यूपी को ‘बेस’ पसंद है !

यूपी को ‘बेस’ पसंद है !

कुमार सर्वेश

यूपी चुनाव में सत्ता के लिए बिसात बिछ चुकी है। हर कोई अपने-अपने मोहरे मैदान में उतार चुका है। अखिलेश और राहुल गांधी की युवा जोड़ी के पहले रोड शो की जोर-शोर से चर्चा हो रही है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या 2014 लोकसभा चुनाव की तरह मोदी का जादू यूपी की जनता पर चलेगा या फिर अखिलेश का ‘काम बोलता है’ सूबे की जनता पर नया जादू चलाएगा या फिर एक बार फिर यूपी की जनता हाथी पर दांव लगाएगी। अखिलेश यादव और राहुल गांधी की ताजातरीन सियासी ‘दोस्ती’ से निकला नया नारा है ”यूपी को ये साथ पसंद है”। सच में यूपी को क्या पसंद है इसे जानने की कोशिश हमेशा से दिलचस्पी का विषय रहा है। चुनाव के लिहाज से तो सपा-कांग्रेस गठबंधन का यह नया नारा आकर्षक लग सकता है, लेकिन यूपी की जमीनी हकीकत कुछ और ही है। यूपी की जनता और सियासी पार्टियों के जनाधार पर पेश है कुमार सर्वेश की ये रिपोर्ट

दरअसल यूपी को हमेशा किन्हीं दो पार्टियों के गठबंधन या दोस्ती से ज्यादा पार्टियों का ‘बेस’ (जनाधार) पसंद रहा है। 1989 तक यूपी में कांग्रेस का बेस मजबूत रहा तो लोग उसे जिताते रहे। 1989 में वीपी सिंह (जनता दल) ने कांग्रेस की बुनियाद पूरी तरह हिला दी। 1991 में बीजेपी रामलहर के रथ पर सवार होकर अपने दम पर सत्ता में आई। 1993 आते-आते समाजवादी पार्टी और बीएसपी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने बेस को मजबूत कर लिया। बाद के चुनावों में जिस पार्टी का बेस मजबूत रहा, यूपी की जनता उसे ही सत्ता-देवी का दर्शन कराती रही।

1991 में बीजेपी को जो जनाधार हासिल था, बाद में वह उसे बढ़ा नहीं पाई। 1993 आते-आते समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने बीजेपी के भगवा जनाधार में सेंध लगा दी थी। दोनों क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने पारंपरिक जनाधार को मजबूत करने के बाद बीजेपी और कांग्रेस के पारंपरिक जनाधार में सेंधमारी और भीतरघात को ही अपना ‘मुख्य एजेंडा’ बना लिया। जाहिर है यह जनाधार जातिगत और सांप्रदायिक था। दोनों को बारी-बारी से इसका फायदा भी मिला। कांग्रेस तो मरणासन्न थी ही, बीजेपी भी सपा-बसपा के इस खेल को समझ नहीं पाई। जब तक समझती, काफी देर हो चुकी थी। बीजेपी का बेस वोट उसके पाले से खिसक कर सपा-बसपा में बंट गया।

बीजेपी 221 सीटों (1991 में) से गिरते-गिरते 2012 के विधानसभा चुनाव तक 47 सीट पर सिमट गई। हां, 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी के एक छोर सोनभद्र से लेकर दूसरे छोर सहारनपुर और गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक मोदी की सुनामी चलने के बाद उसे अपना खोया जनाधार वापस पाने की उम्मीद जरूर जगी है। कांग्रेस अपनी रही-सही प्रतिष्ठा को 1991 में ही महज 46 सीट पाकर खो चुकी थी। समाजवादी पार्टी और बीएसपी अपने जनाधार को बचाए रखने में सफल जरूर रहीं लेकिन इस बार दोनों ही पार्टियों के रणनीतिकारों को खुद पता नहीं चल पा रहा है कि मोदी के आने के बाद 2017 तक इनका जनाधार बढ़ा है या खिसका है। अगर इनका बेस वोट कम हुआ हो तो फिर किसकी तरफ शिफ्ट हुआ है? ज़ाहिर है इसका फायदा उसे मिलेगा जिसने पिछले दस या कम से कम पांच सालों में अपने बेस को मजबूत करने में लगाया होगा। तभी यह पता भी चल पाएगा कि यूपी को अखिलेश और राहुल का ‘’ये साथ पसंद है” या नहीं।


kumar sarveshयुवा टीवी पत्रकार कुमार सर्वेश का अपनी भूमि चकिया से कसक भरा नाता है। राजधानी में लंबे अरसे से पत्रकारिता कर रहे सर्वेश ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की है। साहित्य से गहरा लगाव उनकी पत्रकारिता को खुद-ब-खुद संवेदना का नया धरातल दे जाता है।