शिरीष खरे
उम्मीद की पाठशाला एक किताब भर नहीं बल्कि एक दस्तावेज है, जिसमें गोवा, महाराष्ट्र, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ के दूर-दराज के अंचलों से शिक्षा में नवाचार व बदलाव के लिए कार्य करने वाले सरकारी स्कूलों की कहानियां हैं। मैंने एक दशक से भी अधिक समय में अलग-अलग क्षेत्रों के सौ से अधिक स्कूलों का भ्रमण किया और इनमें से कुछ उत्कृष्ट लेकिन अनकही कहानियों को चुना है। मुख्यधारा के मीडिया समूह और गैर-सरकारी संस्थानों के अलावा अपने व्यक्तिगत प्रयासों से कई दुर्गम इलाकों के स्कूलों की यात्राएं कीं और बदलाव के पीछे के मुख्य कारणों पर विस्तृत विवरण तैयार किए। मेरा अनुभव है कि इन स्कूलों ने शिक्षकों, बच्चों, पालकों, गांवों, समुदायों, पंचायतों, अधिकारियों और सामाजिक समितियों की मदद से एक मजबूत गठबंधन बनाया है। साथ ही, इन्होंने अपनी भूमिका से आगे बढ़कर ‘आदर्श-शाला’ की संकल्पना को भी विस्तार दिया है।
शिक्षा के निजीकरण के दौर में जब सरकारी स्कूल वंचित वर्ग के बच्चों के स्कूल के रूप में जाने जा रहे हैं, तब इन स्कूलों ने अपने सीमित साधन-संसाधनों के बूते कई बड़ी बाधाओं को पार किया और लगभग हर मानक पर अपना अग्रणी स्थान बनाया है। कुछ स्कूलों ने अपने उपक्रमों के माध्यम से सफलता की नई कसौटियां तैयार कीं और अपने संघर्ष को एक नई दृष्टि से देखने का आग्रह किया है।इस पूरी प्रक्रिया में जहां बच्चों ने भविष्य के नागरिक बनने का प्रशिक्षण हासिल किया, वहीं समाज ने सामूहिक सहयोग की आंतरिक शक्ति को पहचाना है। इसके निष्कर्ष बच्चों सहित पूरी की पूरी स्कूली कार्य-प्रणाली और अपने आसपास की दुनिया में आ रहे परिवर्तन को रेखांकित करते हैं। असल में, यह पूरा दस्तावेज ही एक साक्ष्य है कि किस तरह आम भारतीय परिवार के बच्चे न्यूनतम पैसा खर्च करके भी एक मूल्यपरक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। आखिरी ध्येय यही कि एक बार फिर सरकारी स्कूलों पर सबका भरोसा लौटे और इन स्कूलों से जमा उत्साहवर्धक की पंक्तियां अन्य सरकारी स्कूलों तक प्रेरणाएं बनकर पहुंचें।
इन पंक्तियों में प्रेरणा के कई सूत्र हैं। जैसे कि समाज ने भले ही कई पीढ़ियों से एक बिरादरी को मुख्य बसाहटों से बेदखल कर दिया हो, फिर भी उसी बिरादरी के बच्चों ने अपनी अथक मेहनत से एक अलग पहचान बनाई है। इसी तरह, विकास की बड़ी अवधारणा ने भले ही असंख्य विस्थापित बच्चों से उनके पढ़ने के ठिकाने छीन लिए हों, फिर भी एक स्थान पर आदिवासियों ने अपनी परंपरा के अनुकूल शिक्षा का मॉडल तैयार किया है।वहीं, कुछ स्कूलों ने अपने पाठ्यक्रम को आधार बनाते हुए स्थानीय स्तर पर नशा-मुक्ति, वृक्षारोपण, जल-संरक्षण, यातायात-संचालन, स्वच्छता, श्रम-दान और लिंग-समानता से जुड़े कई बड़े अभियान चलाए हैं।
कुछ स्कूलों ने अपने शिक्षण के तौर-तरीके बदलकर जातीय और भाषाई भेदभाव की दीवारों को तोड़ा है। कुछ स्कूलों ने अपनी कार्य-शैली को लचीला बनाते हुए कक्षा में बात न करने वाले बच्चों को नृत्य, गीत, संगीत, कविता-पाठ, कहानी-पाठ और नाट्य जैसी विधाओं में पारंगत बनाया है।कुछ स्कूलों ने बच्चों को उनकी क्षमता और जिम्मेदारियों से अवगत कराते हुए सामाजिक व्यवहार का अभ्यास कराया है। यही अभ्यास उनके लिए अपने दोस्त या दादा के साथ विवाद सुलझाने में सहायक सिद्ध हुए हैं। कुछ स्कूलों ने रचनात्मक कार्यों से अपने परिसर को दर्शनीय स्थलों में रूपांतरित कर दिया है। कुछ ने उन वीरान जगहों पर शिक्षा की अलख जगाई है, जहां तक आम तौर पर बाहरी दुनिया का कोई आदमी नहीं पहुंचता।
सरकारी शिक्षक इस सकारात्मक ऊर्जा के प्रमुख वाहक हैं। इन्होंने अपनी छोटी-छोटी प्रयासों से बच्चों के साथ-साथ अन्य लोगों के सपने भी बांधे हैं। इन्होंने ही बदलाव के रास्ते ‘उम्मीद की पाठशाला’ बनाई है।
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।