युवा लेखकों के प्रेरणास्रोत, गालिब छूटी शराब, सृजन के सहयात्री जैसे संस्मरण, खुदा सही सलामत है, 17 रानाडे रोड और एबीसीडी जैसे उपन्यास, नौ साल छोटी पत्नी, काला रजिस्टर, जरा सी रोशनी, गरीबी हटाओ जैसी कहानियां लिखने वाले रवींद्र कालिया के निधन के साथ ही हिंदी कहानी का एक स्तंभ गिर गया। सिर्फ कहानी ही नहीं पत्रकारिता में उनका बड़ा प्रभाव रहा। कई दिनों से बीमार चल रहे रवींद्र कालिया की तबीयत 9 जनवरी की सुबह अचानक ज्यादा खराब हो गई और उसी दिन उनका निधन हो गया। कालिया के जाने के बाद उनके चाहने वाले अपने-अपने तरीके से उन्हें याद कर रहे हैं। badalav.com उन्हीं चाहने वालों में से कुछ लोगों की यादों को साझा कर रहा है।
इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम उन्हें याद करते हुए फेसबुक पर लिखते हैं- “रवीन्द्र कालिया से कभी व्यक्तिगत परिचय तो नहीं रहा लेकिन उनके लिखे का मैं कायल रहा हूं। तब भी जब हम जैसे लोग नए-नए पत्रकारिता में आ रहे थे और धर्मयुग-दिनमान समेत तमाम पत्र पत्रिकाओं में छपने वाले नामचीन लोगों की कहानियां, लेख, संस्मरण पढ़ा करते थे। उन्हीं दिनों रवीन्द्र कालिया से उनके लेखन के जरिए परिचय हुआ। बरसों पहले ‘गालिब छुटी शराब’ जब पहली बार पढ़ी थी तो उनका जबरदस्त प्रशंसक बन गया। फिर उनका लिखा बहुत कुछ पढ़ा और उनके संपादन में निकलने वाला नया ज्ञानोदय भी। कई दिनों से उनकी बीमारी के बारे में तो पता था लेकिन आज पता चला कि वो अब नहीं रहे….नमन !”
पत्रकार से फिल्म निर्देशक बने विनोद कापड़ी फेसबुक पर रवींद्र कालिया के साथ तस्वीरें पोस्ट करते हुए उन्हें कुछ ऐसे याद किया– “हिंदी साहित्य को ग़ालिब छुट्टी शराब, 17 रानडे रोड, कॉमरेड मोनालिजा, नींद रात भर क्यों नहीं आती? जैसी कृतियाँ देने वाले रविंद्र कालिया नहीं रहे। कालिया जी से आख़िरी मुलाक़ात तब हुई थी, जब वो जुलाई के महीने में “मिस टनकपुर हाजिर हो” देखने नोएडा आए थे। उस रात फिल्म देखने के बाद उन्होनें अपनी कृति “17 रानडे रोड” पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया था। मौक़ा मिला तो एक दिन फिल्म ज़रूर बनाऊँगा सर!! संभवत: यही सच्ची श्रदांजलि होगी।“
गोपालगंज के जिलाधिकारी राहुल कुमार ट्विटर पर कालिया जी को श्रद्धांजलि देते हुए लिखते हैं- “‘ग़ालिब छूटी शराब’ पढ़कर फ़िक्शन और नन-फ़िक्शन के मध्य का द्वंद्व जाता रहा था। ’17 रानाडे रोड’ एवं ‘नौ साल छोटी पत्नी’ भी रचनात्मकता के शिखर को स्पर्श करती है। किंतु जब कालिया जी के स्वयं के स्वर में ‘गौरैया’ का पाठ सुना तो लगा शिखर केवल ख्यात होना नहीं है, साम्प्रदायिकता के कुचक्र के समक्ष ‘गौरैया’ की निरीहता को कालिया जी ने चुनौती के स्तर पर खड़ा कर बिल्कुल नवीन किंतु सफल प्रयोग किया है।“
