गांधी जी ने 1910 में दक्षिण अफ्रीका में टालस्टाय आश्रम की स्थापना की थी। यह आश्रम डरबन से 21 मील दूर था। आश्रम में उनके साथ हिंदू, मुसलमान, ईसाई और पारसी धर्म के कुछ नवयुवक और कुछ हिन्दू लडकियां रहने लगीं। अब गांधी जी के सामने एक बड़ा सवाल इन युवकों और लडकियों की शिक्षा का उठ खड़ा हुआ। हिन्दुस्तानी शिक्षकों का सर्वथा अभाव था और इस काम के लिए अलग से शिक्षक इसलिए नहीं रखा जा सकता था कि उनको इच्छित वेतन देने की गुंजाईश नहीं थी। तब वहां जो शिक्षा पद्धति चल रही थी, वह गांधी जी को पसंद नहीं थी ।
उन्होंने आश्रम के युवकों एवं लड़कियों की शिक्षा की जिम्मेदारी खुद वहन करने का फैसला ले लिया । वे उस आश्रम को अपना परिवार मानते थे लिहाजा खुद को उनके पितास्वरूप समझते थे। अब समस्या यह थी कि विभिन्न सामाजिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए इन नवयुवकों को किसतरह शिक्षा दी जाए। जहां चाह वहां राह। अपने सहयोगी मि. केलन बैक और प्राग जी देसाई के सहयोग से उन लड़के-लड़कियों को अक्षर ज्ञान का सिलसिला शुरू कर दिया गया। गांधी जी का मानना था कि शिक्षा यदि चरित्र निर्माण से जुड़ी हो तो इससे बुनियाद मजबूत होगी और शेष चीजें वे आसानी से सीख सकेंगे। यह शुरुआत आश्रम मैं रहते हुए उनकी दिनचर्या से हुई। चूंकि आश्रम में कोई नौकर तो था नहीं, इसलिए पाखाना साफ करने से लेकर रसोई बनाने, बाग में जाकर फल-फूल लगाने, गड्ढे खोदना, पेड लगाना, खेती करना, पेड़ काटना, बोझ ढोना आदि कार्य आश्रमवासी मिल-जुल कर करने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें स्वत: शारीरिक शिक्षा भी मिलने लगी।
वे उस आश्रम को अपना परिवार मानते थे लिहाजा खुद को उनके पितास्वरूप समझते थे। अब समस्या यह थी कि विभिन्न सामाजिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि से आए इन नवयुवकों को किसतरह शिक्षा दी जाए। जहां चाह वहां राह। अपने सहयोगी मि. केलन बैक और प्राग जी देसाई के सहयोग से उन लड़के-लड़कियों को अक्षर ज्ञान का सिलसिला शुरू कर दिया गया। गांधी जी का मानना था कि शिक्षा यदि चरित्र निर्माण से जुड़ी हो तो इससे बुनियाद मजबूत होगी और शेष चीजें वे आसानी से सीख सकेंगे। यह शुरुआत आश्रम मैं रहते हुए उनकी दिनचर्या से हुई। चूंकि आश्रम में कोई नौकर तो था नहीं, इसलिए पाखाना साफ करने से लेकर रसोई बनाने, बाग में जाकर फल-फूल लगाने, गड्ढे खोदना, पेड लगाना, खेती करना, पेड़ काटना, बोझ ढोना आदि कार्य आश्रमवासी मिल-जुल कर करने लगे। ऐसा करते हुए उन्हें स्वत: शारीरिक शिक्षा भी मिलने लगी।अक्षरज्ञान के लिए प्रतिदिन तीन घंटे का समय निर्धारित कर दिया गया। इसके अलावे कक्षा में तमिल, हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती और उर्दू सिखाई जाने लगी। गांधीजी तमिल और उर्दू का कुछ ज्ञान जहाज पर ही सहयात्रियों से बातचीत के क्रम में प्राप्त कर लिया था सो उन्होने तमिल और उर्दू पढ़ाने का जिम्मा खुद लिया।
