पुष्यमित्र
कभी एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला होने की ख्याति हासिल कर चुका सोनपुर मेला इस साल केंद्र सरकार की नोटबंदी योजना की वजह से भीषण मंदी शिकार हो गया है। इस मेले में जहां पिछले साल तक रोज औसतन 50 हजार से ज्यादा लोग पहुंचते थे, इन दिनों सन्नाटा पसरा है। वैसे तो हर साल की तरह इस साल भी यहां सूई से लेकर हाथी तक बेचने वाले दुकानदार पहुंचे हुए हैं, मगर ग्राहक नदारद हैं। जहां पिछले साल रोजना 5-6 करोड़ का कारोबार होता है, इस साल बोहनी पर भी आफत है। पशुओं के कई सौदागर तो दो-तीन दिन में ही माहौल भांप कर लौट गये। जो बचे हैं, उनका यहां रहने का खर्चा भी मुश्किल से निकल रहा है। मीना बाजार, कपड़ा बाजार और काठ बाजार से लेकर नृत्य-संगीत की महफिल जमाने वाले थियेटर वालों का भी यही हाल है। मंदी के माहौल में हर दुकानदार ग्राहकों को अच्छा-खासा डिस्काउंट देने को विवश हैं। हां, इस बीच हैरतअंगेज तरीके से घोड़े खूब बिक रहे हैं। लोग हैरत में हैं कि इनके खरीदारों पास इतना कैश कहां से आ रहा हैं।
बैल मेला पूरा खाली पड़ा है। आसपास के लोग बताते हैं कि सौ-डेढ़ सौ बैल आये थे, जो पूजा पाठ करके तीन दिन में लौट गये। हाथी की बिक्री पर पहले से ही प्रतिबंध है, इसलिए हाथियों के मालिक सिर्फ कार्तिक पूर्णिमा का स्नान कराने हाथियों को सोनपुर लाते हैं। गाय मेला में दस-पंद्रह गायें खड़ी नजर आती हैं, मगर ये भी स्थानीय लोगों की हैं। बाहर के व्यापारी लौट चुके हैं। इनके विक्रेता कहते हैं, गायें बिकीं तो बिकीं, नहीं बिकीं तो अपना बथान है ही। हां, घोड़ों के मेले में काफी रौनक है। वहां अब तक दो सौ से अधिक घोड़े बिक चुके हैं। कई व्यापारी पुराने नोट भी ले रहे हैं। थोड़ी बहुत रौनक चिड़िया बाजार में भी है, जहां कुत्तों की बिक्री हो रही है। हालांकि वहां भी पिछले साल के मुकाबले अधिक व्यापारी नहीं आये। चिड़िया बाजार के मालिक कहते हैं, इस बार बहुत मंदा जा रहा है।
सोनपुर मेला वैसे तो पशु मेले के रूप में मशहूर है। मगर इसकी एक ख्याति यह भी है कि यहां सूई से लेकर हाथी तक सब कुछ उपलब्ध होता रहा है। इसलिए आस-पास के लोग यहां कपड़े, बिछावन-कंबल, लकड़ी के सामान, फर्नीचर, श्रृंगार के साधन, बरतन और दूसरी अन्य जरूरी चीजें लेने भी आते हैं। इसके अलावा यहां खान-पान और मनोरंजन की चीजों की दुकानें भी पर्याप्त संख्या में लगती हैं। नोटबंदी का इन दुकानदारों पर काफी बुरा असर पड़ा है।
देवघर से आये दिलीप कुमार जो श्रृंगार के आइटम्स बेचते हैं, अपनी दुकान पर बैठे जम्हाई लेते नजर आते हैं। कहते हैं, दोपहर होने आया है, अभी तक बोहनी भी नहीं हुई है। पिछले साल के मुकाबले एक चौथाई भी कारोबार नहीं रह गया है। 1979 से यहां आ रहे हैं, पहली बार ऐसा माहौल देख रहे हैं। पब्लिक के पास तो पैसा ही नहीं है, खरीदेगी क्या? पीतल के दीयों की दुकान लगाने वाली पलामू की सबीना कहती है, पिछले साल रोज हजार बारह सौ की बिक्री हो जाती थी। इस बार पूरे दिन बैठने पर 100 रुपये भी गल्ले में नहीं आ रहे। 6000 रुपये में जगह किराये पर ली है, जाते-जाते किराया भी निकलेगा या नहीं कह नहीं सकते।
