अमरेंद्र गौरव
”सीआरपीएफ जवानों की बहादुरी पर हमें गर्व है और उनकी शहादत बेकार नहीं जाएगी”। सुकमा में बड़े नक्सली अटैक के बाद पीएम का यही बयान आया। पिछले तीन दिनों से मैं इस इंतज़ार में था कि जवानों के घरों में पसरा मातम और रोते बिलखते परिवारवालों की तस्वीरों को देखकर शायद अपने 56 इंच के सीने वाले प्रधानमंत्री का भी खून खौल उठेगा लेकिन अभी तक कुछ नए और कठोर फैसले की घोषणा नहीं हुई है। बस वही बयान सामने आए, जो पूर्व के तथाकथित मौनी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ज़ुबान पर रटे हुए थे। हां, इन दिनों में ऐसे मामलों में भारतीय राजनेताओं का वो बहुप्रतीक्षित बयान भी आ गया कि नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। ये बयान दिया भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने।
यकीन मानिए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी नई बीजेपी से मेरी भी बड़ी उम्मीदें हैं। और उम्मीदों के इस पहाड़ को मेरे मन-मस्तिष्क में उन्होंने ही खड़ा किया है। लिहाज़ा मैं उनकी आलोचना करने लगता हूं। पुरानी कहावत है कि जिनसे आपको पहाड़ जैसी अपेक्षा हो उनकी राइ जैसी असफलता भी आपको विचलित कर देती है। और सत्ता के विरोध में लिखना कोई अपराध भी नहीं है। लिहाज़ा, गौर से सोचिए किसी भी बड़े और जटिल मामलों में मौजूदा सरकार की नीति क्या पुरानी सरकारों की तरह ही ढुलमुल नज़र नहीं आती ? क्या नक्सलियों से निपटने के मामले में भी उनकी कथनी और करनी में कोई बड़ा फर्क नज़र आता है ?
सिर्फ चुनाव दर चुनाव जीतने का ये तात्पर्य कतई नहीं हो सकता कि शासन लाजवाब है। अलबत्ता ये सरकार सकारात्मक नतीजों वाले फ़ैसलों से ज़्यादा प्रतीकात्मक कदमों पर ज़्यादा ध्यान देती नज़र आती है। मसलन, सबसे पहले योजना आयोग का नाम बदला गया; हालांकि काम वही पुराना है। रेल बजट को वित्त बजट के साथ पेश करने का बदलाव दिखा; इसका फायदा समझ से परे है। कई पुरानी योजनाओं का नाम बदलकर नया बताने की कोशिश की गई। अब एक नया शिगूफा छेड़ा गया है, जिसके मुताबिक वित्तीय वर्ष को जनवरी से दिसंबर किये जाने का सुझाव है। समर्थन में कोई ठोस दलील नहीं दिखती।
खैर इन सबसे बड़ा, मुझे तो नोटबंदी का ऐतिहासिक कहा जाने वाला फ़ैसला भी अब प्रतीकात्मक लगने लगा है। कुछ लोग भड़क सकते हैं.. लेकिन ज़रा सोचिए.. नोटबंदी खत्म होने के बाद उसके फायदे के सवाल पर आजतक कभी कोई पुख्ता जवाब नहीं दिया गया।आजतक रिज़र्व बैंक इस बात का मुकम्मल जवाब पेश नहीं कर सका है कि इस सारी कवायद से देश को हासिल क्या हुआ? शायद सरकार को भी इस बात का एहसास था, लिहाजा सरकार ने शुरुआत से ही नोटबंदी के दूसरे फायदे गिनाने शुरू कर दिए थे। इनमें अहम थे- नकली नोटों के नेटवर्क पर नकेल कसा जाना, कश्मीर में आतंकी हमलों पर लगाम लगना और सबसे बड़ा तो नक्सलियों की कमर तोड़ देने का दावा भी किया गया था।