गांधी जी स्वयं लिखते हैं कि इतनी ही पूंजी से उन्हें काम चलाना था और इसमें उनके जो मददगार थे, वे उनसे भी कम जानने वाले थे।लेकिन देश की भाषाओं पर उनका प्रेम, अपनी शिक्षण-शक्ति पर श्रद्धा, विद्यार्थियों का अज्ञान और सबसे बढ़कर उनकी उदारता ने उनके शिक्षण कार्य में बड़ी सहायता की। तमिल विद्यार्थी चूंकि दक्षिण अफ्रीका में ही जन्म लिए थे इसलिए उन्हें तमिललिपि का ज्ञान बिल्कुल ही नहीं था। गांधीजी उन्हें तमिल लिपि और व्याकरण दोनों सिखाने लगे। इसकी अपेक्षा मुसलमान लडकों को उर्दू सिखाना बापू के लिए बड़ा आसान था । वे उर्दू लिपि जानते थे इसलिए उन्हें अक्षर सुधारना और पढ़ने का शौक बढ़ाने पर वे काफी बल देते थे। आश्रम के सभी लड़के निरक्षर थे। गांधी जी ने अपने सतत प्रयास से उनमें पढ़ने-सीखने की ललक पैदा की। अब उनका काम केवल निगरानी करना रह गया। परिणाम यह हुआ कि विभिन्न आयु के और विभिन्न विषय पढ़ने वाले विद्यार्थी एक ही कमरे में बैठ कर पढ़ने लगे।
वे विद्यार्थी अब उनसे पाठ्यपुस्तक की मांग करने लगे लेकिन गांधी मानते थे कि विद्यार्थी का पाठ्यपुस्तक तो उसके शिक्षक होते हैं। ऐसा इसलिए कि खुद उनको शिक्षकों ने पाठ्यपुस्तकों से जो सिखाया वह उन्हें बहुत ही कम याद रहा और जो बातें जुबानी सिखाई गई थी वे सभी उनको पूरा का पूरा याद था। गांधी कहते हैं, बालक आंख से जितना ग्रहण करता है, उसकी अपेक्षा कान से सुना हुआ थोड़े परिश्रम से और बहुत अधिक ग्रहण कर सकता है। इसका प्रयोग उन्होंने आश्रम के विद्यार्थियों पर किया और पाया कि पढ़ाया हुआ याद रखने में उन्हें कठिनाई होती थी किंतु सुना हुआ वे उसी क्षण पूरा का पूरा सुना देते थे।
एक शिक्षक के रूप में गांधी छात्रों के शरीर और मन की अपेक्षा उनकी आत्मा को शिक्षित करने पर विशेष बल देते रहे। टाल्सटाय आश्रम के विद्यार्थियों को आत्मिक शिक्षण देने के अपने प्रयासों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं, इसके लिए बहुत अधिक परिश्रम करना पड़ा। आत्मा का विकास कराने में धर्मग्रंथों का सहारा लिया। ऐसा इसलिए कि विद्यार्थियों को कम से कम अपने धर्म का मूल तत्व जानना चाहिए। आत्मशिक्षण एक स्वतंत्र विषय है, यह उन्होंने टाल्सटाय आश्रम के बालकों को सिखाने से पहले ही समझ लिया था। आत्मा के विकास का अर्थ है चरित्र का निर्माण। यह ज्ञान प्राप्त करने में बालकों को सहायता की जरूरत है और इस ज्ञान के बिना दूसरा सभी ज्ञान व्यर्थ है और हानिकारक भी।
आत्मा की यह कसरत शिक्षक के आचरण से ही प्राप्त हो सकती है। इसलिए युवकों की उपस्थिति हो या न हो, शिक्षक को हमेशा सतर्क रहना चाहिए। सुदूर किसी जगह पर बैठा हुआ शिक्षक अपने आचरण से अपने शिष्यों की आत्मा को झकझोर सकता है। शिक्षक झूठ बोलते रहें और अपने शिष्यों को सच्चा बनाने का प्रयत्न करें तो वह मिथ्या होगा। डरपोक शिक्षक शिष्यों को वीरता नहीं सिखा सकता। व्यभिचारी शिक्षक भला शिष्यों को संयम सिखा सकता है ? अपने लिए नहीं, तो उनके लिए मुझे अच्छा बनकर रहना चाहिए। अगली कड़ी में — जब गांधी ने अपने एक शिष्य को रूल से मारा
सत्य के प्रयोग पुस्तक से साभार