संध्या कश्यप
दुनिया से जीती, जीती खुद से हारी …बस ध्वस्त खड़ी हूँ मैं …!!!
स्वानंद किरकिरे की ये पंक्तिया कितनी सटीक और सार्थक है नारी के सन्दर्भ में। नारी को अगर कोई हरा सकता है तो वो है उसका “अपना आप”। नारी कभी कमज़ोर होती है तो वो खुद से, नारी कभी विचलित होती है तो भी अपने ही द्वन्द्व से। नारी कभी पथ भ्रमित होती है तो भी अपनी विवशता से, नारी को चलाने वाली भी वो स्वयं है और रोकने वाली भी ! वो सीता भी खुद से है और द्रोपदी भी खुद से। आदिकाल से वर्तमान तक कुछ भी देख लो, जब जब जग इस पर हँसा है, इसने इतिहास रचा है। जब ये देने पर आती है तो आकाश से उतर कर धरती पर बहने लगती है और जब लेने पर आती है तो यमराज तक से अपने पति के प्राण वापस ले आती है। जब विवश होती है तो भरी सभा में वस्त्रहरण झेल जाती है, जब ज़िद्द पर आ जाती है तो कौरवो और पांडवों के विध्वंस की महाभारत लिख देती है, जब चपलता, चंचलता, अधीरता पर आती है तो जंगल में सोने के हिरन की हठ करती है और ठहराव, स्थिरता पर आती है तो सोने की लंका में भी राम-राम रटती है।
जब देश में नारी सशक्तिकरण का बिगुल हर चैनल पर गूंज रहा था, जब प्रधानमंत्री ‘बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ’ और ‘सेल्फी विथ डॉटर्स’ जैसी योजनओं पर करोड़ों रुपया कोड़ियो के भाव बहा रहे थे। हर गली नुक्कड़ पर ‘नारी आयोग’ के नाम पर संस्थाएं सरकारी कोष से पैसा जुगाड़ रही थी। जब सरकार हर रसोईघर को धुआंरहित करने के लिए गोबर गैस को एल.पी.ज़ी से रिप्लेस कर रही थी। जब एकता कपूर डेली सोप में एक नई तरह की नारी के प्रसव में अपनी पुरज़ोर कोशिश कर रही थी। जब कवि मोर्चो पर थे और चाय पर चर्चाएं आम थी, तब भी नारी की एक पूरी की पूरी जमात अपनी “सोच के शौच” से परास्त थी, पूरी तरह निढाल थी…!
बात है 5 मई 2016 की , गोरखपुर से लखनऊ तक का सफ़र लोकल बस से। बस में कुछ 4-6 औरतें थी जो एन्ड टू एन्ड सफ़र कर रही थी, बाकी ज्यादातर चढ़ उतर रही थी…क्यूंकि सफ़र 6-7 घंटों का था इसलिए बस 2-3 जगह जलपान के लिए रुकी…! गर्मी के कारण खाने पर तो किसी का ध्यान नहीं जा रहा था पर पानी और कोल्डड्रिंक लोगों को लुभा रहे थे। सफ़र के दौरान खाने पीने का और अख़बार -मैगज़ीन खरीदने का अपना अलग ही एक आनंद होता है ! लेकिन जो सबसे ज्यादा दुखदाई होता है सफ़र में वो होता है “नेचर्स कॉल”, मतलब ‘मल-मूत्र’ जाना…जितना इन्टेक होता है उतना निष्कासन भी अनिवार्य है, जो कि पुरुषों के लिए कभी भी शायद उतना जटिल नहीं रहा, जितना औरतो के लिए। शहरों में आपको आसानी से सुलभ शौचालय मिल जाया करते हैं, जिन्हें अत्यन्त आपातकाल में नाक पर कपड़ा रख कर, उबकाते हुए इस्तेमाल किया जा सकता है, मगर ग्रामीण इलाकों में आपको अँधेरा होने का इंतज़ार करना पड़ता है या कोई ऐसा कोना ढूँढना पड़ता है जहाँ से कोई आपको देख न सके और आपकी लाज बची रही ।
मुझे आज तक नहीं समझ आया कि अगर कोई किसी स्त्री को ऐसे मौकों पर देख लेगा तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा…. खैर ये लम्बी बहस है, जिसके हर तर्क पर एक कुतर्क पेश किया जा सकता है ! मैं रास्ते में जितना हो सके उतना कोशिश करती हूँ कि सुलभ शौचालय का प्रयोग न करूँ, जिसका एकमात्र कारण है वहां की गंदगी। …और खासकर ऐसी जगह जहाँ सुलभ तो छोड़ो शौचालय तक उपलब्ध नहीं, मैं गंतव्य तक पहुंचने का इंतज़ार करती हूँ। मगर जो चीज़ें प्राकृतिक हैं उन पर कब तक काबू पाया जा सकता है। कोई 3.5 घंटे बाद बस एक जगह रुकी जहाँ कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त था और शौचालय भी था। लेकिन फ़िर भी उतरते के साथ ही सभी पुरुषों ने जगह देख कर खुद को हल्का कर लिया और औरतें अपने लिए कोना और झाड़ियां ढूंढ़ने लगी!
