रोपिया तो हो गईल लेकिन अब पानी नइखे

गोरखपुर में धान की रोपाई। फोटो- दीपक तिवारी
गोरखपुर में धान की रोपाई। फोटो- दीपक तिवारी

सत्येंद्र कुमार यादव

माता-पिता के पास मैं रोजाना फोन करता हूं। लेकिन जिस दिन साप्ताहिक छुट्टी रहती है उस दिन रिश्तेदारों से बातचीत करता हूं। गुरुवार 14 जुलाई 2016 को मैंने अपने नाना को फोन किया । हाल चाल ले रहा था। खेती बाड़ी की बात हो रही थी । बातचीत में उन्होंने कहा “रोपिया तो हो गई लेकिन अब जमीन में पानी नइखे, पहिले की तुलना में कम पानी आवत बा, हैंडपंप से भी पानी कम आ रहा है, अगर अइसने रही त आकाल पड़ जाई और पानी बिन लोग त मर जाई, बारिश की बहुत जरूरत है। पानी नीचे जा रहा है।” नाना जी कोलकाता में इंडियन ऑक्सीजन कंपनी में इंजीनियर थे। रिटायर्ड होने के बाद गांव में खेतीबाड़ी करते हैं। बातचीत में हिंदी और भोजपुरी का इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने गिरते जल स्तर की समस्या और उसके परिणाम को दो लाइन में ही समेट दिया। वास्तव में ये विकट समस्या है। धीरे-धीरे विकराल रूप धारण करती जा रही है। राजनीतिक दलों के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है। आम लोग भी महंगाई, डीजल के अलावा इन मुद्दों को लेकर कभी सड़क पर नहीं उतरते।

13 जुलाई 2016 को मैं अपने बेटे अथर्व को एनिमेशन फिल्म दिल्ली सफारी दिखा रहा था। जंगली जानवरों की समस्या को मजेदार ढ़ंग से इस फिल्म में दिखाया गया है। कटते जंगल की वजह से जंगल के जानवर परेशान हैं। इंसानों की करतूत से उनका आस्तिव खतरे में पड़ गया है। जानवर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली पहुंचते हैं और इंडिया गेट पर प्रधानमंत्री से अपना हक मांगते हैं। वो कहते हैं “इंसानों ने हमारा घऱ उजाड़ दिया है, हम कहां जाएं”। तोते ने प्रधानमंत्री से सभी जानवरों का दर्द बयां किया। फिल्म में प्रधानमंत्री ने जानवरों के लिए जंगल बनवा दिया। लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हो रहा है। जंगल से जानवर के निकलते ही आदमखोर बोलकर मार दिया जाता है।

फिल्म दिल्ली सफाई की तस्वीर। फोटो- गुगल
फिल्म दिल्ली सफारी की तस्वीर। फोटो- गुगल

फिल्म दिल्ली सफारी का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि पारिस्थितिकी तंत्र एक दूसरे से जुड़े है। जल, जंगल, जमीन, जानवर, जीव सब एक दूसरे के लिए हैं। अगर कोई भी चेन कमजोर हुई तो परिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाएगा और उसका परिणाम भयावह होगा। अगर जंगल होते तो चाहें जितना भी जमीन से पानी निकालिए कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तो हम एक तरफ जमीन से पानी चूस रहे हैं और दूसरी ओर जमीन के अंदर पानी सप्लाई करने वाले तत्वों को खत्म करते जा रहे हैं। यानि जिस डाली पर बैठे हैं उसी को काट रहे हैं। हम जंगल काटते जा रहे हैं, बारिश नहीं हो रही है, अगर बारिश हो रही है तो जमीन के अंदर पानी जाए कैसे? सब पानी तो नदियों से होकर समंदर में चला जाता है। नतीजा जल स्तर घटता जा रहा है, पानी की समस्या बढ़ती जा रही है।