NDTV के पत्रकार रवीश रंजन शुक्ला ने रवींद्र कालिया को याद करते हुए उनसे जुड़ी बातों को विस्तार से सोशल मीडिया में साझा किया। रवीश रंजन शुक्ला लिखते हैं- रवींद्र कालिया सर आप बहुत याद आएंगे…. इलाहाबाद में ठंड की वो धुंधभरी शाम थी। जब हम साहित्यिक पत्रिका में एक लेख पढ़कर तेलियरगंज के उनके डुप्लेक्स में मिलने चल गए थे। घर के बाहर लगे नेम प्लेट पर ममता और रवींद्र कालिया लिखा देखा..दरवाजे पर लगे बेल को दबाते हुए हमें संकोच हो रहा था। घर की घंटी बजी खुद रवींद्र कालिया जी ने दरवाजा खोला। लंबा सा कुर्ता और जींस पहने शांत, सौम्य शख्शियत को देखते ही हम तीन दोस्तों में पैर छूने की होड़ लग गई। उन्होंने हल्के से मना करने की कोशिश की। हमने अपना परिचय दिया कि सर हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय के क्रिएटिव राइटिंग सेल से हैं। आपके लेख और कहानियां पढ़ते हैं इसीलिए आपसे मिलने चले आए। हंसते हुए उन्होंने ड्रांइगरूम में बैठाया। बोले सचिन तिवारी थियेटर करवाते हैं कि नहीं। मैने कहा जी..सर उनका प्ले चलता रहता है। हमारी क्रिएटिव राइटिंग सेल के हेड संजय रॉय सर है अंग्रेजी विभाग के…इतना सुनते ही उन्होंने आवाज लगाई ममता देखो कौन मिलने आया है? अगले ही क्षण ममता जी आई..बोले यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट है ये सब तुमसे मिलने आए हैं। ममता जी ने कहा बैठो मैं चाय बनाती हूं…वो हंसकर बोले ममता चाय बनाते वक्त भी कहानियां लिख सकती है। हम देखकर हैरान थे कि रवींद्र कालिया सर में न बड़े साहित्यकारों वाला बौद्धिक घमंड और न ही दूरी पैदा करने वाली चुप्पी मौजूद थी। हम करीब आधे घंटे बैठे रहे चाय के साथ रवींद्र कालिया और ममता जी से कई मसलों पर बातचीत हुई। वो बाहर तक छोड़ने आए…फिर बोले तुम लोग मिलते रहा करना। उनकी गर्मजोशी देखकर हमारे मिलने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो वो दिल्ली आकर ही खत्म हुआ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान मैंने और मेरे दोस्त राकेश शुक्ला ने एक कहानी लिखी। पहली कहानी के चंद पन्ने और उत्साह से लबरेज होकर हम सीधे रवींद्र कालिया जी के घर पहुंचे। वो बहुत खुश हुए ममता जी को बुलाया फिर बोले…क्यों न इस संडे को एक गोष्ठी करते हैं जिसमें इन लोगों की कहानी पढ़ाई जाए। ममता जी ने भी हंसते हुए अपनी रजामंदी जाहिर की। वो बोले तुम सब संडे को आओ उसी गोष्ठी में तुम्हारा परिचय करवाते हैं। हम बहुत खुश थे अगले रविवार को हम सब दोस्तों के साथ घर पहुंचे। गुनगुनी धूप में छत पर बहुत सारे साहित्कार और पत्रकार मौजूद थे। यहीं हमारी मुलाकात प्रताप सोमवंशी, ब्रदी नारायण, कृष्ण प्रताप, मृत्युंजय, सीमा शफक जैसे साहित्यकारों से हुई। हम जैसे छात्रों को प्रगतिशील विचार से रूबरु कराने का काम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से ज्यादा खुद कालिया सर ने किया। पहली बार कालिया जी ने ही कहा पैर मत छुआ करो..हमने कहा सर आपके प्रति आदर जाहिर करने का यही जरिया है हमारे पास..उन्होंने कहा मैं तुम लोगों को अपना दोस्त मानता हूं चेला नहीं। लेकिन फिर भी हम दोस्तों ने पैर छूने का सामूहिक फैसला लिया। कई कामरेड इस बात को लेकर हमसे नाराज भी हुई।
