गोली धीरे से चलइयो… ‘सरकार’!

पांच नदियों के मिलन स्थल से एक धारा चिंताओं की। फोटो सौजन्य- hindi.indiawaterportal.org
पांच नदियों के मिलन स्थल से एक धारा चिंताओं की। फोटो सौजन्य- hindi.indiawaterportal.org

बहुत दिनों के बाद पिछले दिनों गाँव जाना हुआ। मेरा गाँव बुंदेलखण्ड के दक्षिणी छोर पर चम्बल और यमुना नदी के किनारे बसा हुआ है। चम्बल और यमुना के साथ-साथ सिंध, पहूज और कॅवारी यहाँ आकर मिलती हैं। पूरे भारत में पुराने पंजाब के बाद यही एक मात्र स्थल है जहाँ पाँच नदियों का मिलन होता है। इसी भौगोलिक विशिष्टता के कारण उत्तर-प्रदेश के नक्शे पर मेरे गाँव का नाम ‘जगम्मनपुर’ उभर आता है। कभी-कभार यह नाम देखकर छाती कुछ दो इंच चौड़ी हो जाती है। हालांकि ऐसा कुछ विशेष मेरे गाँव में नहीं है जिस पर नाज किया जा सके। अलबत्ता, अपने-अपने गाँव और जन्म स्थान के बारे में कुछ अच्छा देख-सुनकर मन में हौंस-उल्लास जागना स्वाभाविक है।

कस्बे की ओर बढ़ता मेरा गाँव आज भी तमाम सरकारी सुविधाओं से महरूम है। इसे बुंदेलखण्ड का दुर्भाग्य ही कहेंगे! जबकि उत्तर-प्रदेश का ‘राजघराना’ सैफई महज साठ किलोमीटर और अखिलेश सरकार का लायन सफारी यहाँ से केवल चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यमुना-चंबल पार करते ही चौड़ी और चिकनी सड़कें, बिजली के खंबों पर जगमगाते लट्टू, स्कूलों में अध्यापक-बच्चे ओर अस्पतालों में दवा-डॉक्टर दिख जाते हैं। फिर भी ऐतिहासिक और भौगोलिक रूप से हमारे गाँव की विशेष पहचान है। संगम के किनारे एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि इस मंदिर में कभी तुलसीदास जी यमुना पैदल पार करके पहुँचे थे। यहाँ बसे साधु से उन्होंने पानी माँगा। साधु अपने छोटे से पात्र से पानी पिलाते रहे। तुलसीदास पीते रहे। न वह पात्र रीता ओर न तुलसीदास की प्यास बुझी। इसी से जुड़ी एक किंवदंती और है, कि तुलसीदास जी ने एक शंख उन साधु को दिया था जो आज भी हमारे गाँव के किले में सुरक्षित है। फिर भी न गाँव की तकदीर बदली और न तस्वीर बदली।

मेरा गाँव और आस-पास का क्षेत्र चम्बल के बागियों-डाकुओं के लिए ख्यात-कुख्यात रहा है। लाखन सिंह, मलखान सिंह, घनश्याम बाबा, फूलन देवी, बाबा मुस्तकीम, लालाराम, श्रीराम, मानसिंह, सुघर सिंह, विक्रम मल्लाह, जयसिंह, मान सिह, फक्कड़, कुसुमा नाइन, निर्भय सिंह, सीमा परिहार आदि न जाने कितने मशहूर बागी हमारे गाँव में ठहरे-गुजरे होंगे। माँ बताती है कि जिस साल (1979) मेरा जन्म हुआ था उसी वर्ष फूलन देवी ने डेढ़ सौ डाकुओं के गिरोह के साथ गर्मियों में, दिन के पाँच-साढे पाँच बजे मेरे गाँव में डकैती डाली थी। वह माइक से कुछ बोलती थी। सामने किसी पुरूष को देखकर एक थप्पड़ मारती और किसी लड़की-स्त्री को पाकर सोने-चाँदी का कोई जेवर या रूपये जरूर उसके हाथ पे रखकर पैर छू लेती। बागियों की महिमा के ऐसे ही अनगिनत किस्से मैंने सुने हैं। मेरी माँ एक ‘गारी’ (लोकगीत) सुनाती हैं- ‘गोली धीरे से चलइओ लाखन सिंह, पुलिस आय गई खेतन पे।’ इससे इन बागियों की आम जनमानस में हमदर्दी और आत्मीयता का पता चलता है।

