायी’ आदि लगभग एक दर्जन कालजयी कृतियों के रचनाकार दुष्यंत कुमार ने पहली बार हासिए पर पड़ी हुई गजल को विधा के रूप एक अलग पहचान दिलाई । 30 दिसंबर 1975 में अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण यह विभूति हिन्दी गजल-संसार को अलविदा कह गये । आज उनके सुपुत्र आलोक कुमार त्यागी उनकी विरासत को बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं । उनके समर्पण को साधुवाद देते हुए बीसवीं शताब्दी के सबसे बड़े गजलकार दुष्यंत कुमार को उनकी 86 वीं जयंती के अवसर पर उन्हीं की चंद पंक्तियों के साथ उन्हें कोटिशःनमन –

सच बतलाओ
तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका
क्या उनका किसी देशद्रोही से वादा था?
क्या उनकी आंखों में घृणा का इरादा था?
या उनके फटे वस्त्र तुमको भरमा गए
पांवों की बिवाई से तुम धोखा खा गए…!


डॉ सुधांशु कुमार- लेखक सिमुलतला आवासीय विद्यालय में अध्यापक हैं। भदई, मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी। मोबाइल नंबर- 7979862250 पर आप इनसे संपर्क कर सकते हैं। आपका व्यंग्यात्मक उपन्यास ‘नारद कमीशन’ प्रकाशन की अंतिम प्रक्रिया में है।