शिरीष खरे
और वाकई यह मेरी जिंदगी की नई सुबह है! सूर्य-उदय का इतना सुंदर दृश्य मैंने जिंदगी में पहले कभी नहीं देखा, बचपन में अपने गांव में भी नहीं। समुद्र तल से करीब 1,100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित मेलघाट में घाटों का सुदंर मेल, पक्षियों का कोलाहल और प्रकृति के इतने निकट से सूर्य का दर्शन कभी नहीं किया। पहाड़ी और खाई के इस ओर इस बसाहट के बीच यह सुबह मेरे लिए मुंबई की भागमभाग से दूर राहत लेकर आई।
मेलघाट की यात्रा के दूसरे सहयात्री और संजय इंग्ले की टीम के साथी सूरज शेडलीवार के साथ यदि तड़के चार बजे ही मोटरसाइकिल पर बैठकर चिखलदरा से कोई 120 किलोमीटर का फासला तीन घंटे में पूरा नहीं कर पाता तो सलीता गांव में सूरज देखना नसीब नहीं होता। आदि-प्रजाति कोरकू बहुल सलीता गांव में हर रोज ऐसी ही सुबह होती है! कोई 60 घर और साढ़े तीन सौ की आबादी वाले सलीता गांव में हमारी पहली मुलाकात होती है झोपड़ी के बाहर बैठी एक बूढ़ी अम्मा से। इन्होंने सुबह जल्दी उठकर भी सूरज की ओर नहीं देखा, अक्सर जल्दी उठने के बावजूद इन्होंने कई महीनों से सूरज की ओर नहीं देखा, क्योंकि इनके आंखों की रोशनी करीब-करीब गायब चुकी है और पहले की तरह सबकुछ दिखाई देने लगे, यही इनका सपना है। जल्द ही यदि इलाज नहीं कराया गया तो इनकी जिंदगी में उजाले की गुंजाइश नहीं बचेगी। फिर भी, इन्हें अंधी होने से कहीं ज्यादा फ्रिक है तो अपने बेटे के लौटने की। कहती हैं, ”बेटा घर जल्द लौटे, बस यही चाहती हूं।”
आईने में अपना अक्स-चार
यहां के कई जवान बेटे, बहू अपने परिवार के बुजुर्ग और छोटे बच्चों को यहीं छोड़कर काम की तलाश में अमरावती और दूरदराज के मैदानी इलाकों की ओर चले जाते हैं। दरअसल, संघर्ष ही यहां ईमानदारी की एकमात्र परिभाषा है। संघर्ष, पूरी ईमानदारी से जंगल में जीने का। संघर्ष, पूरी ईमानदरी से मैदानी इलाकों में काम तलाशने का।
संघर्ष की इसी जमीन पर हमें सरिता (परिवर्तित) नाम की बच्ची मिलती है, जिसकी उम्र महज 17 महीने है, जिसका शरीर कमजोर होकर सूख-सा गया है, लोगों की सुनें तो इसे ‘सूखी’ हो गया है, ‘सूखी’ यानी कुपोषण की स्थिति, जिससे यहां के लोग सबसे ज्यादा डरते हैं, क्योंकि यह बच्चों को मौत के घाट उतार देती है। गांव वाले बताते हैं कि सलीता उप-प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में इलाज की व्यवस्था खराब है। पांच साल पहले यहां एक बच्ची मर गई थी, इसलिए आपातकालीन मामले यहां से 15 किलोमीटर दूर हतरु गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भेजे जाते हैं।
जब हमारे पास मोटरसाइकिल है तो 15 किलोमीटर की दूरी ज्यादा तो नहीं, इसलिए यहां से हम हतरु पहुंचते हैं, जो डेढ़ हजार की आबादी का थोड़ा बड़ा गांव है। यहां हमारी मुलाकात गांव के सरपंच केण्डे सावलकर से होती है, जिनसे चाय-नाश्ता की एक दुकान पर लंबी चर्चा होती है। इनका कहना है, ”यहां के अस्पताल में आपातकाल की स्थिति में इलाज की विशेष व्यवस्था नहीं है। ऐसे प्रकरण 60 किलोमीटर दूर धारणी के बड़े सरकारी अस्पताल पहुंचाए जाते हैं।” एक पल के लिए मेरे मन में ख्याल आता है कि क्या मेलघाट के नजारे तभी तक सुंदर हैं जब तक की आप बीमार नहीं, एक बार यदि तबीयत ज्यादा बिगड़ी तो 70-75 किलोमीटर भागने के बाद भी कोई गांरटी नहीं कि आप सही सलामत इन जंगलों से बाहर निकल पाएं! यह एक पहाड़ी जंगल है, जहां हर छोटी जरुरत से लेकर अपनी जान बचाने के लिए आदिवासियों को मीलों सफर करना पड़ता है।
यहां के बच्चों के लिए पेट भर भोजन और इलाज के लिए उचित दवाइयां कब हासिल होंगी? क्या इस पूरे इलाके के लिए यह एक अनुत्तरित प्रश्न है?