इस बार, गाँव के नजारे कुछ और ही थे। बूढ़े-बुजुर्ग किसानों की सूनी-पथराई आँखों में न जीवंतता ही दिखती थी और न किस्से-कहानियाँ सुनाने की हुड़क। इनकी आँखें कभी आसमान की तरफ लगी होती, कभी सुदूर परदेस में, जहाँ उनके जवान बेटे कमाने के लिए गए हैं। वैसे भी इस क्षेत्र में देसी और विलायती बबूल के जंगल और मिट्टी के ऊँचे-ऊँचे टीले हैं। खेती लायक ज़मीन बहुत कम है। इन्द्र भगवान की कृपा न हो तो खेत चन्द्रमा रात में ही सूख जाते हैं। इस साल इन्द्र ने ज्यादा ही कृपा बरसा दी है! फ़सल चौपट हो गई है।

इन हालातों में गाँव के कुछ चेहरे खिल उठे हैं। इस वर्ष इन सामंत-साहूकारों की फ़सल तो अच्छी होगी ही, उनका राजनैतिक फ़ायदा भी होगा। इस वर्ष पंचायत चुनाव जो होने हैं। पंचायतीराज क़ानून बनने से पहले हमारे गांव में बड़ी शांति और सद्भाव रहता था। पिता जी कहते हैं कि हमारा गाँव इतना अच्छा है कि बाहर से कमाकर लाओ और यहाँ बैठकर सुख-चैन से खाओ। लेकिन पंचायत चुनाव की राजनीति से गाँव में वैमनस्य और गुटबाजी बढ़ गई। इससे किसानों- गरीबों का शोषण बढ़ गया। खै़र। इस साल बेमौसम बरसात ने गाँव की सामंती-वर्चस्वशाली ताकतों को एक सुनहरा मौका दे दिया है। दरअसल, बर्बाद हुए किसानों के पास इन सामंती-धन्ना सेठों के आगे दामन फैलाने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा है। उनकी सरकार दिल्ली-लखनऊ में कहाँ! गांव के ‘जातिवादी सामन्त’ के घरों में ही उनकी सरकार है। वे ही उनके माई- बाप हैं!

जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी के शोधार्थी रहे रविकान्त इन दिनों लखनऊ विश्यविद्यालय में सहायक प्रोफेसर (हिन्दी विभाग) हैं। उनसे E-Mail : [email protected] या मोबाइल- 09451945847 पर संपर्क किया जा सकता है। 


‘ दुनिया मेरे आगे’ कॉलम में भी रविकांत का ये आलेख प्रकाशित हो चुका है। साभार- जनसत्ता

2 thoughts on “गोली धीरे से चलइयो… ‘सरकार’!

  1. फेसबुक पर कुछ प्रतिक्रियाएं

    Shailendra Kumar Shukla- बहुत ही धार दार है यह लेख सर , थोड़ा और विस्तार देते जिसकी जरूरत बहुत जरूरी है ।

    Ravi Kant Chandan- Hmm dear..aage koshish karenge.darasal jansatta ke duniya mere aage colum me itna hi chhapte hai…shukriyaaa, Hausala afzai k liye…

    Anurag Pandey -बहुत ही अच्छा लेख है सर….

    Shailendra Kumar Shukla -इस काम की हम तारीफ करते हैं , यह एक सांस्कृतिक अभियान है । हम उनके आभारी हैं ।

    Ajit Priyadarshi -सच!रविकांत बागियों के इलाके के हो !भाई!अब डर लगने लगा तुम से!

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