विकास मिश्रा
2000 की बात है, उस समय अमर उजाला मेरठ के प्रादेशिक हेड थे पंकज तिवारी जी। अपने अधीनस्थों के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार। मैं उन्हीं की टीम का हिस्सा था। एक साथी थे विमल (काल्पनिक नाम), मेरे पूर्व परिचित। मेरे साथ ही उन्होंने भी ज्वाइन किया था। उनकी बहन की शादी पड़ी, उन्हें लखनऊ अपने घर जाना था। काम खत्म करके वो दफ्तर से सबसे हाथ मिलाते हुए निकलने लगे। पंकज जी ने मुझे बुलाया, बोले-यार ये बताओ, इस क्रांतिकारी के पास पैसे-वैसे होंगे कि नहीं। मैंने कहा-इस तनख्वाह में क्या बचता होगा।
खैर पंकज जी ने जोरदार काम किया। बड़ा सा सादा पन्ना लिया, उस पर लिखा-पंकज तिवारी-सामने लिखा 1 हजार 1 रुपये। बोले- इस कागज को लेकर सबके पास जाओ, बोलो कि विमल की बहन की शादी है, हम सभी लोग नेग दे रहे हैं। प्रादेशिक डेस्क पर पर्चा घूमा। किसी ने 101 रुपये, किसी ने 51 तो किसी ने 500 रुपये दिए। पर्चा सिटी और जनरल डेस्क पर भी पहुंचा। कुछ लोग पंकजजी से अपना कंप्टीशन मानते थे, लिहाजा उनके सामने धर्मसंकट, पंकज जी से कम पैसे कैसे निकालें। तो दो जगह से हजार रुपये आए। घंटे भर के भीतर करीब साढ़े सात हजार रुपये जुट गए। विमल भाई को पंकज जी ने पैसे पकड़ाए, कहा-बहन की शादी में खाली हाथ क्यों जाओगे। कहने की जरूरत नहीं कि विमल भाई की आंखें भर आईं, खुशी-खुशी उछलते हुए वो दफ्तर से निकले, लखनऊ की ट्रेन पकड़ी। उस वक्त 7500 रुपये की बहुत कीमत थी, मेरी तनख्वाह भी 5 हजार रुपये ही थी।
इस घटना ने मुझे बहुत प्रेरित किया। फार्मूला मिला कि अगर किसी का दर्द कुछ लोग मिलकर बांट लें तो किसी पर भी बोझ नहीं पड़ेगा। मैं कुछ महीने बाद मेरठ में ही दैनिक जागरण में आ गया। पद, पैसा, पोजीशन बढ़ गई। एक दिन हमारे साथी अवस्थी जी के साथ गड़बड़ हो गई। अवस्थी जी की तनख्वाह बैंक में आई। दस हजार रुपये उन्होंने बैंक से निकाले, छोटे से बैग में रखकर साइकिल में टांग दिए। इधर-उधर नजर फेरे, इसी बीच कोई उचक्का उनकी साइकिल ले उड़ा। साइकिल तो गई ही, महीने की तनख्वाह भी चली गई। अवस्थी जी शाम को दफ्तर आए तो बेहद उदास थे।
मैंने पंकज जी का स्मरण किया। कागज लिया, पहले अपना नाम लिखा, आगे रकम लिखी। सभी साथियों में घुमाया। सबसे कहा कि हम सबकी तनख्वाह आई है, हमारे घरों में आज उत्सव होगा, लेकिन अगर अवस्थीजी की मदद न की गई तो इनके यहां उदासी डेरा डाल देगी। अवस्थीजी हैरान थे तो वहीं दबे सुर में मना भी कर रहे थे। खैर, पर्चा बढ़ गया, हाथ बढ़ गए। सबको तनख्वाह मिली थी, सबकी जेब गरम थी। सबने अपनी श्रद्धा और कमाई के हिसाब से अंशदान किया। अवस्थी जी को जब हमने इकट्ठा की गई रकम सौंपी तो वो उनकी तनख्वाह और साइकिल की कीमत से सौ-दो सौ रुपये ज्यादा ही थी। उस वक्त अवस्थी जी का चेहरा तो बस-‘हट पगले रुलाएगा क्या..’ वाला ही था।
