दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने प्रदेश कांग्रेस के लिए नई मुसीबत खड़ी कर दी है। उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया है। प्रदेश कांग्रेस में संगठन खेमे और जोगी खेमे के बीच पिछले कई महीनों से चली आ रही रस्साकशी एवं शाब्दिक विष-वमन का परिणाम अंतत: यही होना था। जोगी की प्रादेशिक पार्टी का अस्तित्व बकौल जोगी बहुत जल्द सामने आ जाएगा। इस नई राजनीतिक पार्टी के गठन की स्थिति में जाहिर है वर्ष 2018 में प्रस्तावित राज्य विधानसभा चुनावों में त्रिकोणीय संघर्ष देखने को मिलेगा, ठीक वैसे ही जैसा कि सन् 2003 में नजर आया था। तब स्व. विद्याचरण शुक्ल ने कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की बागडोर सम्हाली थी। उस चुनाव में परस्पर विरोधी दो समानांतर कांग्रेस की मौजूदगी की वजह से भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस के प्रतिबद्ध वोटों के बंटवारे का लाभ मिला और वह सत्ता में आ गई और उसे सत्ता से अभी तक बेदखल नहीं कर सकी । उसके बाद वह लगातार 2008 तथा 2013 के चुनाव हारती रही। हालांकि ये चुनाव मुख्यत: कांग्रेस और भाजपा के बीच लड़े गए थे फिर भी कांग्रेस की हार के मूल कारण थे उसका आंतरिक कलह, गुटबाजी, घात-प्रतिघात, भीतरघात और चुनाव के पूर्व ही हार की इबारत लिखने वाले प्रत्याशियों पर दांव। दरअसल साल 2000 में छत्तीसगढ़ के नए राज्य बनने के बाद जो सांगठनिक एकता जोगी के सत्ता में रहते हुए 2003 तक कायम रही वह चुनाव में पार्टी की पराजय के बाद छिन्न-भिन्न हो गई। वह खेमे में बंटी और प्रदेश पार्टी का नेतृत्व हथियाने के चक्कर में शीर्ष नेताओं के बीच जो घमासान छिड़ा वह पिछले 13 वर्षों से निरंतर जारी है। जिसकी परिणति आखिरकार कांग्रेस के एक और विघटन के रुप में सामने आ गई।
छत्तीसगढ़ में कोई तीसरी राजनीतिक शक्ति नहीं थी। कहने के लिए राज्य में कुछ राष्ट्रीय पार्टियों की प्रादेशिक इकाइयां मौजूद जरूर है लेकिन राज्य विधानसभा या फिर चुनावों में उनकी कोई चुनौती नहीं है। केवल बीएसपी ही कुछ क्षेत्रों में थोड़ा बहुत दम दिखाती है जो अनुसूचित जाति के वोटों को इधर से उधर करती है और ऐसा करके दोनों पार्टियां, खासकर कांग्रेस के चुनाव गणित को बिगाड़ती है। उसके इक्का-दुक्का प्रतिनिधि 90 सीटों की विधानसभा में पहुंच जाते है, लेकिन अब अजीत जोगी के नेतृत्व में नई पार्टी के गठन के साथ यह कहा जा सकता है कि राज्य में एक तीसरी शक्ति का उद्भव होने वाला है। यह तीसरी शक्ति कैसी शक्ल लेगी, उसका चेहरा-मोहरा कैसा होगा, उसका एजेंडा क्या होगा, रीति-नीति क्या होगी, क्या यह कांग्रेस की बी पार्टी होगी? उसका चुनावी गणित किस करवट बैठेगा, क्या गैर भाजपा या गैर कांग्रेस पार्टियों से उसका चुनावी गठबंधन होगा या फिर एनसीपी की तरह वह अपने दम पर वर्ष 2018 के चुनाव मैदान में उतरेगी, इन सबके लिए अभी थोड़ा इंतजारर करना होगा । फिलहाल कोई अनुमान लगाना मुश्किल है फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ के राजनीतिक इतिहास में तीसरी शक्ति का अभ्युदय होने लगा है ।