मगर मैं झाड़ियों की बजाय कोई बेहतर ऑप्शन देख रही थी, जो नज़र घुमाते ही मिल भी गया …”सुलभ शौचालय”, क्योंकि पानी के टैब्स उसी तरफ उपलब्ध थे, तो ज्यादातर आदमी उसी तरफ खड़े थे और औरतें उसी तरफ आ रही थी…. मैं शौचालय की तरफ बढ़ रही थी और मौजूद नज़रें मुझे संदिग्धता से ताड़ रही थी। जब मुझे ये लगा कि मुझे घूरा जा रहा है तो मैंने एक सरसरी नज़र से खुद को देखा और इत्मीनान किया कि ना तो मैंने ऐसा कुछ पहना था और ना ही ऐसा कुछ किया था जिसमें कोई आपत्ति हो। मैंने सभी को अनदेखा कर दिया और आगे बढ़ी, तभी मुझे एक आवाज़ आई …”यूज़ करने के 5 रूपये लगेंगे”, जो मेरे लिए सहज़ मगर शायद उसके लिए उतने ही असहज थे। मैं अंदर बढ़ रही थी और सोच रही थी कि उसे ये कहने कि ज़रूरत इसलिए पड़ी होगी क्योंकि शायद लोगों को पता नहीं होगा कि शौचालय प्रयोग के भी पैसे लगते है। अंदर गई तो पहली बार देखा एक “सुलभ शौचालय”, किसी सोफेस्टिकेटेड घर के वाशरूम जितना साफ़ था। जिसका एक मात्र कारण बिना किसी सेकंड थॉट के बताया जा सकता है कि उसका इस्तेमाल ना के बराबर किया जाता है। जब मैं बाहर निकली तो आलम वो ही था जो लोग वहां खड़े थे वो उसी तत्परता से मुझे घूरे जा रहे थे, जिसमें ज्यादातर महिलाएं थी। एक बार मन हुआ कि पूछ लूँ, लेकिन फ़िर मेरी भीतर के वो कुटिल स्त्री निकल कर बोली “मेनू क़ी” ?
