पुष्यमित्र
जब मेन स्ट्रीम मीडिया में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर सरदार सरोवर डैम को तोहफे के तौर पर दिए जाने की खबर चलती रही, सोशल मीडिया में छाती भर पानी में डूबे उन विस्थापितों की तस्वीर हमें झकझोर रही थी. हमसे बार-बार पूछ रही थी कि तोहफे की कीमत क्या यही है? खबर है कि कुछ लाख घरों को रोशन करने की कीमत 500 गांव के बाशिंदे चुका रहे हैं. उनके घरों में पानी भर गया है, उन्हें पता नहीं कि आगे क्या होगा, उनकी जिंदगी कैसी होगी. हां, जिनके घर नहीं डूबे वे कह सकते हैं कि 1480 मेगावाट बिजली के उत्पादन के साथ यह विकास हो रहा है, कुछ लोगों को तो कीमत चुकानी ही पड़ेगी. बहरहाल यह शाश्वत बहस है और इसका कोई अंत नहीं है. विकास अवश्यम्भावी है और इसकी कीमत कुछ लोगों को चुकानी ही पड़ती है. मगर मेरा सवाल कुछ और है? मेरा सवाल यह है कि सरदार सरोवर डैम जैसी बड़ी नदी घाटी परियोजना क्या सचमुच विकास है? जिनका घर डूब रहा है, उन्हें डूबने दीजिये, रोने दीजिये, मिट जाने दीजिये. मगर क्या जो लोग इससे लाभान्वित होने वाले हैं, उन्हें क्या सचमुच फायदा होने वाला है? क्या लोगों के खेतों तक पानी पहुंचने वाली है? क्या इस डैम से बनने वाली बिजली से लोगों के घर रोशन होने वाले हैं? क्या इस डैम के बनने में आई लागत वसूल होने वाली है? क्या इस डैम से देश को सचमुच कोई लाभ होने वाला है?
इतने सवाल मैं इसलिये पूछ रहा हूँ क्योंकि बड़े बांधों को लेकर पुराने अनुभव बहुत अच्छे नहीं हैं. 1990 में हुए एक आकलन के मुताबिक बड़े बांधों में खर्च लागत का सिर्फ 9 फीसदी ही वसूल हो पाता है. जबकि हर साल इन बांधों के निर्माण के लिये बड़ी राशि खर्च होती है. जिन बांधों का निर्माण कुछ सौ करोड़ में होना था, उनमें आज की तारीख तक दसियों हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं, मगर परियोजना पूरी नहीं हुई. और जहां तक सिंचाई का सवाल है, बङी और मंझोली परियोजनाएं लगातार असफल साबित हो रही हैं. इस बात को इन आंकड़ों से समझें, 1990 से 2007 के बीच बड़े बांधों के निर्माण पर 1 लाख 30 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए, मगर इस दौरान बड़े बांधों से सिंचित होने वाली भूमि में 24 लाख हेक्टेयर की कमी आ गयी.
दरअसल, बड़े बांध सिंचाई, बिजली उत्पादन और दूसरे मकसद के लिए पूरी दुनिया में अनुपयोगी माने जा चुके हैं. भारत का भी अनुभव यही है. जो भी व्यक्ति खेती किसानी से जुड़ा है, वह जानता है कि पिछले दो-तीन दशकों में सिंचाई के लिये नहरों से भरोसा बिल्कुल खत्म होता जा रहा है. इनकी गैरजिम्मेदार कार्यप्रणाली की वजह से किसान कभी इनपर भरोसा नहीं करते, लिहाजा आपको नहरों के पड़ोस वाले खेतों में भी ट्यूब वेल लगा दिख जाएगा. आज की तारीख में सिंचाई के लिये 90 फीसदी किसानों का भरोसा भूमिगत जल पर है. वे पम्प सेट से सिंचाई करना भरोसेमंद मानते हैं. हालांकि यह तरीका ठीक नहीं है, जगह-जगह जलस्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है. विकल्प के तौर पर सरकारी, गैर सरकारी एजेंसियां तालाबों, पोखरों, कुओं को बढ़ावा देने की कोशिश कर रही है. कुल मिलाकर सिंचाई की व्यवस्था लगातार बड़े और मंझोले सिंचाई परियोजनाओं से घट रहा है और लघु और सूक्ष्म परियोजनाओं पर भरोसा बढ़ रहा है. इसके बावजूद देश के नीति निर्धारकों का प्रेम बड़े बांधों से कम नहीं हो रहा, यह हैरत का विषय है.
दरअसल, बड़े बांधों के प्रति हमारा प्रेम नेहरू जी की देन है, जो इन बांधों को आधुनिक भारत का मंदिर कहा करते थे. आजादी से पहले हमारे देश में कुछ सौ बांध ही थे, अंग्रेज बांधों पर भरोसा नहीं करते थे. मगर नेहरू जी स्टालिन की पंचवर्षीय परियोजना और बड़े डैम के निर्माण से बहुत प्रभावित थे. उसी नीति को उन्होंने यहां जोर शोर से लागू कर दिया. दिलचस्प है कि उनके वक़्त में शुरू हुई कई परियोजनाएं आज जाकर पूरी हो रही है.आज देश में चार हजार से अधिक बड़े और मंझोले डैम हैं. इनमें से 96 फीसदी सिंचाई परियोजनाएं हैं, विद्युत परियोजनाएं 4 फीसदी ही हैं. मगर विश्व बैंक का आकलन है कि इन सिंचाई परियोजनाओं का हमारे देश के फ़सल उत्पादन में 10 फीसदी योगदान भी नहीं है. लगातार इनकी सिंचाई क्षमता घटती जा रही है. वजह यह कि सरकारी एजेंसियां नहरों का रखरखाव नहीं कर पा रहीं. उनमें नियमित जलापूर्ति नहीं कर पा रहीं. यह पहले बताया जा चुका है कि इनकी लागत का 9 फीसदी भी हासिल नहीं है.
अब कुछ डूब रहे लोगों की बात. देश में आजादी के बाद से हुई कुल विस्थापन का 60 फीसदी से अधिक बांधों की वजह से हुआ है. सरकारी आंकड़ा 4 करोड़ का है और गैर सरकारी 5 करोड़ का. तो आखिर इन्हें किस विकास की सजा मिल रही है, जो विकास हो ही नहीं पा रहा.
अगर इसके बावजूद बांधों का निर्माण तय है, तो इनसे एक ही जमात फायदे में है. वह है कॉन्ट्रेक्टर. जिसे बांध बनाने का ठेका मिला है. बांध आधुनिक भारत के मंदिर नहीं बेशर्मी के स्मारक हैं, जिसमें ठेकेदारों, सीमेंट के व्यापारियों, जल संसाधन विभाग के इंजीनियरों और नेताओं के लाभ के लिये हर साल हजारों लोगों को डूबा दिया जा रहा है, और मोटे अक्षरों में लिख दिया जा रहा है. बांध का मतलब विकास है, आगे सोचना मना है.
पुष्यमित्र। पिछले डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय। गांवों में बदलाव और उनसे जुड़े मुद्दों पर आपकी पैनी नज़र रहती है। जवाहर नवोदय विद्यालय से स्कूली शिक्षा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से पत्रकारिता का अध्ययन। व्यावहारिक अनुभव कई पत्र-पत्रिकाओं के साथ जुड़ कर बटोरा। संप्रति- प्रभात खबर में वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी। आप इनसे 09771927097 पर संपर्क कर सकते हैं।