ब्रह्मानंद ठाकुर
आज 23 दिसंबर है यानी किसान दिवस, जो किसान नेता चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन के मौके पर मनाई जाती है, लेकिन इस बार किसान दिवस बेहद खास है, क्योंकि इस साल राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चम्पारण आंदोलन के 100 बरस पूरे हो गए । यही नहीं ये सोवियत रूस की समाजवादी क्रांति का भी 100 वां साल है । इतिहास में इन दोनों घटनाओं का काफी महत्व है। सोवियत रूस की समाजवादी क्रांति ने वहां के किसानों, मजदूरों को निरंकुश जारशाही से मुक्त करा कर एक नये युग की शुरुआत की और मोहनदास करमचंद गांधी ने चम्पारण आ कर किसानों को निलहों के अत्याचार से मुक्त कराया और यहीं से बापू को महात्मा की उपाधि दी पंडित राज कुमार शुक्ल ने, जिनकी जिद की बदौलत गांधीजी को चम्पारण आना पडा था। बापू ने किसानों के हक के लिए ये लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ गुलामी के दौर में लड़ी, लेकिन देश को आजाद हुए 70 साल बीत चुके हैं। फिर भी किसानों की हालत जस की तस है । तब भी किसान हाशिए पर था आज भी है । फर्क सिर्फ इतना है कि पहले अंग्रेज शोषण करते थे आज अपने करते हैं ।
मेरे गांव में आज लगभग 80 फीसदी किसानों ने खेती छोड़ दी है। बड़े जोतदार अपनी कृषियोग्य जमीन में आम, लीची और सागवान के पौधे लगा कर महानगरों का रुख कर चुके हैं। छोटे जोत वाले किसान कृषि उत्पादन में लगातार बढ़ती लागत के कारण अपनी जमीन भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को बटाई पर दे चुके हैं और उनके बच्चे औद्योगिक संस्थानों में मजदूरी करने निकल गये। गांव में बच गये हैं तो बस असक्त और बीमार बुजुर्ग, महिलाएं और बच्चे। इनके लिए लिए खेती अब लाभकारी नहीं रह गई। खाद, बीज, कीटनाशक, तृणनाशक रसायनों का लगातार बढ़ती कीमत, परम्परागत बीजों का विलुप्त हो जाना, सिंचाई साधनों का अभाव, पर्यावरण असंतुलन से कृषि उत्पादन पर असर और उत्पादन लागत की तुलना में किसानों को कृषि उपज का वाजिब मूल्य न मिलना आदि ऐसे अनेक कारण हैं, जिससे किसानों को खेती और पशुपालन से लगातार विमुख होना पड़ा है। मुझे अच्छी तरह याद है , 60 के दशक तक गांव के किसान बीज के मामले में पूरी तरह से आत्म निर्भर थे। हर फसल का बीज उनका अपना था। विशेष परिस्थिति में वे पास-पड़ोस के किसानों से बीज का अदला-बदली भी कर लेते थे। रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम थी ।
हरित क्रांति ने खेती का तौर-तरीका बदल दिया। इस दौरान देशी-विदेशी बीज उत्पादन कम्पनियों ने देश में बीज उत्पादन उद्योग की सम्भावना तलाशना शुरू कर दिया। तब देश में धान उत्पादन के लिए जितने बीज की आवश्यकता होती थी उसका मात्र 11.7 फीसदी ही उद्योगपतियों से खरीदा जाता था। गेहूं सहित अन्य फसलों के बीज के मामले में यह मात्रा तो और भी कम थी। समय बीतता रहा परम्परागत बीजों का स्थान बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा उत्पादित हाइब्रिड बीज ने कब लेलिया, किसानों को पता ही नहीं चला। जाहिर है परम्परागत बीजों की अपेक्षा हाइब्रिड बीज को बेंचने में बीज उत्पादक कम्पनियों को अकूत मुनाफा होता है। इन कम्पनियों का व्यावसायिक हित इसी में है कि किसान परम्परागत बीजों की जगह हाइब्रिड बीज का उपयोग अधिक करें। लिहाजा विभिन्न प्रचार माध्यमों से इन कम्पनियों ने हाइब्रिड बीज का प्रचार कर किसानों को उसकी खुशहाली का रंगीन सपना दिखाना शुरू कर दिया। किसान उनके बुने इस जाल में फंसते चले गये। आज इस जाल से निकलने का कोई रास्ता उनके सामने नहीं है। उपज तो बढ़ी लेकिन उत्पादन लागत कई गुणा बढ़ गया। खेती घाटे का व्यवसाय होकर रह गई है। स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि गांव में अब वही परिवार आज खेती से जुडा हुआ है जिसके पास जीविकोपार्जन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