याद्दाश्त पर जो़र डालने से याद आ जाएगा कि किस तरह कुछ ही महीने पहले बीजेपी के नेताओं, मंत्रियों और खुद प्रधानमंत्री ने कई सार्वजनिक मंचों से चीख-चीखकर कहा कि नोटबंदी की वजह से नक्सलियों की हालत पतली हो गई है। नक्सली हमले अब थम जाएंगे, लेकिन अब यही बड़ा सवाल उठता है कि सरकार के वो मंत्री अब क्या जवाब दे पाएंगे ? कश्मीर घाटी सुलग रही है। ना आतंकियों की घुसपैठ रूकी, ना जवानों की शहादत और ना पत्थरबाज़ी की घटनाएं। उल्टा अपने सबसे बुरे दौर में पहुंच चुकी है घाटी की समस्याएं। ऐसी रिपोर्टें भी आ चुकी है कि आतंकी और पत्थबरबाज़ों को उकसाने वाले सरहद पार बैठे लोग घाटी में पैसे पहुंचाने के लिए उसी तरीके का इस्तेमाल कर रहे थे, जिसके बूते नए भारत बनाने का दावा किया गया यानी डिजिटल ट्रांजेक्शन।
क्या कोई ये जवाब दे पाएगा कि नोटबंटी के बाद सुकमा जैसा बड़ा नक्सली हमला क्यों और कैसे हो गया? अगर सिर्फ एक हो तो आप कहेंगे कि सरकार की आलोचना कर रहे हो। बिल्कुल नहीं! पिछले महीने भी यानी मार्च की 11 तारीख को उसी इलाके में 12 सीआरपीएफ जवान शहीद हुए थे। उससे पहले 30 जनवरी को भी दंतेवाड़ा में सात जवान शहीद हो गए। नोटबंदी खत्म होने के बाद से अब तक करीब 45 सीआरपीएफ जवानों की शहादत हो चुकी है। क्या अब भी नोटबंदी के फायदे गिनाने में ये पुराना राग अलापा जा सकता है?
रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 5 साल में नक्सली हिंसा में 450 से ज़्यादा जवान शहीद हुए हैं। 24 अप्रैल की घटना के बाद राजनाथ सिंह ने इस घटना को चुनौती के रूप में लेने की बात कही। कब तक सिर्फ कहते रहेंगे जनाब! नक्सली हमलों को रोकने के लिए आपने पुरानी सरकारों से अलग क्या किया है? आप भी सेना और वायुसेना के इस्तेमाल पर खामोश हैं! ये बात मान भी ली जाए कि ये मसला थोड़ा अलग और ज़्यादा जटिल है। इसमें गांववालों के भी मारे जाने का डर होगा लेकिन कम से कम 3 सालों में आप आर्थिक तौर पर नक्सलियों की कमर तो तोड़ सकते थे। एक आम आदमी के जेहन में सवाल उठता है कि नक्सिलयों के पास जंगलों में बैठे-बैठे हथियार कहां से आ जाते हैं। सुकमा हमले में भी AK 47 जैसे हथियार का इस्तेमाल किया गया है। जंगल में उन तक ऐसे आधुनिक हथियार पहुंचने की सप्लाई चेन को ध्वस्त करने के लिए आपने क्या किया ? केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडु कहते हैं कि नक्सली अपनी मौजूदगी दिखाने के लिए हमले कर रहे हैं तो यही तो सवाल है सर कि आपके शासन वाले राज्य में उनकी मौजूदगी क्यों बरकरार है?
ताज़ा हमले के बाद सूबे के मुख्यमंत्री ने बयान दिया कि इलाके में विकास के कामों की वजह से नक्सलियों में बौखलाहट है। 15 सालों से जनाब रमन सिंहजी सत्ता में हैं और अब तक सड़क बनाने का काम ही हो रहा है। दुनिया जानती है कि सड़क-बिजली-पानी बुनियादी ज़रूरतें हैं। जब आप कहते हैं कि 70 सालों से देश को लूटा जा रहा था तो आपकी काम की रफ्तार पर भी सवाल तो उठेंगे। मुख्यमंत्री जी आप सड़क बनाइए या सुकमा में वाई-फाई की सुविधा ले आइए लेकिन नतीजे तो दीजिए। अब देश में सबसे ज़्यादा नक्सली प्रभावित यही इकलौता राज्य बचा है, जहां 15 सालों से बीजेपी की सरकार है। तीन साल से तो केंद्र में भी आपकी ही पार्टी का एक ताकतवर प्रधानमंत्री बैठा है, तालमेल का बहाना भी नहीं बचता है- ना प्रधानमंत्री के लिए, ना मुख्यमंत्री के लिए।
अमरेंद्र गौरव। inshors के न्यूज़ एडिटर। इंडिया टीवी, न्यूज़ एक्सप्रेस और न्यूज नेशन में काम करने के बाद वेब मीडिया पर नए प्रयोगों में शरीक। बेहतरीन आवाज़ के साथ ख़बरों को पेश करने की अदा के हुनरमंद।