बाज़ार के क्रूर दौर में नई उम्मीद है तमाशा-ए-नौटंकी

बाज़ार के क्रूर दौर में नई उम्मीद है तमाशा-ए-नौटंकी

सुमित सारांश

“तमाशा-ए-नौटंकी” कला की एक विधा को बचाने की मौलिक कोशिश है। 19वें भारत रंग महोत्सव में “तमाशा-ए-नौटंकी” का मंचन बहुत हद तक उस कोशिश में कामयाब नज़र आता है। नाटककार, निर्दशक और इसके तमाम कलाकार दर्शकों तक ये बात बखूबी पहुंचाते है कि नौटंकी की मूल आत्मा क्या थी और अब वो क्यों फूहड़ता के चश्मे से देखी जाने लगी है। नाटक देखते वक्त जो पहली बात जेहन में आती है वह यह है कि “ये आधुनिक दौर कलाओं को लेकर भी बहुत क्रूर है”। पुराने दौर की पहचान रहीं कलाएं अपने वजूद की लड़ाई लड़ रही हैं। यह वह दौर है जब सब कुछ एक उत्पाद है, जिस पर प्राइस टैग है और वह बाज़ार में बिकाऊ है। जिसका बाजार नहीं है वह बस हाशिए में है या यू कहें अपनी ‘मौत’ के इंतज़ार में है। नौटंकी जो उत्तर भारत की लोकप्रिय नाट्य शैली रही है, अब आर्ट फॉर्म के तौर पर खुद का वजूद बचाए रखने की लड़ाई लड़ रही है। “तमाशा-ए-नौटंकी” सिर्फ नौटंकी के संघर्ष की कहानी नहीं है बल्कि हर उस विधा की कहानी है जो आज हाशिये पर है।

नाटक की शुरुआत नौटंकी के उस स्वर्णिम युग से होती है, जब ये जीवन में रचा बसा करती थी। फिर आप नौटंकी के उस स्वरूप से वाकिफ होते हैं जिसमें यह जीवन और समाज के हर आयाम, चाहे वह जाति हो, धर्म हो, लिंग हो को समेटने की कोशिश करती है। और ये बात पुख्ता तरीके से रखती है कि नौटंकी की दुनिया में मजहब या जाति जैसे बंटवारे नहीं होते- नौटकी में बस दो ही जमातें हुआ करती हैं- एक कलाकार और दूसरा बेकार। जैसे-जैसे नाटक बढ़ता है वैसे-वैसे यह नौटंकी की विरासत, उसकी यात्रा और समानांतर दुनिया से रूबरू कराता है, जिससे आज की युवा पीढ़ी शायद ही वाकिफ हो।

नाटककार मोहन जोशी ने कला और कलाकार की ऐसी दुनिया बुनने की कोशिश की है, जो निश्छल और चंचल है, जहां हर किसी का दिलोंजान से इश्तेकबाल किया जाता है। सपनील सी लगने वाली इस दुनिया को बेशक हम यूटोपीयन समझते हों, लेकिन ये नाटक बड़ी आसानी से बताता है कि वो कोई यूटोपिया नहीं, बल्कि खूबसूरत हकीकत है, बस उसे जीने की जरुरत है। नाटक एक ऐसा यूटोपिया गढ़ता है जिसमें आप और हम एक बार जरुर जीना चाहेंगे। पर शायद यह यूटोपिया हो ही न, बल्कि उस समय समाज की ही एक तस्वीर हो ,जो आज धुंधली हो चली है और यूटोपिया जान पड़ती है।

निर्देशिका और नाटककार ने नौटंकी की आत्मा को बखूबी समझा है, इसलिए वो कथा में हास्य और मनोरंजन के पलों को करीने से गढ़ने के साथ साथ नौटंकी की गंभीरता को सामने रखने में सफल होते हैं। इसलिए नाटक, नौटंकी की कहानी कहते-कहते कब ये खुद नौटंकी बन जाता है, आपको पता भी नहीं चलता है। हास्य और मनोरंजन के बावजूद विषय की संजीदगी हर वक़्त आपके जेहन मे रहती है। तमाशा-ए-नौटंकी सिर्फ अपनी कहानी नहीं कहती, बल्कि समाज के अलग-अलग तबकों, पुरुष-स्त्री के बीच भेद की कहानी भी साथ साथ सुनाते चलती है। उसके हर पात्र समाज की असल तस्वीर सामने लाने की कोशिश करते हैं। पात्रों की कोशिश रहती है कि जो समाज में है और क्या होना चाहिए ये बताया जाए।

नाटक का दूसरा भाग उन चुनौतियों को दिखाता है, जो बदलते वक्त के साथ नौटकी के सामने आ खड़ी हुई है। टेलीविजन, सिनेमा और मनोरंजन के दूसरे साधन नौटंकी के लिए वैसी चुनौतियां खड़ी कर रहे हैं, जिसके लिए शायद वह तैयार ही नहीं थी। पर नाटक बड़ी साफगोई से नौटंकी की अपनी कमियों को स्वीकारता है। दो पीढ़ियों के बीच के फासले को पाट नहीं पाने की अपनी कमी को भी बड़े दिल से स्वीकारता है। नाटक चरम पर तब पहुंच जाता है, जब उसके पात्र इन तमाम मुश्किलों के बावजूद बाज़ार में कला को शर्मसार होने के लिए नहीं छोड़ते, बल्कि उसकी मूल आत्मा बचाए रखने के लिए सब कुछ दांव पर लगाकर भी संघर्ष का इरादा जाहिर करते हैं।

संगीत और ध्वनि इस नाटक के नहीं दिखने वाले पात्र हैं, इन्होंने उन शब्दों को बयां किया है जो शायद लिखे या बोले नहीं जा सकते थे। पात्रों में सब का काम सराहनीय है। लेकिन राशिद, जुग्गन, सोनकली और गुल्लोरानी के पात्रों को क्रमशः अनिरुद्ध, शिव प्रसाद, स्नेहा और देबरती ने जैसे जिया है वह अदभुत हैं। बाईजी की भूमिका में संगीता टिप्ले भी नौटंकी की आत्मा का एहसास कराती हैं। नाटक की एक लाइन है कि “कलाकार पात्र निभाना नहीं जीना चाहता है”, यह लाइन शायद इन जैसे कलाकारों के लिए ही है।


सुमित सारांश। दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के विद्यार्थी। कला-संस्कृति में गहरी दिलचस्पी।