अजीत जोगी के कांग्रेस से अलग होने एवं नई प्रादेशिक पार्टी के गठन का फैसला अप्रत्याशित नही है। इसकी नींव तो उसी दिन पड़ गई थी जब 6 जनवरी 2016 को उनके बेटे और विधायक अमित जोगी को पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में निष्कासित कर दिया गया था। इसकी पृष्ठभूमि में अंतागढ़ टेप कांड ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य अजीत जोगी पर भी अनुशासन की गाज गिरी। प्रदेश कांग्रेस ने उन्हें भी पार्टी से निष्कासित करने की सिफारिश केंद्र को भेजी। हालांकि केंद्रीय अनुशासन समिति अब तक इस पर कोई फैसला नहीं ले सकी थी, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन करते हुए अजीत जोगी ने कांग्रेस से नाता तोड़ना बेहतर समझा । अगर ये कहें कि राज्यों का राजनीतिक भविष्य अब प्रादेशिक पार्टियों के हाथ में है तो कुछ गलत नही । इस समय 15 राज्यों में प्रदेश पार्टियों का सत्ता पर काबिज रहना इसका उदाहरण है। ऐसी स्थिति में यदि अजीत जोगी अपने लिए भी ऐसी संभावना देखते हैं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। इसलिए नई पार्टी के गठन का फैसला उन्होंने ऐसे समय लिया जब चुनाव तैयारियों के लिए उनके पास काफी वक्त पड़ा है।
छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा के चुनाव नवंबर-दिसंबर 2018 तक होन हैं। यानी अजीत जोगी को नई पार्टी का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने एवं चुनाव तैयारियों के लिए करीब ढाई साल का वक्त मिलेगा। अजीत जोगी का अनुसूचित जाति-जनजाति वर्ग के बीच खासी पकड़ है और वे जनता की नब्ज को बखूबी पहचानते भी हैं, लेकिन उन्हें लोगों को विश्वास दिलाना है कि रमन राज का खात्मा वे ही कर सकते हैं, कांग्रेस नहीं। 2000 से 2003 तक अजीत जोगी के शासन की भले ही बेशुमार उपलब्धियां रही हो, विकास की नई कहानियां उसने गढ़ी हों लेकिन इसमें दो राय नही कि अतिवाद की वजह से, अधिनायकवाद की वजह से एक बड़ी आबादी को उसने नाराज कर दिया। यह नाराजगी गाँवों में कम शहरों में ज्यादा नजर आई ।खुद अजीत जोगी की छवि एक ऐसे खलनायक की बनी जो अपने इच्छित लक्ष्य के लिए कुछ भी कर सकता था, किसी भी हद तक जा सकता था। इस नकारात्मक छवि को और तेज करने का काम मूलत: स्व. विद्याचरण शुक्ल के नेतृत्व में एनसीपी ने किया। चुनाव के पूर्व यदि उन्होंने विद्याचरण शुक्ल को साध लिया होता तो इस छवि के बावजूद सत्ता पुन: कांग्रेस के हाथों में होती। अजीत जोगी के पास वक्त बहुत है, जरूरत है तो एनसीपी की गलती से सीख लेकर भविष्य की रणनीति तैयार करने की । उन्हें सत्ता की चाबी की सत्ता तक पहुंचने के लिए रणनीति बनानी होगी, हालांकि ये इतना आसान नहीं, लेकिन नामुमकिन भी नहीं ।
दिवाकर मुक्तिबोध। हिन्दी दैनिक ‘अमन पथ’ के संपादक। पत्रकारिता का लंबा अनुभव। पंडित रविशंकर शुक्ला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र। संप्रति-रायपुर, छत्तीसगढ़ में निवास।