मैं वाटर टैब पर हाथ मुंह धो रही थी कि एक 13-14 साल कि लड़की आकर अपनी माँ से बोली, वहां आदमी खड़े हैं और उसे पैड बदलना है। जिसके जवाब में माँ ने इधर-उधर नज़र घुमा के एक और झाड़ी की तरफ़ इशारा कर दिया और उसका वो इशारा मेरे लिए प्राणघाती हमले के जैसा था, मैं बहुत इरिटेट हुई और खिसियाते हुए मैंने उसे कहा सामने वाशरूम है वहां जाओ और कर लो जो भी करना है। मेरी बात सुनकर वो शर्मा गई, जैसे मैंने कहा हो मेरे सामने ही कपड़े बदल लो …। आखिर वो झाड़ियों में ही गई और मैं देखती रह गई। इस घटना के बाद उन औरतों ने मुझसे कुछ-कुछ बातें शुरू की ….तो मैं कहाँ से आई हूँ, कहाँ जा रही हूँ और मेरी सास जीन्स पहनने पर कुछ नहीं कहती, जैसी तमाम बातों की जानकारी ले कर वो औरतें आपस में बतियाने लगी ….।
मैंने बेहद खुले शब्दों में उनसे से पूछा की आपने अपनी बेटी को शौचालय का प्रयोग क्यों नहीं करने दिया ….और उसके जवाब ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया… “उसमें जाने से असुधि (अशुद्ध) हो जाता है और कभी कभी तो बच्चा भी नहीं होता आगे जाकर …”। ये एक और प्राणघाती हमला हुआ मुझपर। मैं दंग रह गई उसकी दलील पर ….कौन सी दुनिया में जी रहे हैं ये लोग ? वाशरूम जाने से अशुद्धि ? मैंने तो सुना है एक नयी दुल्हन ने अपना घर इसलिए छोड़ दिया क्यूंकि उसके घर में शौचालय नहीं था ….तो फिर ये स्त्रियां क्यों इतनी दयनीय स्थिति में है ? मगर मुझे उन पर दया से ज्यादा गुस्सा आया, क्यों ये औरतें अपने ही बनाए दायरों में इतनी कैद है ? दुनिया चाँद पर है और वो शौचालय पहुंचने में डरती है, जब दूसरे ग्रह पर जाकर आदमी अशुद्ध नहीं होता तो…।
सफ़र लगभग खत्म होने वाला था और मैं उन्हें इतना ही कह पाई कि शौचालय में जाने से कोई अशुद्ध नहीं होता, कोई पाप नहीं लगता… बच्चे पैदा होने का शौचालय से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि शौचालय प्रयोग से उनका स्वास्थ्य सुधरेगा और वो किसी आकस्मिक खतरे से भी बच पाएंगी। तभी एक और आवाज़ आई कि शौचालय जाने के लिए पांच रूपये लगते हैं …और इत्ते पैसो में 2 किलो गेहूं पीसा जाता है, 1 दर्जन चूड़ी आ जाती है, ज़रूरत पड़ने पर खुला नमक और गोल्डी मसाला भी मिल जाता है 5 रूपये में । दरअसल, वो चार औरतें कपड़ा ले कर घर घर बर्तन बेचती हैं और गुज़र बसर करती है । यकीं मानिये उसके बाद मेरे लिए कहने के लिए कुछ नहीं बचा था …क्या कहती मैं उन्हें और किस मुंह से कहती, कि जिनकी अपनी गृहस्थी इतनी खींच-तान के चलती है वो “सुलभ शौचालय” के मेंटेनेंस का शुल्क चुकाए?
संध्या कश्यप, पेशे से एक एमएनसी में स्पोर्ट मैनेजर है। दिल्ली में रहती हैं।
स्वीकार कर लेना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें यदि एक बार हम प्रवेश हो गये तो निकलना असंभव सा होता है, हम जिस स्तर पर होते हैं, हमे दुनिया भी उसी स्तर की दिखाई पड़ती है, और नीचे वाला व्यक्ति ये मान कर चलता है की यदि उसने अपनी विवशता को दूसरों के सामने उजागर किया तो उसका सम्मान खतरे में पड़ जायेगा, अतः क्यों ना इसे मान्यताओं के चोले से ढँक दिया जाये, यदि अन्वेषण करेंगे तो पाएंगे मान्यताएं और विश्वास सामाजिक स्तर को संरक्षित करने का माध्यम ही हैं, इसलिए मान्यताएं ख़राब नहीं होती, परिस्थितियां खराब होती हैं, गाँव में शौचालय के लिए मिले पैसो से किसी की दुकान खुल जाती है, किसी का बेटा पढने चला जाता है, तो हम आप स्वयं तय कर लें की शौचालय महत्वपूर्ण है या जीविका………….