सलाउद्दीन जो मुजफ्फरपुर से बरतन और लकड़ी के सामान की दुकान लेकर आये हैं, इस बात की तस्दीक करते हैं। कहते हैं, सोनपुर मेले की इतनी बुरी हालत पहले कभी नहीं हुई थी। आप आज जहां खड़े हैं, पिछले साल तक यहां खड़े नहीं हो पाते, लोग धक्का देकर आपको आगे बढ़ा देते। मगर इस साल तो इस सड़क से कार तक गुजर रही है। मेरी दुकान में पहले आठ-आठ लड़के काम करते थे, दो पालियों में । मगर इस साल चार लड़कों को मैंने वापस भेज दिया। धंधा ही नहीं है तो काहे टाइम खोटी करें। नोटबंदी के आलम में जहां शहरों में दुकानदार ऑनलाइन ट्रांजेक्शन और पेटीएम जैसी सुविधाओं को अपनाते नजर आ रहे हैं, सोनपुर मेले में इन साधनों का नामोनिशान तक नजर नहीं आता। यहां तक कि क्राफ्ट मेला और कंपनियों की प्रदर्शनी में भी नहीं। तीन साल से इस मेले में डोमिनोज वाले पिज्जा का स्टॉल लगा रहे हैं, मगर उनके यहां भी एटीएम या पेटीएम जैसी कोई सुविधा नहीं है। स्टॉल संभाल रहे स्टाफ का कहना है कि इस मेले में हम उम्मीद ही नहीं कर सकते कि कोई कार्ड पेमेंट करेगा। इसलिए यह सुविधा नहीं रखी है। यहां आने वाले 90 फीसदी ग्राहक ग्रामीण पृष्ठभूमि के हैं, जो अपनी सारी खरीदारी कैश से ही करते हैं।
क्राफ्ट मेला के कई दुकानदारों का कहना है कि सरकार को मेले में मोबाइल एटीएम लगवाना चाहिये था। चूंकि पांच साल से मेले का संयोजन राज्य सरकार की ओर से किया जा रहा है, मगर मोबाइल एटीएम तो दूर, आसपास के बैंक और एटीएम भी पूरे टाइम खुले नहीं रहते। इलाके में चार बैंक हैं, मगर उनमें भी पैसों की किल्लत रहती है। अक्सर वहां लंबी कतारें नजर आती हैं। एक दुकानदार राजेश कुमार का कहना है कि आजकल मेले से अधिक भीड़ तो सोनपुर के बैंकों के आगे है।
इन परिस्थितियों में मंदी से उबरने के लिए दुकानदारों ने डिस्काउंट का सिस्टम शुरू कर दिया है। हरेक माल पंद्रह रुपये बेचने वालों ने अपनी कीमत दस रुपये कर दी है तो चालीस रुपये वालों ने 30 रुपये। पशु मेले और कुत्तों के मेले में भी ग्राहक खूब मोल मोलाई कर रहे हैं। दुकानदार डिस्काउंट देने पर मजबूर हैं। और तो और नाच-गाने का कार्यक्रम पेश करने वाले थियेटरों को भी अपनी टिकटों की कीमत में 60 फीसदी तक कमी करनी पड़ रही है, तब जाकर वहां शौकीन लोगों की भीड़ उमड़ रही है।
हालांकि इस मंदी के बीच सबसे गुलज़ार घोड़ों का बाजार ही है। एक व्यक्ति ने कैश देकर सवा लाख रूपये में एक घोड़ा खरीदा हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि उनके पास इतना कैश कहाँ से आया। पिछले 7-8 दिनों में 200 से अधिक घोड़ों के बिकने की खबर है। यहां कई व्यापारी पंजाब से आये हैं, कई लोकल हैं। हालांकि पिछले साल के मुकाबले यहां भी बिक्री बहुत अधिक नहीं है। पिछले साल यहां तकरीबन एक हजार घोड़े बिक गये थे। फिर भी वहां निराशा का माहौल उतना नहीं है। कारोबार हो रहा है, क्योंकि कुछ विक्रेता पुराने नोट स्वीकार कर रहे हैं।
(प्रभात खबर में प्रकाशित, साभार)
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।