कुमार सर्वेश
डॉ. लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। लगता है अपने समाजवादी पितामह डॉ. राममनोहर लोहिया की इस बात को समाजवादी पार्टी में किसी ने गांठ बांधी है तो वो अखिलेश यादव हैं। अखिलेश यादव शायद पांच साल इंतजार करने के मूड में नहीं हैं। वह आर-पार की लड़ाई अभी लड़ लेना चाहते हैं। अखिलेश इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाने की तैयारी कर चुके हैं। इस लड़ाई में उनका सबसे बड़ा हथियार उनकी ऊर्जा, उत्साह, स्पष्ट सोच, बेदाग छवि, ईमानदारी, आधुनिक नजरिया और युवा वर्ग में उनके प्रति बदल रही सोच है।
इसमें कोई शक नहीं कि अखिलेश ने पांच साल में यूपी को बदलने के लिए कोई बहुत बड़े काम नहीं किए हैं, लेकिन पिछले एक-डेढ़ साल में उन्होंने यूपी के नौजवानों के मन में यह भरोसा बिठा दिया कि एक वही चेहरा हैं जो यूपी को विकास के रास्ते पर ले जा सकते हैं। उनकी राजनीतिक स्टाइल को देखकर लगता है कि एक तरफ वह नीतीश कुमार की तरह ‘सेकुलर’ चेहरे के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं, दूसरी तरफ मोदी के विकास-चरित्र को भी इस चेहरे में फिट करना चाहते हैं।
अखिलेश यादव जनेश्वर मिश्रा की स्मृतियों और आदर्शों की बाहें थामकर समाजवादी साइकिल को मुलायम के आदिम युग से बाहर निकालना चाहते हैं और उस पुरानी साइकिल को आधुनिक लुक देकर गांवों की गलियों से लेकर शहरों के राजपथ पर फर्राटे भरते देखना चाहते हैं। उन्होंने उस जनेश्वर मिश्रा की याद में लखनऊ में ट्रस्ट बनाया है जो खुद को ‘लोहिया के लोग’ कहते थे। लखनऊ में समाजवादी पार्टी के तीन मुख्य केंद्र हैं- पार्टी मुख्यालय, लोहिया ट्रस्ट और जनेश्वर मिश्रा ट्रस्ट। पिछले दिनों सबसे ज्यादा हलचल अगर कहीं रही तो वह जनेश्वर मिश्रा ट्रस्ट ही है। एक तरह से यह अखिलेश का चुनावी वॉर-रूम बन चुका है। समाजवादी पार्टी में एक तरफ मुलायम के (और शिवपाल के भी) लोग हैं तो दूसरी तरफ अखिलेश और उनके समर्थक खुद को ‘लोहिया के लोग’ कहे जाने में ज्यादा फायदा देख रहे हैं।
अब तक बड़े फैसले लेने में अखिलेश कदम-कदम पर पार्टी और परिवार के दबावों की वजह से हिचकते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दिनों से उनकी छवि फैसले लेने वाले एक ‘बोल्ड’ नेता की बनी है। अभी तक कभी शिवपाल एंड कंपनी उनके विकास के एजेंडे को पंक्चर करती रही है, तो कई बार खुद उनके पिता मुलायम सिंह यादव ही उन्हें उनके ही जूनियरों और मातहतों के सामने बोल्ड और बेइज्जत तक करते रहे हैं। अब अखिलेश इनके चंगुल से निकलना चाहते हैं और पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा खुद बनना चाहते हैं। अब अखिलेश को लगने लगा है कि मुलायम, शिवपाल और दूसरे ‘शुभचिंतकों’ की बातों में आकर अगर उन्होंने इस समय हथियार डाल दिया और पारिवारिक मोह-माया में आकर घुटने टेक दिए तो शायद उन्हें अगले पांच साल तक इंतजार करना पड़ सकता है। जबकि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं…।
युवा टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से पत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।
अखिलेश जी ने अपनी स्वयं के ताकत क एहसास तो अब.कराया है।इससे पहले उन पर अपने पिता का.वर्चस्व था ।उस वर्चस्व को तोडने की हिम्मत तो की ।अपने उत्तर दायित्व का ग्यान बहुधा हमारे संकुचित विचारों का सुधारक हो ता है।प्रेमचंद के इस उक्ति को आखिर चरितार्थ कर ही दिया ।चलिए देर आयद दुरुस्त.आयद ।
जो व्यक्ति अपने बाप का ना हो सका वह किसका होगा। केवल यादवों के बारे में सोचता है। यह समाजवाद और इसके चोचले केवल लोकलुभावन लगते हैं असलियत में इनका कोई अस्तित्व नहीं है।