गुरु कहे- ‘घंटालों’ से निपटें, तब तो बात बने

govt school sharat

शरत कुमार

इलाहाबाद हाई कोर्ट का सरकारी स्कूलों की दशा पर आया निर्णय ऐतिहासिक है। सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का कारण नीति निर्माताओं, अधिकारियों, कर्मचारियों और शिक्षकों का भ्रष्ट तंत्र माना जा रहा है। नीति निर्माताओं और अधिकारियों के तंत्र ने अपनी ग़लत नीतियों, नाकारापन और भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए बड़ी चतुराई से सारा जिम्मा शिक्षकों पर डालते रहे हैं। समाज में एक धारणा बन गयी है कि सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का बड़ा कारण सरकारी शिक्षक हैं, जो केवल वेतन लेते हैं और स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं। बात इतनी सहज और सरल भी नहीं है।

शिक्षा का समाजवाद-3

सरकारी स्कूलों की दशा और दिशा पर गहन चिंतन आवश्यक है क्योंकि नब्बे के दशक के मध्य तक सरकारी स्कूल सीमित संसाधनों से युक्त होकर भी बहुत अच्छे परिणाम दे रहे थे, जबकि इसके बाद इनका निरंतर पतन होता गया। आखिर क्यों ? यदि इस पर मंथन करे तो इसके मूल में कुछ कारण सामने आते हैं।

सरकारी स्कूलों का मर्ज क्या है

1. स्कूली शिक्षा के नीति निर्माता, वे लोग हैं, जो जमीनी वास्तविकता से कोसों दूर हैं। सभी को शिक्षा देने की नीति के नाम पर हर बस्ती और गाँव में स्कूल खोला गया, किन्तु स्कूलों में शिक्षक मात्र एक या दो भेजे गए। एक या दो शिक्षक, एक समय पर पाँच-पाँच कक्षाओं के छात्रों को किस प्रकार पढ़ायें, इस पर कोई सोचने को तैयार नहीं।

2. स्कूली शिक्षा के नीति निर्धारण में शिक्षकों और आम जनता को कभी भी शामिल नहीं किया गया। e-क्रान्ति के इस युग में भी, किसी सरकारी वेब पोर्टल पर उनके विचारों को कभी आमंत्रित नहीं किया गया और न ही ऐसी कोई संजीदा पहल हुई।

3. स्कूली शिक्षा पर विगत दो दशकों में सर्वाधिक प्रयोग किये गए। जैसे-निर्धारित योग्यता वाले शिक्षकों के स्थान पर अप्रशिक्षित शिक्षामित्रों की नियुक्ति। शिक्षण सत्र में शिक्षकों का प्रशिक्षण। मिड डे मील में प्रतिदिन पका हुआ खाना स्कूल में दिया जाने लगा। शिक्षा से ज्यादा स्कूल मिड डे मील को लेकर ही ख़बरों में रहे हैं। बच्चों को कक्षा 8 तक फेल न करने की नीति।  (अब उसे परिवर्तित करने पर विचार मंथन चल रहा है।)

4. सरकारी स्कूलों के शिक्षक पूरे साल शिक्षण कार्यक्रम और शिक्षणेत्तर कार्य (मिड डे मील, चुनाव, जनगणना, BLO, बालगणना, भवन निर्माण, पल्स पोलियो आदि) में अधिक व्यस्त रहते हैं।

5. राजनैतिक कारणों से सरकारी स्कूलों में अवकाशों कि संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है।

6. शिक्षकों की नियुक्ति, स्थानान्तरण, अवकाश स्वीकृति, वेतनादि आदि कार्यों में अधिकारियों और संबंधित विभाग के कर्मचारियों को रिश्वत मांगने का चलन सा बन पड़ा है। ऐसे में शिक्षकों में अधिकारियों के प्रति उदासीन और असम्मानजनक भाव उभरता है। शिक्षकों में अपने कार्य के प्रति उपेक्षा का भाव पनपता जाता है।

इस सड़े गले सिस्टम में भी कुछ ईमानदार और कर्मठ शिक्षक अतिरिक्त समय देकर छात्रों को बेहतर शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। यदि माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय को लेकर हमारे नीति निर्माता संवेदनशील हो जाएं तो सरकारी स्कूलों में सुधार किया जा सकता है।

ऐसे आ सकता है बदलाव

1. एक समान शिक्षा नीति बने। सभी सरकारी स्कूलों को जरूरी आवश्यक संसाधन मुहैया कराये जाएं। शिक्षकों के समस्त पदों को योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों से भरा जाए।

2. संसाधनों के अभाव में कम संख्या वाले स्कूलों को पास के बड़े स्कूलों में समायोजित करने के विकल्प पर विचार किया जाए।

3. शिक्षकों से जब तक अत्यंत अनिवार्य न हो शिक्षणेत्तर कार्य न कराये जाएं। समस्त शिक्षणेत्तर कार्य और शिक्षकों के सेवारत प्रशिक्षण शिक्षण सत्र में न होकर ग्रीष्मावकाश में कराए जाएं।

4. सरकारी स्कूलों में अवकाश कम किये जाएं।

5. अधिकारी नियमित रूप से स्कूलों का निरीक्षण करें। जांच रिपोर्ट में सख़्ती बरती जाए और सुधारों के लिए नीति बने।

6. शिक्षकों का तीन से पाँच वर्ष में अनिवार्य स्थानान्तरण किया जाए।

7. इसके बाद भी जो स्कूल बेहतर परिणाम न दे सकें, वहाँ के शिक्षकों के साथ बैठकर विचार-विमर्श किया जाए। हर स्कूल और क्षेत्र के लिहाज से एक्शन प्लान तैयार किया जाए।

 आधे-अधूरे तरीके से माननीय उच्च न्यायालय का निर्णय लागू भी हुआ तो शिक्षा तंत्र में वो सुधार नहीं हो पाएंगे, जो हाई कोर्ट की मंशा है। तू डालडाल मैं पातपातवाले अंदाज में अधिकारीगण जिला, तहसील और ब्लॉक मुख्यालय में एकएक मानक स्कूल बनवाकर, वहीं अपने बच्चों को दाखिला दिला देंगे। ये भी हो सकता है हाजिरी सरकारी स्कूल में बने और बच्चा निजी स्कूलों में पढ़ता रहे।

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शरत कुमार। सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल कर शरत इन दिनों उत्तर प्रदेश के राजकीय इंटर कॉलेज में प्रवक्ता पद पर कार्यरत हैं। अपने पेशे के प्रति व्यक्तिगत ईमानदारी ही है कि छात्रों की आपमें अटूट आस्था है और आपको गुरु का सम्मान हासिल है।


सरकारी स्कूलों को ‘चलताऊ’ किसने बनाया… पढ़ने के लिए क्लिक करें

 

2 thoughts on “गुरु कहे- ‘घंटालों’ से निपटें, तब तो बात बने

  1. Rakesh Sharma -शरत जी को विचारपूर्ण लेख लिखने पर हार्दिक बधाई।

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