दैनिक जागरण में ही एक दादा थे। मशीन सेक्शन में काम करते थे। रिटायरमेंट की उमर हो चली थी। एक रोज उनकी साइकिल गायब हो गई। साइकिल क्या थी, बुढ़ापे की लाठी थी। सुबह मीटिंग के वक्त ही वो आंखें भरे हुए आ गए, अब कैसे मना करता, पिताजी की उम्र के थे। मैंने पुलिस के एक बड़े अधिकारी को फोन मिला दिया, मित्रतापूर्ण रिश्ते थे। उनसे कहा कि आपके दफ्तर में सैकड़ों साइकिलों का जो अंबार लगा है, उसकी कहानी क्या है? उन्होंने कहा कि खबर बनानी है या कोई और बात। मैंने कहा भाई हमारे दफ्तर के एक दादा की साइकिल चोरी हो गई, तलाशने की जिम्मेदारी पुलिस की है, तो आप या तो उनकी साइकिल ढुंढवाएं या फिर अपने विशाल भंडार से उन्हें कोई अच्छी साइकिल दिलवाएं। वो बोले-आप दादा को भेज दीजिए। दादा बड़े सूरमा निकले, उनके दफ्तर गए और एक की जगह दो साइकिलें ले आए। एक अपने लिए, एक अपने बेटे के लिए।
ये पोस्ट लिखने का मकसद सिर्फ ये बताना है कि अगर दूसरों की परेशानियों में आपको कोई रास्ता सूझ रहा है तो निश्चिंत रहिए, जब आप पर कोई परेशानी आएगी, कोई सवाल उठ खड़ा होगा तो उसका जवाब जरूर सूझेगा, आप अकेले नहीं रहेंगे। लगे हाथ एक किस्सा और बता दूं। 1988 का साल था, मैं इलाहाबाद में बीए-2 में पढ़ता था, साइकिल पुरानी हो चुकी थी, बाबूजी से नई साइकिल की बात करना नहीं चाहता था। उस वक्त माघ मेले में सभी रिश्तेदार आए हुए थे। मैंने बड़े मामा से कहा-मामा साइकिल खरीदनी है, पैसे का इंतजाम कर चुका हूं, 50 रुपये कम पड़ रहे हैं। ये एक बड़ा झूठ था, खैर मामा जी ने झट से 100 रुपये दे दिए। छोटे मामा से भी यही कहा, उन्होंने 50 रुपये दिए। अम्मा, मौसी, भइया भाभी से होते हुए जब मैंने ज्ञानचंद भइया से कहा कि साइकिल खरीदने में 50 रुपये कम पड़ रहे हैं तो मैं सच बोल रहा था। मेरे पास सात सौ रुपये जमा हो चुके थे, साइकिल 696 रुपये की आई थी, वो भी रेसिंग साइकिल।
कुछ बचपन और किशोरावस्था की ट्रेनिंग, कुछ पंकज तिवारी जी जैसे उदार और बहादुर लोगों की संगति ने जिंदगी में दूसरों की मदद करने का पाठ खूब पढ़ाया। मौका पड़ने पर किसी की मदद की तो मौका पड़ने पर लोग मेरे लिए खड़े मिले। दरअसल, ये अच्छाई की खेती है, थोड़ी महंगी पड़ती है। इसकी फसल में तमाम पौधे सूख भी जाते हैं, लेकिन हमारा ध्यान सूखे हुए पौधों पर नहीं होना चाहिए, क्योंकि अच्छाई की खेती के जो पौधे हरे भरे रह जाते हैं, वो जीवन भर आपकी जिंदगी में हरियाली घोलते रहते हैं।
विकास मिश्रा। आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ संपादकीय पद पर कार्यरत। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के पूर्व छात्र। गोरखपुर के निवासी। फिलहाल, दिल्ली में बस गए हैं। अपने मन की बात को लेखनी के जरिए पाठकों तक पहुंचाने का हुनर बखूबी जानते हैं।
वाह !विकास मिश्रजी !आपका सुबह सुबह यह पोस्ट पढने के बाद यही विचार मन में आया कि जो अपने जीवन में इसे न उतारे मसलन जरूरत मंदों की मदद को आगे न आए , वह सच इंसान ही नहीं है। शुरुआत तो पंकज जी ने की थी न ?सो उनको उनकी नेक नीयत के लिए बधाई और आपने उसे अपनाया इसके लिए शुभकामना। और, चिंता भी इस बात को लेकर कि अब वह संवेदना रीत रही है, हम मशीन बनते जा रहे हैं। एक बार फिर बधाई। और वादा भी कि मैं खुद भी ऐसा करने की कोशिश करता रहूंगा।
मानवीय संवेदना हो तो बड़े बड़े सहयोग हमारी छोटी सी सहायता से संभव है। इन संवेदनाओं एवं ऐसी घटनाओं का खूब प्रचार प्रसार होना चाहिए, आज की वर्तमान पीढ़ी (एकदम युवा) में ऐसी भावनाओं की काफी कमी महसूस की जा सकती है और आने वाली पीढ़ी में में घटते क्रम को भी अभी से …….। लेखक को लाख लाख बधाईयाँ….. आपने बहुत ही सहजता से बड़ी बात कही है ।