राकेश कायस्थ
मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल को याद कीजिये। गवर्नेंस का एक नया मॉडल देश में आया था। शासन की पूरी शक्ति पीएमओ में समाहित हो चुकी थीं और लोगों को याद तक नहीं रहता था कि देश के अहम मंत्रालय किन लोगों के पास हैं। पीएम मोदी की ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं को लेकर यह कहा जाता था कि जब बड़े कूटनीतिक फैसले सीधे प्रधानमंत्री द्वारा लिये जा रहे हैं तो फिर विदेश मंत्रालय सीधे उनके अधीन क्यों नहीं होना चाहिए? लेकिन विदेश मंत्रालय का एक स्वतंत्र अस्तित्व और उसकी अपनी एक अलग पहचान बनी रही और वो कारण कोई और नहीं बल्कि खुद सुषमा स्वराज थीं।
2014 से 2019 तक विदेश मंत्रालय मोदी सरकार का एकमात्र ऐसा महकमा रहा जिसने पॉजेटिव ख़बरों की वजह से सुर्खियां बटोरीं। ये पॉजेटिव खबरें क्या थीं-
यमन में फंसे हज़ारों भारतीय नागरिकों को सरकार ने सुरक्षित बाहर निकाला
प्रेमिका के चक्कर में बॉर्डर पार करने वाला मुंबई का युवक विदेश मंत्रालय की कोशिशों से वापस लौटा
पासपोर्ट कार्यालय में देर हो रही थी। किसी ने नाराज़ होकर विदेश मंत्री को ट्वीट किया। फौरन कार्रवाई हुई और पासपोर्ट बन गया।
इलीट इमेज रखने वाले विदेश मंत्रालय का मानवीय और जनप्रिय चेहरा इससे पहले किसी ने नहीं देखा था। सुषमा स्वराज ने यह साबित कर दिया था कि कोई भी पद वैसा ही होता है, जैसा उसे धारण करने वाला व्यक्ति बनाता था। यही बात सुषमा स्वराज ने सूचना प्रसारण मंत्री रहते हुए भी साबित की थी।
मदनलाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की लड़ाई का हल निकालने के लिए सुषमा स्वराज को 1998 में दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया था। मुझे याद है उनके दरवाज़े आम नागरिकों लिए खुले रहते थे और कानून व्यवस्था के मामले में वे रात-दिन खुद मॉनीटर किया करती थीं।
जब चुनाव में बीजेपी हारी तो सुषमा स्वराज ने बयान दिया— घर को लगा दी आग घर के चिरागों ने। सौम्य और शालीन व्यक्तित्व की मालिक सुषमा जी ने लगातार यह साबित किया कि वे एक ताकतवर राजनेता हैं। बेशक वे नेताओं की चूहा दौड़ में शामिल ना हो लेकिन मजबूती से अपना पक्ष रखना जानती हैं। वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की पुरजोर कोशिशें हुईं। अपनी आधिकारिक पाकिस्तान यात्रा के दौरान सुषमा जी ने वहां के न्यूज़ चैनलों को कई लंबे इंटरव्यू दिये, जिनमें उन्होंने कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के तर्कों की धज्जियां उड़ाईं। लेकिन जब गुजरात दंगों का सवाल आया तब उन्होने कहा— गुजरात में जो कुछ हुआ वह हमारे लिए एक राष्ट्रीय शर्म है।
वक्त आगे बढ़ा। 2012 के बाद से यह अटकलें तैरने लगीं कि नरेंद्र मोदी बीजेपी की तरफ से पीएम पद के दावेदार होंगे। सुषमा स्वराज से जब यह पूछा गया तो उन्होने जवाब दिया— हम हिंदू परंपरा के लोग हैं और हिंदुओं में जब पिता जीवित होता है तो पगड़ी पुत्र के सिर पर नहीं रखी जाती है। हमारे पिता को आडवाणी जी हैं।
नरेंद्र मोदी के बारे में यह कहा जाता है कि वे अपने विरोधियों को कभी माफ नहीं करते। लेकिन सुषमा स्वराज ना सिर्फ मोदी कैबिनेट में शामिल हुई बल्कि पूरे सम्मान और गरिमा के साथ काम किया। उन्हें संतुलन साधना, अपना आत्मसम्मान बचाये रखना और नकारात्मकता के गलियारों को पार करके सकारात्मक रास्ते पर चलना आता था। ये ऐसे मानवीय गुण हैं जो एक राजनेता ही नहीं बल्कि किसी इंसान के लिए भी उतने ही ज़रूरी हैं। सुषमा जी का जाना बीजेपी में वाजपेयी की परंपरा की आखिरी कड़ी का टूटना है। सचमुच आप बहुत याद आएंगी सुषमा जी।
राकेश कायस्थ। झारखंड की राजधानी रांची के मूल निवासी। दो दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय। खेल पत्रकारिता पर गहरी पैठ। टीवी टुडे, बीएजी, न्यूज़ 24 समेत देश के कई मीडिया संस्थानों में काम करते हुए आप ने अपनी अलग पहचान बनाई। इन दिनों एक बहुराष्ट्रीय मीडिया समूह से जुड़े हैं। ‘कोस-कोस शब्दकोश’ और ‘प्रजातंत्र के पकौड़े’ नाम से आपकी किताब भी चर्चा में रही।