हिलता-खिलता-मिलता-जुलता आया होली का त्यौहार। नाचे तन-मन, नाचे जीवन नाचे आंगन, नाचे उपवन रंग-बिरंगी ओढ़ चदरिया धरती लाई नई बहार।
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लो आ गया फागुन निगोड़ा
तुम न आये और फिर लो आ गया फागुन निगोड़ा साल पिछले भेजते इसको कहा था, हाथ में इसके तुम्हारा,
शहर जब ‘श्मशान’ बनते हैं
हेमन्त वशिष्ठ मुद्दों की आड़ में गई इंसानियत भाड़ में हैवानियत के ठेके पर जब हम ताज़ा-ताज़ा हैवान बनते हैं…
तिरंगे के रंग हज़ार
तिरंगे के रंग आँखें तभी साफ़ साफ़ देख पाती हैं जब पेट में रोटी होती है, हाथ तिरंगे को
सब ठाठ धरा रह जायेगा…
तू आया है, तो जायेगा हम रोटी–भात खायेगा। तू लोहा–सोना खोदेगा हम खेत में नागर जोतेगा। तू हीरा-पन्ना बेचेगा हम
नये साल की मनुहार
एक वर्ष ने और विदा ली एक वर्ष आया फिर द्वार गए वर्ष को अंक लगाकर नये वर्ष की
मरी हुई पत्नी से प्यार
विमल कुमार मुझे इतने दिनों तक मालूम ही नहीं था मैं अपनी मरी हुई पत्नी से प्यार कर रहा हूं
विनाशलीलाओं के बाद…
एक दिन दिन डूब जाएगा पर दिनचर्या से नहीं और रात दिन के मटमैले विस्तार में लंबे समय तक अस्त
एक मज़दूर की आत्मा
ये जो सफेद स्वीमिंग पूल है पूल समझने की तुम्हारी भूल है इसे मैंने मेरे ख़ून से रंगा है तब
क़ातिलों, ये खून का मिजाज है!
धीरेंद्र पुंडीर खून से सने खंजर को साफ करते हुए भीड़ के साथ नारा लगाया एक और काफिर मारा गया