जब पानी की समस्या की बात होती है तो अक्सर हम गंगा की ओर देखते हैं और पिघलते ग्लेशियर पर चर्चा करते हैं। हम तर्क देते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि भारत में हिमालय से निकलने वाली नदियों को छोड़कर देश की बाकी नदियों में पानी कहां से आता है? ग्लेशियरों से तो इनका कोई ताल्लुक नहीं है। फिर कहां से पानी आता होगा? कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तमीलनाडु की नदियां तो चट्टानों से निकलती हैं। आखिर उनमें पानी कहां से आता होगा? अगर इस पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि इन नदियों में पानी के श्रोत किसी ना किसी रूप में पेड़, जंगल ही हैं। पहाड़ी इलाकों के पेड़ों की जड़ें काफी नीचे तक होती हैं। पेड़ अपने इस्तेमाल के लिए नीचे का पानी ऊपर की ओर खींचते हैं। उन्हीं पेड़ों की वजह से रिस रिसकर पानी पहाड़ी झरनों तक पहुंचता है। हालांकि कई जल श्रोत भी पहाड़ों में मिलते हैं। फिर झऱनों का पानी नदियों तक पहुंचता है। यानि कुल मिलाकर हमारी नदियों में बहते हुए पानी का बड़ा हिस्सा पेड़ों और जंगलों की वजह से है। अगर आप इन जंगलों को नष्ट कर देंगे तो फिर देखिएगा आपकी नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा नदियों का क्या हाल होगा? अब भी देख सकते हैं पहले की तुलना में नदियां सूखती जा रही हैं।

घटारानी: बारिश होने पर पानी की धार बहती है यहां।
घटारानी: बारिश होने पर पानी की धार बहती है यहां।

26 जून 2016 को मैं कुछ साथियों के साथ छत्तीसगढ़ में था। विनय तरुण स्मृति कार्यक्रम में शामिल होने के बाद हम लोग रायपुर के सौ किमी के दायरे में पहाड़ी इलाकों और जंगलों का दौरा किया। साथ में रायपुर पत्रिका के पत्रकार शिरिष खरे जी भी थे। सबसे पहले हम लोग घटारानी पहुंचे। बच्चे झरने में नहाना चाहते थे। हमें बताया गया था कि घटारानी में झरना है और एक पुराना मंदिर भी। हम लोग मनरेगा के तहत बनी शानदार सड़क से होते हुए घटारानी पहुंचे। वहां पता चला कि बारिश नहीं होने की वजह से झरना बंद है। वहां के लोगों का कहना था कि अब अक्सर गर्मियों में इस झरने में पानी नहीं आता। पहले थोड़ा बहुत आता रहता था । फिर क्या था, हम लोग मंदिर में भगवान का दर्शन किए, फोटों खींचवाए… थोड़ी देर तक रुके और वहां से जतमई के लिए निकल लिए।

जतमई के झरने से बूंद बूंद गिरता पानी। इतने से संतोष करना पड़ा।
जतमई के झरने से बूंद बूंद गिरता पानी। इतने से संतोष करना पड़ा।

जतमई में भी झरना है, झरने के किनारे शानदार मंदिर। खूबसूरत पहाड़ियों और जंगलों के बीच जतमई का ये मंदिर काफी मनमोहक लगता है। लेकिन वहां भी झरना सूना सूना था… हां, बूंद बूंद पानी टपक रहा था… तस्वीरों में आप देख सकते हैं। उस बूंद बूंद टपकते पानी से हम लोग हाथ मुंह धोए, भगवान का दर्शन किए.. फोटो खींचवाए और वहां से राजिम के लिए रवाना हो गए। राजिम महानदी के किनारे बसा हुआ है, जहां हर साल कुंभ का मेला लगता है। जतमई से निकलते वक्त हम यही बात कर रहे थे कि वनों को काटने की वजह से आज इन झरनों में पानी नहीं है। जो इलाका कभी सघन वन क्षेत्र था, जिसमें घुसना काफी मुश्किल था। आज ये वन क्षेत्र खाली खाली है। झरने सूख चुके हैं। जतमई का डैम भी कभी प्राकृतिक तरीके से अपने अंदर पानी रखता था, आज बारिश के भरोसे है। और इन इलाकों के लोग टैंकरों के भरोसे प्यास बुझाते हैं। यहां भी जल स्तर काफी नीचे चला गया है।

कहने का मतलब ये है कि नाना जी ने जो बात दो वाक्यों में कह दी वह बड़ा विषय है। आपके बड़े बुजुर्ग भी यही बात कहते होंगे। बड़ी समस्या है और हमारे बच्चों के भविष्य से जु़ड़ी है। ये समस्या, देवरिया, गोरखपुर, सीवान, छपरा या छत्तीसगढ़ भर की नहीं है। ये समस्या पूरे जीव तंत्र के लिए है।


satyendra profile image

सत्येंद्र कुमार यादव,  एक दशक से पत्रकारिता में सक्रिय । माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्विद्यालय के पूर्व छात्र । सोशल मीडिया पर सक्रियता । मोबाइल नंबर- 9560206805 पर संपर्क किया जा सकता है।


आदिवासियों की उपेक्षा कब तक… पढ़ने के लिए क्लिक करें