अखिलेश्वर पांडेय
मौजूदा समय में लिखी व प्रकाशित हो रही कहानियों का विमर्श उनकी रचनात्मकता का सबसे बड़ा पैमाना बन गया है. सिर्फ संपादक ही नहीं बल्कि युवा कहानीकार भी इस बात को लेकर काफी सतर्क है कि प्रतिबद्धता व सरोकार बना रहे. हाल के दिनों में मैंने जिन युवा कहानीकारों को पढ़ा है, उसके आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि मौजूदा समय हिंदी कहानी का सबसे उर्वर दौर है.
वरिष्ठ कहानीकार भले ही खूब लिख रहे हों, लेकिन युवा पीढ़ी अधिक असरकारक है. मैत्रेयी पुष्पा के संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका इंद्रप्रस्थ भारती के नवंबर 2017 अंक में मनोज कुमार की कहानी ‘राजा ने कपड़े बदल-बदलकर देश का विकास किया’ पढ़कर यह बात डंके की चोट पर कही जा सकती है. यह पहली दफा नहीं है जब मनोज ने अपनी कहानी से प्रभावित किया हो बल्कि आलोचक उनकी कहानियों की प्रशंसा पहले भी करते रहे हैं. मनोज की यह कहानी मौजूदा मनुष्यता विरोधी व सृजनात्मकता विरोधी शासन व्यवस्था पर गहरा तंज है. समर्थ, नामचीन और वरिष्ठ साहित्यकारों की गहरी चुप्पी के इस दौर में ऐसी ही कहानियां रचनाकारों को यह संबल देती हैं कि साहित्य सत्ता के चलते नहीं है, बल्कि सत्ता के बावजूद है.
भ्रष्ट व्यवस्था में युवाओं की निश्चल मुस्कान गायब हो गई है. इस छिनी हुई मुस्कान के दर्द का विस्तार चंदन पांडेय की कहानी ‘भूलना’ में पाया जा सकता है. चंदन पांडेय की कहानियों से गुजरते हुए यह अहसास गहराता है कि हिन्दी कहानी धीरे-धीरे अपना चोला बदलती एक नये मुकाम की ओर अग्रसर है. अपने समय और समाज के अंतरविरोधों को उसके क्रूर चेहरे के साथ सामने लाने में चंदन की कहानियां समर्थ हैं.
सत्यनारायण पटेल की कहानी ‘न्याय’ आज की सत्ता-प्रशासन की पहचान कराते हुए इस बात को सिद्ध करती है कि यही यथार्थ हमारे समाज का यथार्थ है. यह उच्च कोटि की राजनैतिक कहानी है. ‘गम्मत’ उनकी एक ऐसी ही कहानी है जिसमें वे सत्ता-शक्ति और जनशक्ति को अलग रूप में प्रस्तुत करते हैं. सत्या की अधिकतर कहानियां हमें इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि विमर्श नहीं करेंगे तो विकास कैसे करेंगे? हमारे दिमाग के जाले कैसे साफ़ होंगे?
राकेश मिश्र की कहानी ‘गांधी लड़की’ और ‘लाल बहादुर का इंजन’ अपने कथ्य और विषय के स्तर पर उन्हें दूसरे कहानीकारों से बहुत अलग देती है. बिना शोरगुल के लिखने वाले राकेश की कहानियां में उनके अंदर की बेचैनी पाठक सहज ही महसूस कर लेते हैं.
साहित्य अकादमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित इंदिरा दांगी ने पिछले कुछ वर्षों में हिंदी कहानी में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. हाल ही में प्रकाशित उपन्यास रपटीले राजपथ में लेखिका ने बहुत सुचिंतित तरीके से साहित्य बताई जाने वाली कृतियों के पीछे की दुनिया की कारगुजारियों को उजागर किया है।
सामाजिक विद्रूपताओं की कलई खोलनेवाली तथा संवेदना के स्तर पर मनुष्यता की पड़ताल करनेवाली भावप्रवण आंचलिक कहानियों की कथाकार सिनीवाली अब किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. ‘अधजली’ कहानी के बाद सिनीवाली को उनके पाठक महिला प्रधान विषयों पर लिखने वाली लेखिका इस्मत चुगताई जैसी उम्मीदें लगाए बैठे हैं.
युवा पत्रकार और कहानीकार मज़्कूर आलम ने अपनी कहानी ‘कबीर का मोहल्ला’ में बड़ी ही संजीदगी से उन लोगों को जगाने का प्रयास किया है, जो सामाजिक ताने-बाने से बेफिक्र हैं. यह कहानी उन तमाम लोगों के लिए प्रकाश पुंज है, जिनकी आंखों पर सांप्रदायिक ताकतें काली पट्टी बांधने की कोशिश कर रही हैं.
कविता हो या कहानी, उसकी असली ताकत की पहचान प्रतिरोध से ही होती है. तीव्र दमन के इस दौर में साहित्य से ही सर्वाधिक उम्मीद है. आज के युवा कहानीकार इस बात को साबित कर रहे हैं कि साहित्य कभी भी दमन के समक्ष झुका नहीं है.
जद्दोजहद की जिंदगी में पठनियता बनाए रखना कोई हंसी- खेल नहीं है। बहुत अच्छा रुटीन है आपका अखिलेश्वर पाणडेय जी। वर्तमान युवापीढी के लिए प्रेरणादायक , अनुकरणीय भी।
शानदार रपट के लिए बधाई।