मृदिक व्रतेश
सरकारी और गैर-सरकारी, दो स्कूली दरबार। यहां व्यवस्था-अव्यस्था एवं सुविधा-असुविधा के अंतर का विभाजक बीज बोकर एक अद्भुत खेल खेला जा रहा है। यहां उपभोक्ता को लुभाने के लिए नित नए उपक्रम खेले जा रहे हैं। पहले तो सरकार में बैठे जिम्मेदार लोग अपने आंख-नाक-कान मूंद कर (मानकों को ताक पर रख कर) गैर-सरकारी ‘दरबार’ चलाने और जमाने की इजाज़त देते हैं। … और वे बढ़-चढ़ कर अपने छल बल और धन बल के बूते सरकारी ‘दरबारों’ को बौना साबित कर देते हैं, सरकारी ‘दरबारों’ पर तालाबंदी की नौबत पैदा कर देते हैं। तब जाकर सरकार के लोग अपनी कुंभकर्णी निद्रा से जागते हैं। कुछ न कर पाने की सृगाली (हुआं-हुआं) आवाज़ निकालते हुए मजबूरियां गिनाने लग जाते हैं।
शिक्षा का समाजवाद-7
एक अदालती आदेश ने सरकारी दरबानों को सरकारी अस्तित्व की रक्षा अपने बच्चों की आकांक्षाओं की ‘बलि’ देकर कर लेने को सचेत किया है। ये आदेश प्रथम दृष्टया अत्यंत कठिन और असाध्य रोगों के निदान के समान ही प्रतीत हो रहा है। वास्तव में शिक्षा विभाग की जर्जर व्यवस्था के जिम्मेदार भी सरकारी तंत्र से जुड़े वो अधिकारी ही हैं, जिन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई। धन कमाने और ऊपर तक हिस्सेदारी पहुंचाकर अपनी कुर्सी बचाने को ही मूल जिम्मेदारी मान लिया।
मुझे लगता है निजी स्कूलों की मिल्कियत पर अध्ययन किया जाए तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ सकते हैं। इनमें से 10 फ़ीसदी में मलाईदार पोस्ट पर बैठे अफ़सरों की हिस्सेदारी निकल आए तो कोई अचरज नहीं। अनुमान तो ये है कि धनबलि शिक्षकों और बाहुबलि प्रधानाचार्य भी 20 फ़ीसदी निजी स्कूलों से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। करीब 30 फ़ीसदी निजी स्कूल ऐसे हैं, जिनमें सत्ता और विपक्ष में बैठे नेताओं की मैनेजमेंट में हिस्सेदारी है या फिर वो इसमें दखल देने की स्थिति में रहते हैं। तो ऐसे में शोर मचाए भी तो कौन?
अदालत के आदेश को जितनी बार देखता, सोचता और समझता हूं, ऐसा लगता है मानो ये किसी व्यथित मन का आदेश हो- ” जो सड़ी-गली कंकड़ वाली दाल तुमने बनाई हो, वो खुद ही खाओ तो पता चलेगा।” ये आदेश फौरी तौर पर अच्छा तो लग सकता है लेकिन इससे शिक्षा व्यवस्था बदल जाएगी, उसकी उम्मीद कम ही है।
शिक्षा में सुधार के तीन प्रमुख कारक हैं-1. छात्र 2. शिक्षक 3. मूलभूत अचल शिक्षण सामग्री। सरकारी स्कूलों में निर्धन, किसान, मजदूर तबके के बच्चे आते हैं, जिनके पास संसाधनों का अभाव है। घर में अशिक्षा के कारण जागरुकता का पूर्ण अभाव है। ऐसे बच्चे स्कूल आ भी गए तो आधा वक़्त खेलने में गुजार देते हैं, और बाकी वक़्त मिड डे मिल को लेकर इंतज़ार में। दूसरे कारक शिक्षक की बात करें तो उसकी ज़िम्मेदारी सबसे ज़्यादा है। शिक्षक ही छात्र के तमाम दोषों को दूर कर उसे सुधार सकता है। लेकिन शिक्षक की पूरी जिम्मेदारी केवल शिक्षण ही होनी चाहिए, तमाम तरह के वो बेगार नहीं, जो उसके सिर मढ़ दिए जाते हैं। शिक्षा में सुधार के लिए तीसरे कारक में मैंने अचल सामग्री का ज़िक्र किया है। इसमें विद्यालय भवन, कक्षा, प्रार्थना स्थल, पुस्तकालय, खेल-कूद परिसर, स्टाफ रूम, प्रयोग शाला, सांस्कृतिक कक्ष इत्यादि आते हैं। श्यामपट, चॉक, डस्टर, डेस्क-टेबल, बल्ब-पंखे होने चाहिए। पीने का साफ पानी और पक्के शौचालय, लिस्ट बहुत लंबी नहीं लेकिन बेहद ज़रूरी है।
एक शिक्षक के सुझाव
1. साल में निर्धारित 220 दिन की कक्षाएं ज़रूर चलें।
2. जन्म दिवस और निर्वाण दिवस के अवकाश हटाए जाएं।
3. छात्रों की 75-80 फ़ीसदी उपस्थिति अनिवार्य की जाए।
4. तीन वर्ष के अंतराल पर ग्रीष्मावकाश में शिक्षकों की ट्रेनिंग सुनिश्चित की जाए।
5. गैर-शैक्षणिक कार्यों से शिक्षकों को हटाया जाए।
6. शिक्षकों के वेतन आदि समस्याओं का निवारण एक हफ़्ते में किया जाना सुनिश्चित हो, ताकि वो अपना ध्यान बच्चों पर केंद्रित कर सकें।
7. दूसरे विभागों में शिक्षकों से जुड़े कार्यों के लिए कोई इंतजाम किया जाए ताकि वो स्कूल छोड़ कर निजी कार्यों में न जाएं।
8. सरकारी स्कूलों में नकल रोकने के लिए सख़्त उपाय किए जाएं।
9. अंतर्विद्यालयीय या अंतर्जनपदीय एक सप्ताह के शॉर्ट टर्म कोर्स रखे जाएं, जिससे छात्रों और शिक्षकों को एक्सपोज़र मिले।
10. अधिकारियों का दौरा और निरीक्षण सुधारात्मक हो, दोष ढूंढकर अपमानित और प्रतारित करने की परंपरा बंद हो।
11. प्रमोशन समय से किए जाएं, शिक्षकों को सम्मानित किया जाए।
बहरहाल, हाई कोर्ट ने अभी सरकारी कर्मचारियों के लिए सरकारी स्कूल अनिवार्य किए जाने का फरमान जारी किया है। सुझाव तो ये है कि दूसरे चरण में प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लोगों, कारोबारियों, उद्योगपतियों के लिए भी सरकारी स्कूल ज़रूरी किए जाएं। समान शिक्षा को आगे बढ़ाते हुए निजी स्कूलों की तालाबंदी का रास्ता तय किया जाए। समेकित उपायों से ही सरकारी व्यवस्था और हालात सुधरेंगे… वरना केवल ढोल पीटने से तो ढोल ही फटेगा।
मृदिक व्रतेश। मुरादाबाद में पदस्थापित आप स्कूली शिक्षा में बदलाव के पक्षधर हैं। बदलाव के लिए ये निजी और सामाजिक पहल को ज़रूरी मानते हैं।