बहुत सारे मसलों पर रवींद्र कालिया अपनी राय बेबाकी और व्यवहारिकता से रखते थे। हम उस वक्त पढ़ाई पर कम और संगठन के गतिविधियों में ज्यादा ध्यान देने लगे थे। उन्होंने समझाया कि तुम लोग जिस पारिवारिक बैकग्राउंड से आए हो वहां रोजगार ज्यादा जरुरी है। मुझे याद है कि पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद जब पत्रकार बनने दिल्ली आया। तो वही एक ऐसे शख्श थे जिन्होंने हौसला बढ़ाया और आर्थिक मदद भी की। लेकिन तीन महीने दिल्ली में चप्पल फटकाने के बाद बिना नौकरी के हताश और निराश इलाहाबाद लौट आया। अगली शाम को जब उनके घर मिलने गया..उन्होंने कहा चिंता मत करो तुम पंजाब जाओ वहां अमर उजाला और दैनिक जागरण अखबार लांच हुए हैं। अच्छी हिन्दी जानने वाले युवा पत्रकारों की बहुत जरुरत है। मैं रामेश्वर पांडेय को एक चिट्ठी लिख दूंगा। मेरे अंदर आत्मविश्वास का सैलाब आ गया। तीन दिन बाद जब उस चिट्ठी को लेकर जालंधर अमर उजाला के उस वक्त के संपादक रामेश्वर पांडेय के पास पहुंचा तो वो बड़े खुश हुए। पत्र में केवल दो लाइन लिखी थी…ये मेरा होनहार साथी है यथासंभव मदद कर दें। हालांकि वहां मुझे नौकरी तो नहीं मिली लेकिन उस चिट्ठी ने पत्रकार बनने के अवसर जरुर खोल दिए।
रवींद्र कालिया जी का जन्म जालंधर में हुआ था यहीं मेरी मुलाकात दीपक पब्लिशर के मेहरोत्रा जी (नाम भूल गया) से हुई। कालिया जी ने कहा था कि वहां चले जाना वो तुम्हारे रहने-खाने का इंतजाम कर देंगे। मेहरोत्रा जी के जबानी रवींद्र कालिया जी की कई किस्से हमने सुने। कैसे इस दुकान के सामने मोहन राकेश, रवींद्र कालिया और मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह चाय पीते थे। फक्कड़ी के बावजूद कैसे रवींद्र सर ने जगजीत सिंह की मदद की थी। मेहरोत्रा जी ने बाद में मेरा दैनिक जागरण में टेस्ट करवाया फिर वहीं मुझे नौकरी मिल गई।
ये बातें हम इसलिए लिख रहे हैं ताकि लोग जाने कि रवींद्र कालिया जी हमेशा युवाओं को आगे बढ़ाने में और खुद आगे बढ़कर उनकी मदद के लिए तैयार रहते थे। मेरी उनसे आखिरी मुलाकात ज्ञानपीठ के दफ्तर में हुई। कई मुद्दों पर उऩसे बातचीत हुई..उनकी सेहत ठीक नहीं थी। लेकिन हंसते बोले खुद सीढ़ियां चढ़कर आता हूं..फिर खामोश हो गए…कुछ देर बाद बोले मीडिया अंक की एक कॉपी जरुर ले जाना..वो इलाहाबाद छोड़कर दिल्ली आ गए थे लेकिन दिल्ली के साहित्यकारों की गुटबाजी से खुश नहीं थे। वो एक ऐसी खुशनुमा शख्शियत और बेबाक रचनाकार थे। जिन्हें साहित्य के मठाधीश भले वो तव्वजो न देते रहें हो जिसके वो हकदार थे। लेकिन रवींद्र कालिया सर हमारे जैसे लाखों उन लोगों की जेहनियत में इंसानियत भरने के लिए जरुर जाने जाएंगे जो या तो उनसे मिलते रहे या उनकी रचनाओं को पढ़ते रहे हैं। रवींद्र सर हम आपको ताउम्र याद रखेंगे इसलिए नहीं कि आपने हमारा मार्गदर्शन किया बल्कि इसलिए कि आप जैसी सोच हमेशा नई पीढ़ी को पुराने अनुभवों से जोड़ती रहेगी…उनकी सोच को मांझती रहेगी..।