इसी के उत्तर में हम और सूरज ने दिनभर में हतरु के आसपास स्थित सुमिता और सिमोरी जैसे चार-पांच गांव घूम डाले। इसके बाद मेरे मन में कल्पना जागती है, कल्पना भी छोटी-सी नहीं, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से मोबाइल पर बातचीत की। सोचता हूं कि मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख मुझसे यदि पूछें कि संक्षेप में बताओ तुमने दिनभर में क्या देखा तो मैं उनसे क्या कहूंगा! मैं उनसे यही कहूंगा कि सर, मेलघाट की कहानियां बताती हैं कि बच्चों की मौतों की बड़ी वजह है भूख। दूसरी ओर भूख से निपटने की सरकारी व्यवस्था ही कई बार बड़ी बाधा बन रही है। ऐसा इसलिए कि इसे अहसास नहीं है कि भूख क्या होती है! भोजन करने की इच्छा भूख का अहसास तो कराती है, लेकिन मेलघाट में कोई बच्चा भूख से एक दिन में तो मरा नहीं।
जैसा कि होता है कि हाइपोथैल्यस के हार्मोन छोड़ने से भूख बढ़ती गई होगी, अंतड़ियों में मरोड़ होती गई होगी, कई दिनों तक ज्यादा भूखा रहने के कारण। तब कहीं जाकर भुखमरी की नौबत आई होगी और बच्चे का शरीर कंकाल बना होगा। कहने का मतलब भूख से होने वाली हर मौत पर लगाम कसने के लिए व्यवस्था के पास पर्याप्त समय था और है। इसके बावजूद मेलघाट में सालों से बच्चों की मौत का सिलसिला नहीं थमा तो इसकी एक वजह तो यही है कि गांव-गांव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत किसी परिवार को आठ-दस महीने तो किसी परिवार को दो-दो साल से अनाज नहीं मिल रहा है।
खैर, यह समय खुद को कल्पनाओं से बाहर निकालने का है और मैं खुद को कल्पनाओं से बाहर निकालकर लोगों से फिर संवाद कर रहा हूं।
– ”आपके पास कितनी जमीन हैं?”
– ”मेरे पास कोई जमीन नहीं है!”
भगनू (परिवर्तित नाम) की इस एक पंक्ति के उत्तर में मेलघाट की हकीकत बयां होती है। दरअसल, भूख की जड़ में गरीबी और बेकारी है। मेलघाट भारत के सबसे गरीब इलाकों में से है। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि यहां 52 प्रतिशत परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। सुमिता गांव के भगनू की तरह ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं। वहीं, पूरे मेलघाट को देंखे तो महज 27 प्रतिशत पथरीली जमीन पर खेती होती है, जो कि बारिश के भरोसे है।
– ”तो क्या आप हर साल एक अच्छी बारिश का इंतजार करते हैं?”
-”नहीं, क्योंकि बारिश के दिन ज्यादातर लोगों के लिए बुरे होते हैं। तब तेंदूपत्ता का काम भी बंद हो जाता है, लोग काम के लिए जंगल से बाहर नहीं निकल पाते।”
सिमोरी गांव के सुखदेव (परिवर्तित नाम) की तरह बाकी लोग भी ‘सूखी’ के बाद यदि सबसे ज्यादा डरते हैं तो बारिश के दिनों से। वजह है कि बारिश के दिनों में मेलघाट का मौसम और परिदृश्य भले ही सुहावना प्रतीत हो, लेकिन ज्यादातर लोगों के घरों में अकाल पड़ जाता है।
रात से पहले हमें चिखलदरा भी लौटना है, इसलिए परिचित रास्तों से लौट रहे हैं, आकाश का सूरज हमारे साथ लौट रहा है और मोटरसाइकिल से लौटाने वाला सहयात्री सूरज बताता है कि साल में छह महीने लोग बड़ी तादाद में मजदूरी के लिए पलायन करते हैं। बारिश के दिनों में लोग मजदूरी के लिए बाहर नहीं निकल पाते हैं। इसलिए उनके सामने भोजन का संकट गहरा जाता है। सबसे ज्यादा बच्चे भी इसी मौसम में दम तोड़ते हैं। जब तक भूख से मौतों के समाचार बाहर पहुंचते हैं तब तक बारिश के दिन खत्म हो चुके होते हैं, तभी प्रशासनिक अमला कुछ दिनों के लिए जागता है।
(ये सीरीज जारी है)
शिरीष खरे। स्वभाव में सामाजिक बदलाव की चेतना लिए शिरीष लंबे समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। दैनिक भास्कर , राजस्थान पत्रिका और तहलका जैसे बैनरों के तले कई शानदार रिपोर्ट के लिए आपको सम्मानित भी किया जा चुका है। संप्रति पुणे में शोध कार्य में जुटे हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।