सुनील श्रीवास्तव
रास्ते के पत्थरों को
वह मारता है
बहुत ताकत से।
प्रतिदिन सुबह और शाम
जैसे किसी के गुनाह का फैसला सुना रहा हो
पत्थर मार मार कर।
कभी कुछ गाता है
कभी गुनगुनाता है
कभी तेज आवाज में
चिल्लाता है ।
चार कोस तक जाती है
उसकी आवाज,
यह पहचान है उसकी।
कभी कभी बांसुरी बजाता है
उसे नहीं मालूम रोम
कभी जल रहा था
और
राजा बांसुरी बजा रहा था।
खेतों के मेड़ पर बैठता है
हवाओं के साथ जब
सरसों और सनई के फूल
जब झूमने लगते हैं
उसकी बांसुरी मीठे
गीत गाती है ।
तेज हवाओं से जब कोई
बड़ा वृक्ष गिरता है
तब उसकी बांसुरी बेसुरी
हो जाती है ।
तब ?
वह अपने झोले से
सीसम की मोटी सी डंडी झटके से निकाल कर
मेड़ों पर पीटते हुए
खेतों के चक्कर लगाता है
फिर एकाएक उसकी बांसुरी
शांत हो जाती है ।
सामने पत्थर के बाग उगते हैं
वह मेड़ों पर दौड़ते हुए
चीखने-चिल्लाने लगता है
उसकी आवाज सब सुनते हैं
बगीचों में खुसुर फुसुर होती है
सारे तंत्र ,वाद,इज्म,
चमचे, गलियारे, दलाल
सोशल मीडिया के चिंतक,प्रश्न करते बुद्धिजीवी
सब कसमसाते हुए
मुंह सिल लेते हैं
उसकी चीख टकराती है
पत्थरों के बगीचे से
पढे लिखे अवाम की कानो से
बहुत दूर तक सबको झकझोरते हुए
निकले जाती है आवाज
करती हुई आगाज़
दिन फिरने को कब तक तरसोगे?
यहां सब बहरों की आबादी है
सबको आजादी है
तुम गरजो बरसो
उसकी छाती में
तीर की तरह घुसो।
रुको मत , आगे बढ़ो
यह गर्जना ही
तुम्हारी ताक़त है।
अब सरसों और सनई के फूल
मुस्कराते हुए झूमने लगे हैं
और उसकी बांसुरी से
निकलने लगी है
कजरी, बिरहा व रागिनी की
सुरीली आवाज।
सुनील श्रीवास्तव/ 4 दशक से ज्यादा पत्रकारिता जगत में सक्रिय रहे। प्रभात खबर, लोकमत समाचार, मनोरमा,राजवार्ता का संपादन किया, धर्मयुग, माया , हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात में संपादकीय टीम का हिस्सा रहे । कई विश्वविद्यालयों में गेस्ट फेकल्टी की भूमिका निभाई । करीब 13 बरस तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में छात्रों को पत्रकारिता का हुनुर सिखाया । आज भी बदलते सामाजिक परिवेश और व्यवस्था को लेकर चिंतनशील ।