आखिर यह स्थिति पैदा कैसे हुई ? क्यों कभी उन्नत माने जाने वाली कृषि आज सबसे घाटे का सौदा हो गई है। क्यों आज के किसान कर्ज के बोझ तले दब कर आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं ? इस सवाल का जवाब ना तो आजादी के ठीक बाद बनीं सरकारों ने तलाशने की कोशिश की और ना ही मौजूदा दौर में सरकारें करना चाहती हैं ।
किसानों की दुर्दशा और दरिद्रता के दो मुख्य कारण हैं। पहला कृषि उपादानों की लागत में लगातार वृद्धि और दूसरा उनके उत्पाद का लाभकारी मूल्य नहीं मिलना। किसान फसल उत्पादन में जिस रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करता है, केन्द्र सरकार ने पिछले बजट खाद सब्सिडी मद में 2438 करोड़ रूपये की कटौती कर दी। परिणम यह हुआ कि खाद के मूल्य में वृद्धि हो गई। कहने के लिए सरकार यूरिया जैसे प्रमुख खाद पर 50 हजार 300 करोड़ की सब्सिडी देती है लेकिन कालाबाजारी के गोरखधंधे के कारण इसका लाभ मात्र 35 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। सिंचाई के लिए किसान पम्पसेट पर निर्भर हैं। पम्पसेट्स चलाने में डीजल का उपयोग होता है, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी गिरावट के बाबजूद डीजल के मूल्य मे कमी नहीं की गई। पेट्रोलियम उत्पाद को जीएसटी के दायरे में नहीं लाया गया । पिछले लोकसभा चुनाव में किसानों के उत्पादन लागत में 50 फीसदी जोड़ कर न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करने का वादा किया गया था लेकिन उस वादे को आजतक पूरा नहीं किया गया।संक्षेप में कहा जाए तो आर्थिक उदारीकरण की मांग पर तैयार की गई कृषि नीति में छोटे और मझोले किसानों के हितों की अनदेखी की गई। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों का पूरा ख्याल रखा गया। इसी नीति का परिणाम है कि आज खद्यान्न फसलों की जगह नकदी फसलों के उत्पादन पर विशेष जोर दिया जा रहा है। नई आर्थिक नीति घोषित होने के कुछ ही बर्षों के भीतर मोटे अनाजों के उत्पादन मे तेजी से कमी दर्ज की गई। इसका परिणाम होगा चावल और गेहूं के मामले में आत्मनिर्भर इस देश को एक बार फिर साम्राज्यवादी देशों पर निर्भर हो जाना। आज अमेरिका तथा यूरोपियन यूनियन के देश खाद्यान्नों का विशालभंडार लेकर विश्व कृषि बाजार में हाजिर हैं। यह स्थिति हमारे देश के किसानों के लिए चिंता का कारण बन गयी है। यदि इस स्थिति से देश को बचाना है तो कृषि को अलाभकर बनाने वाली पूंजीवादी, साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ फिर से एकबार निर्णायक संघर्ष छेडने की जरूरत है। आज के किसान दिवस का यही संदेश होना चाहिए।
ब्रह्मानंद ठाकुर। BADALAV.COM के अप्रैल 2017 के अतिथि संपादक। बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर के निवासी। पेशे से शिक्षक। मई 2012 के बाद से नौकरी की बंदिशें खत्म। फिलहाल समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा में जुटे हैं। गांव में बदलाव को लेकर गहरी दिलचस्पी रखते हैं और युवा पीढ़ी के साथ निरंतर संवाद की जरूरत को महसूस करते हैं, उसकी संभावनाएं तलाशते हैं।