साथी विनय तरुण के नाम पर एक और आयोजन रायपुर में हो रहा है। एक बार फिर विनय की यादें ताजा हो आई हैं। विनय को समर्पित एक कविता, सचिन श्रीवास्तव ने बेहद भावुक क्षणों में लिखी थीं। आप से साझा।
ज़रा-सा फ़ासला होता है
ज़िंदगी और मौत के बीच
एक सूत भर
एक सांस भर
एक फ़ैसले का वक़्त
जिस वक्त तुमने एक जरूरी फैसले की जल्दबाजी की
ठीक उसी वक्त की बेचैनी में
हम सब अपनी-अपनी मांदों में पुरसुकून थे
तुम्हारी आखिरी सांस के साथ मुंदती आंखों में जो सपना था
वह भी बुझ गया है
अपनी पर्यटनशील रचनाधर्मिता के तले
जो बोये थे बीज तुमने
उन्हें जमीन का सीना फाड़ते नहीं देख पाओगे
अफसोस, विनय! अफसोस
हम अब भी देखते रहेंगे एक झिलमिलाती झील
जिसे निहारते थे तुम
वीआईपी रोड से
पानी की सफेद, फिर पीली और फिर हरी होती सतह
अपनी शरारती आंखों से
झांसा देते रहे तुम झील को
जो किस्से सुनती थी हमारे गौहर महल के साथ
पानी को बहलाने में माहिर थे तुम
काश, मौत को भी बहला लेते
तो यह सूनापन भरने की तरकीबें न खोजते हम
अफसोस, विनय! अफसोस
तुमने जो जिंदगी पहनी थी
उसे दिल से जीया
पत्थर-सा दिल किये रहे
भूकंप से ढही इमारतों के साये में
कराहों की टोह लेते भी
जिंदगी की बेबस हो चुकी सांसों को तुमने थाम लिया था
सामाख्याली के जंगलों में
कांपते नहीं थे तुम्हारे हाथ
जमीन के भीतर होती हलचलों के बीच कुंडी खोलने से
तुम जो खुले आसमान के नीचे बिछाते थे
महफिल दोस्तों की
और कहते थे- ‘दोस्ती एक मशविरा है
जो दिल को दिया जाता है’
कितना खुश होते थे
जिस्म पर
देखकर धूल-मिट्टी और मेहनत की लकीरें
बहते खून के बीच आखिरी वक्त में तुम कैसे धोखा खा गये
यह तथ्य तुम्हारे जाने के साथ
हमेशा के लिए बन गया रहस्य
अफसोस, विनय! अफसोस
जब तुम खामोश हुए
उस वक्त भी बहुत शोर था
तुम्हारे भीतर तो यकीनन
और बाहर बची दुनिया में भी
शर्मनार्क शर्तों को तुमने हमेशा अंगूठा दिखाया
इनकार के यकीन को तुमने बख्शी इज्जत
हमें दिया फक्र अपना दोस्त होने का
देखो तो कैसा तना है सीना
अखलाक, रंजीत, पुष्य, प्रवीण, पशुपति का
तुम देख पाते तो यकीनन हंसते
हम तुम्हारी हंसी के साथ हंसते
अफसोस, विनय! अफसोस
कोई नहीं सोचता
मौत के बारे में
तुमने भी नहीं सोचा था
इस तरह मरने के बारे में
तुम जो लकीरों में ढूंढते थे, आने वाले वक्त की चाबी
जानते थे कि किस्मत जैसा कुछ नहीं होता
रेत के टीले से विश्वास को तुम
बना देते थे आस्था की मजबूत इमारत
और ईश्वरीय धाक को काटकर
अपनी कमजोरियों के कालेपन
से उजागर कर देते थे खूंखार सच्चाइयां
तुम जो मनोविज्ञान के आसान नियमों से
पढ़ते थे भीतर की उथल-पुथल
बेबुनियाद बातों को देते थे बुनियाद
कमजोर होते इरादों को कर देते थे, मुकम्मल सफलता में तब्दील
कैसे नहीं लगा पाये गति के आसान नियम का अंदाजा
कदम कैसे भटक गये तुम्हारे
अफसोस, विनय! अफसोस
जो कराह निकली थी
भागलपुर से उसमें भीग गये
भोपाल, हैदराबाद, रांची, पटना, दिल्ली और न जाने कितने शहर
भरे-पूरे न्यूजरूमों में
खबरें कतरने में माहिर दाढ़ीदार हाथों को
लकवा मारा था तजुर्बेकार जबड़ों को, सहमे से हाथों ने अगले ही पल
भरोसा दिलाया
कि खबरें झूठी भी होती हैं
तुमने कभी झूठी खबर से नहीं किया समझौता
मौत से कैसे करते?
अफसोस, विनय! अफसोस
अंधेरे और सीलन भरे कमरों में गुजारते वक्त
बेमालूम सी गलियों में भटकते
सुनहरे दिनों की आस में
हार को धकेलते पीछे
तुम जानते थे कि हम एक दिन भूल जायेंगे
तुम्हारी मौत के साथ कुछ भी नहीं बचा है तुम्हारा
सिवाये यादों के
हमारे दिलों में कितने दिन जिंदा रहोगे
जिंदगी के कारोबार कहां याद रखने देंगे तुम्हारी मासूम हंसी
अफसोस, विनय! अफसोस
सचिन श्रीवास्तव। छरहरी काया के सचिन ने यायावरी को अपनी ज़िंदगी का शगल बना लिया है। उसके बारे में आपके सारे के सारे पूर्वानुमान ध्वस्त होते देर नहीं लगती। सचिन को समझना हो तो, उसे उसी पल में देखें, समझें और परखें… जिन पलों में वो आपकी आंखों के सामने हो या आपके आसपास मंडरा रहा हो। बहरहाल, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर समेत कई छोटे-बड़े अखबारों में नौकरी के बाद फिलहाल सचिन राजस्थान पत्रिका के साथ जुड़े हैं।
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