विकास में पिछड़ते गांव और बढ़ता आर्थिक असंतुलन

विकास में पिछड़ते गांव और बढ़ता आर्थिक असंतुलन

शिरीष खरे
विशेष तौर पर सत्तर के दशक में गांवों के लिए कई परियोजनाएं और कार्यक्रम चलाए गए। इसके पीछे के कारण में जाएं तो इस समय तक यह सोचा जाने लगा था कि विकास के लाभों के वितरण में बहुत अधिक असमानता है। इसलिए, विकास के लाभों के एक समान वितरण के न्याय के बारे में गंभीरता से विचार किया जाने लगा। इस प्रक्रिया में ग्रामीण भारत विकास का केंद्र बनने लगा। इस दौर में औद्योगिक और कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी के प्रयास तो जारी रहे लेकिन इसी के सामानांतर गांवों पर अलग से ध्यान देते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और गरीबी जैसी समस्याओं को दूर करने के लिए प्राथमिकताएं तय हुईं।

ग्रामशाला पार्ट 5

अब इन प्राथमिकताओं के बीच यहां परियोजना और कार्यक्रम में अंतर करना आवश्यक है। कहा जाता है कि कोई परियोजना सूक्ष्म स्तर पर किया जाने वाला प्रयास है। उदाहरण के लिए, बुजुर्गों में साक्षरता दर बढ़ाना। इसका प्रभाव आमतौर पर बहुत कम लोगों तक सीमित होता है। किंतु, कार्यक्रम में कई परियोजनाएं शामिल होती हैं जो परस्पर एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और व्यापक प्रभाव डालने वाली होती हैं। कार्यकमों के मद्देनजर देखें तो आजादी के बाद गांवों के विकास में ग्रामीणों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए ‘सामुदायिक विकास कार्यक्रम’ चलाया गया था। किंतु, इसका गांवों के प्रभावशाली समुदाय ने ही इसका लाभ हासिल किया तो इस दृष्टिकोण से अलग हटकर सोचे जाने की आवश्यकता पर जोर दिया जाने लगा। इसके बाद ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सामाजिक संरचना को महत्त्व दिये जाने की बात होने लगी और इसी पृष्ठभूमि में निरक्षरता, स्वास्थ्य, शोषण, भूमि और अन्य संपदाओं के असमान वितरण को गरीबी का चक्र माना गया। ग्राम नियोजन की बहु-उद्देशीय आवश्यकताओं को पूरा किए जाने की इसी कार्यनीति को ‘एकीकृत ग्राम विकास’ नाम दिया गया।
अब सामुदायिक विकास कार्यक्रम से एकीकृत ग्राम विकास पर सोचे जाने के बीच के क्रम में जाएं तो इस दौरान ग्रामीण भारत के लिए कई योजनाएं बनीं। वर्ष 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किया गया। इसका उद्देश्य ग्रामीण अंचल में भौतिक और मानवीय संसाधनों का उचित उपयोग, स्थानीय नेतृव्य का विकास, कृषि उत्पादों में तीव्र वृद्धि और ग्रामीणों के जीवन स्तर को सुधारना था। किंतु, अगले आठ-दस साल  की समीक्षा में यह समझ आया कि धन और कर्मचारियों की कमी के कारण इस कार्यक्रम में पूरा देश शामिल नहीं हो पा रहा है। किंतु, वर्ष 1960 के बाद से कृषि उत्पादन में ठहराव और अनाज की कमी की पहचान की जाने लगी। फिर वर्ष 1965 से 67 तक लगातार दो सूखों ने बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने की चिंता जता दी। यही दौर था जब विदेशी बीजों को अपनाए जाने और कीटनाशकों के उपयोग में बेहताशा बढ़ोतरी हुई। सिंचाई संरचनाओं का विस्तार और ट्रैक्टर-हावेस्टर जैसे यंत्रों को बढ़ावा मिला। इसे ‘हरित-क्रांति’ नाम दिया गया। इससे अनाज की सुरक्षा व्यवस्था तो मजबूत हुई लेकिन पंद्रह वर्षों के दौरान मुख्यत: गेहूं को छोड़कर अन्य कई महत्त्वपूर्ण फसलों का उत्पादन गिरा। बाद में इसे चावल तक विस्तारित किया गया। किंतु, दलहन और तिलहनों के मामले में यह सफलता नहीं दोहराई जा सकी। इससे देश में पोषक तत्वों के ग्रहण में असंतुलन पैदा हुआ।
पानी के अत्याधिक उपयोग से जल-भराव और लवणता की समस्या आई। कीटों में रसायनिक कीटनाशकों के अत्याधिक प्रयोग से प्रतिरोधन क्षमता बढ़ी। इसके अलावा पर्यावरण असंतुलन पैदा हुआ और इसी के प्रभाव से तरह-तरह की बीमारियां पनपीं। इस तरह, जब सामुदायिक विकास कार्यक्रम और हरित क्रांति का गांव की संपूर्ण आबादी तक लाभ नहीं पहुंचा तो गरीबी मिटाने का लाभार्थी विचार अपनाया गया जिसमें बहुत सारी योजनाओं को समेकित दृष्टिकोण से सोचे जाने की स्थिति तैयार हुई। इसके तहत विशेष तौर पर छोटे किसानों को लाभार्थी के तौर पर पहचाना जाने लगा और उन्हें बैल आदि जानवर तथा कृषि-उपकरण खरीदने के लिए अनुदान दिया जाने लगा। अस्सी के दशक में इस तरह की योजनाओं को समेकित ग्राम विकास कार्यक्रम में शामिल किया गया। निवेश में कमी, अमीर लाभार्थियों के चयन और बैंक द्वारा धन के असमान वितरण के कारण यह कारगर साबित नहीं हो पा रहा था। वर्ष 1999 में ‘स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार’ को काफी हद में पूर्ण योजना के तौर पर माना गया जो आर्थिक सहायता पर आधारित थी और जिसका उद्देश्य सब्सिडी को निचले स्तर तक पहुंचाना था। इसमें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए 50 प्रतिशत तक लाभ सुनिश्चित करने जैसे प्रावधान रखे गए थे। (ग्रामशाला जारी है)


shirish khareशिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है